शुभचिंतक
शुभचिंतक
ये मेरी पहली नौकरी नहीं थी। इस से पहले मैं छोटे मोटे एन.जी.ओ में प्रोजेक्टस के ऑपरेशनं हैंडल करती थी। जिस से मेरी कॉलेज की काफी जरूरतें पूरी होती थीं। मगर मेरी माँ ले लिए ये मेरी पहली इसलिए थी की ये एक नामी इस्तैब्लीश्ड कंपनी थी। और माँ ने ही जबर्दस्ती मुझसे इसका फॉर्म भरवाया था।
जिस दिन इंटरव्यू था उसकी एक रात पहले माँ ने पास बुला कर कहा " सुन अगर कभी कोई तुम्हें नीचे करने की कोशिश करे न तो समझ लेना ये इशारा है ऊपर वाले का कि तुम्हें उस से कहीं ऊंचा पहुंचना है।"
अगले दिन माँ की तबियत बिगड़ गयी। उन को हॉस्पिटल में भरती किया गया। मगर परिवार में किसी ने मुझे वहां रुकने तक नहीं दिया। माँ की ख़्वाहिश थी की मैं कहीं अच्छी जगह स्थिर नौकरी पा जाऊँ। इंटरव्यू देने जाऊँ। नौकरी तो मिल गयी मगर माँ हमेशा के लिए खो गयी। मैं गहरी उदासी में जा चुकी थी। मगर किसी को भी ये अहसास नहीं हुआ, मुझे भी नहीं।
कम्पनी में भी उसी विभाग में मेरी नियुक्ति हुई जिसे मैं एक तरह से काफी सालों से काम करती आ रही थी। मन धीरे धीरे रमने लगा था। सब कुछ अच्छा था मगर एक खाली पन सा घर कर गया था। ऑफ़िस में काफी उत्साही लोग भी थे। उनकी एक मंडली थी जिसमे हर दम कुछ रौनक सी रहती थी। उनके शोर शराबे से मेरा ध्यान कभी कभी उस ओर जाता। और तब मंडली मे एक नजर अक्सर मुझे मेरी तरफ देखती नजर आती। ये विधि थी। अनुभवी, हंसमुख और थोड़ी गुस्से बाज।
एक दिन कम्पनी के डायरेक्टर निरिक्षण को आये। ये अचानक ही हुआ था। मेरा काम सारा निपटा हुआ था। कोई बैक्लोग नहीं था। विधि उस दिन किसी वजह से लेट थी। उसकी टीम मेम्बर शिखा मेरे पास भागी आई।" सर को किसी बहाने अपने पास रोक लेना प्लीज, विधि नहीं आई और उसकी प्रोजेक्ट फ़ाइल भी नहीं दिख रही।" मैने कहा "ओके, कोशिश करूंगी।"
उस दिन विधि पूरे डेढ घण्टे लेट थी। शायद उसकी किस्मत बुलंद थी या मेरी ,डायरेक्टर सर काफी देर तक मेरी फ़ाइल और प्रोजेक्ट मे रुचि लेते रहे और मुझे कहा " यू आर एन अस्सट टू दिस कम्पनी।" बहरहाल दोपहर तक वे चले गये।
लंच आवर हुआ, विधि को शिखा ने बताया की आज वो मेरी वजह से बची है। सो वह कैनटीन में मेरे पास आई और बहुत शालीनता से मेरा शुक्रिया किया। मुझे उसकी शालीनता ने एक दम से मानो चौंका दिया। उसकी आँखें चमक रही थीं और चेहरे पर मुस्कान थी। मैने भी कहा "ईटस ओके, मेंशन नौट।"
इसके बाद विधि से रोज " हाय-बाय " होने लगा। एक दिन पता चला की विधि और उसकी टीम को मेरे डिपार्टमेंट में शिफ्ट कर दिया गया है। विधि और मैं अब आमने सामने बैठते थे। मुझे काम पूरा करने का जुनून रहता मगर विधि को मेरा ऐसे डूब कर काम करना फ़िजूल लगता था।
एक दिन वो मेरी डेस्क पर आई और हँसते हुए बोली "क्या फायदा होता है तुम्हें, उल्टा और काम तुम पर लाद देते हैं। उतना ही किया करो मैडम, जितनी तन्ख्वाह मिलती है।" मैने उसकी बात पर मुस्करा दिया। " ओके जी, झेलना फिर, हम तो चले मैडम।" कह कर वह ये जा, वो जा।
कुछ दिन बाद माँ की बरसी पर, कैनटीन में बैठी मैं अपने टिफिन को देखे जा रही थी। ये टिफिन वही था जिसमे माँ मुझे लंच पैक करके दिया करती थी। पता ही नहीं चला की कब मेरी आँखों से आँसू की धार बह चली थी। कुर्सी खींचने की आवाज़ ने मेरा ध्यान हटाया। देखा सामने विधि बैठी है। "क्या हुआ मैडम ?" उसने बस पूछा भर और मेरी सिसकियां भर आई। वो मुझे सुन ने लगी। मैं उसे कह रही थी " ये नौकरी, मुझे समझ नहीं आता की इसे क्या समझूँ? इसको पाने चली थी माँ खो बैठी।", " तुम खुद कह रही हो की ये माँ की इच्छा थी तो इसे माँ का आशीर्वाद मानो।" ऐसा नहीं था की ये आज विधि ने ही पहली बार ऐसा मुझे समझाया था। परिवार में हर कोई मुझे इसी तरह कहता आया था। मगर विधि के सीधे संवाद ने असर किया। मैं थोड़ा मुक्त हुई अपनी उदासी से। थोड़ा हल्का सा लगने लगा। अब वो अक्सर बात करती। मैं भी वापस सामान्य होने लगी।
जब कभी ऑफ़िस पोलिटिक्स से परेशान होती तो वो मोरल हाई करती। बताती की ये सब नॉर्मल है। ऐसा होता है।अपने लिए खड़े होना सीखो वगैरह वगैरह। कभी कभी उसे कोई सहयोग चाहिये होता तो मैं बिना कहे कर देती। इसी तरह चलता रहा। एक भरोसा सा कायम होने लगा। अब हम हर प्रोजेक्ट को साथ करते। वो अपने एक्सपेरियंस बताती और मैं सुनती और सुधार सजेस्ट करती और वो उनको अमल मे लाती। ऐसे कई शानदार प्रोजेक्ट उसके चले। वो कहती की मैं उसकी बेस्ट कलीग से ज्यादा अच्छी दोस्त हूँ। मुझे भी लगने लगा की इस ऑफ़िस में मेरी एक शुभचिंतक है।
साल बीत गया। फाऊंडेशन डे पर कॉन्फरेंस हाल मे सबकी मीटिंग बुलायी गयी। विधि लीव पर थी। डायरेक्टर सर ने एक बड़े नेशनल प्रोजेक्ट के लिए मेरा नाम लिया और कहा की अपनी टीम को सलेक्ट करके नाम दो। सब हैरान थे की इसे आये अभी साल ही हुआ और इतनी बड़ी जिम्मेदारी इसे दे रहे। मैं भी घबरा सी गयी। विधि इस प्रोजेक्ट के लिए उपयुक्त थी। मैने बिना कुछ सोचे उसका नाम प्रोपोस किया। मगर डायरेक्टर सर ने कहा की हमे फ्रेश और रॉ टलेंट की जरुरत है। उसके टलेंट को किसी ओर प्रोजेक्ट मे कंसीडर करेंगे। मुझे निराशा हुई साथ ही बहुत नर्वस भी हुई की अगर प्रोजेक्ट सही से नहीं रन हो पाया तो क्या होगा।
अगले दो दिन भी विधि नहीं आई। मैने हाल चाल के लिए फोन किया। वो दोस्तों के साथ कहीं लम्बी रोड ट्रिप पर निकली हुई थी। मैने उसे प्रोजेक्ट की बात बतायी।
" ख़ूबसूरत होने का यही तो फायदा है मैडम!!!! " विधि बोली "सुना है उस दिन तुम्हारे डायरेक्टर सर एक डेढ़ घन्टा तुम्हारे साथ ही बैठे थे।"मैं सुन कर आवाक थी। ये विधि ही बोल रही है या कोई और। "ऐनी वे, जवानी जब तक काम आये , गुड लक हीरोईन " कह कर उसने फोन डिस कनिक्ट कर दिया। मगर मुझे अब भी दो विधि दिखायी दे रही थी। एक मुझे प्यार से कंसोल करती हुई और दूसरी कानों मे पिघला शीशा डालती हुई। ये दूसरी कौन थी ?!
ऑफ़िस में भी सुगबुगाहटें थीं। और ये जरा भी अलग नहीं थी। विधि के कहे शब्द अलग अलग आवाज़ों में मेरे कानों में पड़ रहे थे। बहुत बेचैनी होने लगी की लोग इस तरह की घिनौनी बातें क्यूँ कर रहे हैं?!!!
मैं घर आकर खुद को समझाने लगी, खुद से बातें करने लगी " उन सबको पता है खासतौर पर विधि को कि मैं पहले भी इस तरह के प्रोजेक्ट कर चुकी हूँ । ये बस थोड़ा स्टेट से निकल कर नेशनल लैवल का हो गया है। "
बड़ी देर खुद से बहस करती रही। लोग मेरे बारे मे अनाप शनाप बोल रहे हैं सिर्फ इस प्रोजेक्ट की वजह से न?! फिर सोच लिया की कल डायरेक्टर सर से मना कर दूँगी की मैं नहीं कर सकती। किसी और को ले लें। ये सोचते हुए हमेशा की तरह सोने से पहले माँ की तस्वीर के आगे खड़े होकर कहा "गुड नाइट माँ !"
माँ की तस्वीर थोड़ी धुँधली सी लगी। आँखें मली तो पानी था। तभी जैसे माँ की आवाज मन मे गूँजी " सुन अगर कभी कोई तुम्हें नीचे करने की कोशिश करे न तो समझ लेना ये इशारा है ऊपर वाले का कि तुम्हें उस से कहीं ऊंचा पहुंचना है।"
अगले दिन मैं अपनी टीम को उनके डायरेक्शन दे रही थी। विधि और उसकी बातें कहां थी मुझे ध्यान नहीं रहा। मगर मेरी डेस्क पर मेरी माँ की तस्वीर मुस्कुरा रही थी।