ashok kumar bhatnagar

Inspirational

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श्रीमद्भगवद्गीता : ज्ञान का खजाना जिसने जीवन को समृद्धि और आनंद से भर दिया

श्रीमद्भगवद्गीता : ज्ञान का खजाना जिसने जीवन को समृद्धि और आनंद से भर दिया

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मैं आज सुबह ही अपने गावं पहुंचा हूँ। मेरा गावं मुरादबाद रामनगर रोड पर मुरादबाद से १८ किलोमीटर दूर सड़क से ७ कम दूर एक छोटा गावं हैं|अब तो बन्हा स्कूल और कॉलेज खुल गए हैं। पक्के मकान बन रहे हैं।सरकारी योजना का भर पूर लाभ उस गावं में पहुंच रहा हैं। लेकिन आज से २० बरस पूर्ब ऐसी स्थिति ना थी।स्कूल बगेरा नहीं थे।इस कारण उस गावं की अधिकांश आबादी अनपढ़ हैं।


मैं यों तो मुरादबाद शहर में रहता हूँ। लेकिन अक्सर मैं गावं आता जाता रहता हूँ। गावं बालो के आर्थिक ,सामाजिक, मानसिक और धार्मिक बिकास के लिए जितना हो पाता हैं। उतना करने की कोशिश करता हूँ।


एक सप्ताह पहले गावं के प्रधान का फ़ोन आया था | प्रधान कह रहा था ," सहाब गावं बाले ‘ श्रीमद्भगवद्गीता ’ के बारे में जानना और सुनना चाहते हैं। अगले सप्ताह आप गावं आ जायो। "


गावं बाले पंचायत भवन में बहुत अधिक संख्या में इकट्ठे हो गए थे और मेरा इन्तजार कर रहे थे। मेरे पंचायत भवन पुहचने पर सब गावं बालो ने उठ कर मेरा अभिबादन किया और फिर ‘ श्रीमद्भगवद्गीता ’पर परिचर्चा शरू हुई।


प्रधान ने कहा ," अशोक जी , कृपया बताएं ‘ श्रीमद्भगवद्गीता ’की रचना किसने की हैं ? "


मेने कहा ,"श्रीकृष्ण द्वैपायन वेदव्यास द्वारा विरचति ‘ श्रीमद्भगवद्गीता ’ ‘ महाभारत ’  का एक अध्याय है। ‘ श्रीमद्भगवद्गीता ’ को ‘ उपनिषद् ’, ‘ योग शास्त्र ’, ‘ ब्रह्म - विद्या ’, ‘ श्रीकृष्ण - अर्जुन - संवाद ’ भी कहा जाता है। वस्तुतः यह महाग्रन्थ वेदों का सार है। गीता के महत्ब के संबंध में एक श्लोक आता है -


सर्वोपनिषदों गावो दोग्धा गोपालनदंनः।

पार्थो वत्सरू सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत।।


अर्थात् समस्त उपनिषद् गाय हैं , उन गायों को दुहने वाले श्रीकृष्ण भगवान् हैं। अर्जुन बछड़ा है और इस गीता के दूध रूपी अमृत का पान ज्ञानीजन करते हैं| "


एक बुजुर्ग जिनका नाम राम लखन था खड़े होकर बोले ," मेने सुना हैं की गीता संस्कृत में हैं। हम इसे कैसे पढ़ सकते हैं ? "


 मेने कहा ,"श्रीमद्भगवद् गीता धार्मिक ग्रन्थ होने के साथ - साथ , समस्त मानव जाति के लिए ज्ञान का स्त्रोत भी है। इसीलिए विश्व की लगभग सभी भाषाओं में इसके अनुवाद उपलब्ध हैं। यह हिन्दी में उपलब्द्य हैं। "श्रीमद्भगवद्गीता - सरल हिंदी पद्य" हिंदी पद्य में भी उपलब्द्य हैं |इसे सुभाष चंद्र सैनी ने लिखा हैं।


एक दूसरे सज्जन जिनका नाम राम लाल था उठ कर खड़े हुए और बोले ," आखिर श्रीमद्भगवद्गीता में ऐसा क्या हैं ? जो एंटनी ज्यादा लोकप्रिय हैं। "


मेने कहा ," मनुष्य जीवन का मार्गदर्शन  श्रीमद्भगवद्गीता का मूल विषय एवं अभिप्राय है। यह ज्ञान भगवान् श्रीकृष्ण जी के मुखारविंद से एवं महर्षि वेदव्यास जी के माध्यम से महाभारत के युद्ध से कुछ पूर्व अर्जुन तक पहुँचा और तत्पश्चात् मानव जाति के कल्याण के लिए सुरक्षित रहा। 


                   श्रीमद्भगवद्गीता, एक प्राचीन भारतीय धर्मग्रंथ है, जो महाभारत युद्ध के समय का है। यह ग्रंथ अर्जुन और भगवान कृष्ण के बीच हुए संवाद के माध्यम से लोगों को जीवन के उद्देश्य और मार्ग के बारे में समझाता है। इसमें दर्शन और उपदेश हैं जो आध्यात्मिक विकास और उनकी आचरण शैली को संबोधित करते हैं।


                श्रीमद्भगवद्गीता, सनातन धर्म के आध्यात्मिक महासागर के गहन रहस्य ज्ञान रूप उपनिषदों का सार उपनिषद है । यह उपनिषद मानव जाति का सनातन धर्म है, जो सम्पूर्ण है, जो कालातीत है अर्थात जो सदा से था और सदा रहेगा । इस भूमि  पर जो भी मानवीय धर्म अंकुरित हुए और प्रसारित हुए, उनका सार तत्व श्रीमद्भगवद्गीता में उपलब्ध हैं।


              अर्जुन एक अर्थो में पूरी मनुष्य जाती ने जितने सबाल उठाएं हैं उन सबका सारभूत हैं।पूरी मनुष्य जाती में मनुष्य के मन में जितने सबाल उठाएं हैं ,उन सारे सबालो को अर्जुन उठाता चला गया।बोह पूरी मनुष्य जाती को श्री कृष्णा के सामने रिप्रेजेंट करता हैं।”


प्रधान जी ने मुझसे पूछा ," हमने सुना हैं कि गीता बैरागी बनाती हैं। क्या यह सही हैं ? "


मेने कहा ," गीता वैराग्य अथवा विरक्ति, उदासीनता, तटस्थ अथवा उदास होने की ओर उन्मुख नहीं करती हैं। वरन संसार में रहते हुए अस्तित्वगत को सम्पूर्णता से स्वीकार करते हुए अनाशक्ति की और अग्रसर करती हैं।”


मेने ग्रामबासिओं को बताया , जब मेने गीता का अध्ययन नहीं किया था। मैं बहुत कंफ्यूज रहता था। गीता पड़ने से मेरा कन्फूज़न उसी प्रकार दूर हो गया जैसे अर्जुन का संदेह दूर हुआ था  मेरे जीवन में भगवद गीता का अध्ययन करने से पहले और उसके बाद में बहुत अंतर था।

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 गीता के पहले अध्याय का नाम अर्जुन विषाद योग है। इस अध्याय में कुरुक्षेत्र के मैदान में उपस्थित बंधुओं और संबंधियों को सामने देखकर अर्जुन के मन में उठे विषाद और मनःस्थिति का वर्णन किया गया है।



 जब शौर्य और धैर्य, साहस और बल इन चारों गुणों से युक्त अर्जुन पर क्षमा और प्रज्ञा यानि बुद्घि का प्रभाव बढ़ा और उन्होंने युद्घ भूमि में हथियार डाल दिए।


तब कृष्ण ने तर्क से, बुद्धि से, ज्ञान से, कर्म की चर्चा से, विश्व के स्वभाव से, उसमें जीवन की स्थिति से, दोनों के नियामक अव्यय पुरुष के परिचय से और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से अर्जुन को वापस प्रेरित किया।


 अर्जुन युद्ध के मैदान में दोनों ओर अपने निकट सम्बन्धियों को देखकर व्यथित हो जाता है।और श्रीकृष्ण से कहता है कि वह अपनों ही के साथ अपने हक का राज्य पाने के लिये यद्ध नहीं करना चाहता ।


 श्रीकृष्ण उस व्यथित अर्जुन को कर्तब्य एवं धर्मपालन का बोध कराते हैं और उसके मन के सभी संशय दूर करते हैं । भर्मित अर्जुन कृष्ण से कई प्रश्न पछता है।


 और श्री कृष्ण अलग-अलग विकल्प देते हुए, समाधान करते जाते हैं । अन्ततः सभी संशय और भ्र्म दूर हो जाने पर अर्जुन का मोह भगं होता है और वह अधर्म के विरूद्ध यद्ध के लिए उठ खड़ा होता है । 

                            अर्जुन उवाच 

                  हे केशव! परी तरह सूख रहा मुख मेरा और अगं ढीले पड़ रहे ।

                 कंपकंपी हो रही शरीर में मेरे और रोंगटे भी खड़े हो रहे ।।{ (1/29) }

              

                   त्वचा भी जल रही है, और हाथ से गाण्डीव खिसक रहा है ।

                   खड़ा नहीं रह सकता हूँ , और मन भी चक्कर खा रहा है ।। {(1/30 }

      

                  हे केशव! यद्ध के सब लक्षण भी उलटे ही देख रहा हूँ ।

                 यद्ध में स्वजनों की हत्या कर, भला भी नहीं देख रहा हूँ ।। {1/३१ }

   

                     हे कृष्ण! नही चाहता मैं राज्य, न ही विजय, और न सुखं । 

                   हे गोविन्द! ऐसे जीवन भोगो से और राज्य से क्या प्रयोजन ।।{1/32}


                    सख, भोग और यह राज्य चाहिए था हमें जिनके लिए ।

                     प्राण और धन का मोह छोड़कर, वे खड़े यद्ध के लिए ।। {१/३३} 



                 

   गीता के दर्शनों का अध्ययन करने से बहुत से लोगों को मार्गदर्शन मिला है और उन्हें अपने जीवन के मार्ग में अधिक समझ और विश्वास मिला है। यह उन्हें अपनी असली विरासत की तलाश में मदद करता है और उन्हें उनके जीवन के लक्ष्य को जानने में मदद करता है।

एक बृद्ध महिला जिनका नाम रामवती था ने पूछा ," गीता कर्म के बारे में क्या कहता हैं और यह हमारे जीवन को कैसे प्रभाबित करता हैं ? "


मेने कहा ,"पहले, मैं अपने जीवन का उद्देश्य खोजने में नाकाम रहता था और मेरे मन में अनेक संदेह थे। मैं अपनी ज़िन्दगी के सभी मामलों में स्वयं को दुखी और विचारहीन महसूस करता था। 


                      जब मैंने भगवद गीता का अध्ययन करना शुरू किया, तब मुझे इस समस्या का समाधान मिला। गीता ने मुझे इस बात का ज्ञान दिया कि मैं केवल अपने कर्मों को नियंत्रित कर सकता हूं और उनके फल को नहीं। 


मेरे कर्म मेरी समर्थता का परिचायक हैं, और मैं केवल उन्हें ईमानदारी से कर सकता हूं।


भगवत गीता हमें सिखाती है कि व्यक्ति को सिर्फ और सिर्फ अपने कर्म के ऊपर ध्यान देना चाहिए।


गीता हमे निष्काम कर्म सिखाती हैं। कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन कर्म करने का अधिकार है आपका।कर्तव्य करने पर अधिकार है आपका।पर कर्तव्य के परिणाम स्वरूप मिलने वाले फल पर अधिकार आपका नहीं है।


 गीता का महत्ब्पूर्ण अध्याय कर्म योग जिसका अर्थ है निष्काम कर्म करके फल में इच्छा न रखना। मनुष्य न तो कर्मों का शुरू किए बिना निष्कर्मता को अर्थात योग निष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल छोड़ देने से सिद्धि अर्थात सांख्य निष्ठा को ही प्राप्त होता है।


 इसमें जीवन की दो प्राचीन संमानित परंपराओं का तर्कों द्वारा वर्णन आया है। अर्जुन को उस कृपण स्थिति में रोते देखकर कृष्ण ने उसका ध्यान दिलाया है कि इस प्रकार का क्लैव्य और हृदय की क्षुद्र दुर्बलता अर्जुन जैसे वीर के लिए उचित नहीं।


 उन्होंने बताया कि प्रज्ञादर्शन काल, कर्म और स्वभाव से होनेवाले संसार की सब घटनाओं और स्थितियों को अनिवार्य रूप से स्वीकार करता है। जीना और मरना, जन्म लेना और बढ़ना, विषयों का आना और जाना, सुख और दुख का अनुभव, ये तो संसार में होते ही हैं।




                             संजय उवाच 

                   हे परंतप! ‘मैं नहीं लड़ुँगा’, गुडाकेश ने हृषिकेश को यह कहकर ।

                  बिलकुल ही चपु हो गया वह अर्जुन, गोविंद श्री को ऐसा बतलाकर ।। {2/९} 



                    दोनों सेनाओ के बीच मऐ , हँसते हुए श्री कृष्ण ने ।

                    यह बात कही हे भारत! दःखी हुए उस अर्जुन से ।। {2/१०}

               


                            श्री भगवान उवाच 


        बद्धिमानों जैसे वचन बोलते, और शोक का विषय बनाते हो, शोक न करने योग्यों के लिये ।

       परन्तु हे अर्जुन! वासतब में पण्डित लोग शोक नहीं करते, मर्त और जीवित दोनों के लिये ।। {2/११} 


         न तो ऐसा है कि तमु नहीं थे, मैं नहीं था, ये राजा लोग नहीं थे पहले कभी ।

        और न ऐसा है कि तमु न होगे, मैं न होऊँगा, ये सब न होंगे भविष्य में कभी ।। {2/12}


            जीवात्मा न पैदा होता है, और न कभी मरता है, यह न पैदा होकर, फिर, न होने वाला होता है ।

           जो कि अजन्मा, नित्य, शाश्वत और परातन है, और शरीर के मारे जाने पर भी नहीं मारा जाता है ।।       {2/२०} 


                   जो इस आत्मा को, अविनाशी, अव्यय, नित्य, और अजन्मा जानता है ।

                    हे पार्थ! वह परुष किस को किस प्रकार मारता है, और मरवाता है ।। {2/२१}


                         

  

                    अपने धर्म को देखकर भी तुम्हारे लिये यु कापना उचित नहीं है ।

                  धर्म यद्ध से बढ़ कर, क्षत्रियों का और श्रेयस्कर धर्म नहीं है ।। {२/३१}



                   मारे गये तो स्वर्गप्राप्ति, जीते तो पथृ्वी का अपभोग करोगे राजा बनकर ।

                  इस कारण यह सर्वथा उचित है कुन्तीपत्र कि त यू द्ध करने का निश्चय कर ।। (2/37) 


                कर्म करने मात्र में है अधिकार तेरा अर्जुन, कर्म न करने में न हो कभी आसक्ति तेरी ।

           कर्मफल में नहीं अधिकार तेरा, त कूर्म फल में न कारण बन और न हो आसक्ति तेरी ।। {2/४७ } 


            योग को कहा जाता है, सफलता-असफलता में एक समान और समभाव में रहना । 

           अतः हे धनं जय! तमहैं चाहिए, कर्ममें आसक्ति का त्याग कर, निष्काम कर्म करना ।।{२/४८}


तीसरा अध्याय  में अर्जुन ने इस विषय में और गहरा उतरने के लिए स्पष्ट प्रश्न किया कि सांख्य और योग इन दोनों मार्गों में आप किसे अच्छा समझते हैं और क्यों नहीं ? वे इन दोनों में से किसे अपनायें?इसपर कृष्ण ने स्पष्टता से उत्तर दिया कि लोक में दो निष्ठायें या जीवनदृष्टियां हैं। सांख्यवादियों के लिए ज्ञानयोग है और कर्ममार्गियों के लिए कर्मयोग है। अर्थात् जो साधारण समझ के लोग कर्म में लगे हैं उन्हें उस मार्ग से उखाड़ना उचित नहीं।क्योंकि वे ज्ञानवादी बन नहीं सकते। और यदि उनका कर्म भी छूट गया तो वे दोनों ओर से भटक जायेंगे।


चौथा अध्याय में, जिसका नाम ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग है, यह बताया गया है कि ज्ञान प्राप्त करके कर्म करते हुए भी कर्मसंन्यास का फल किस तरह से प्राप्त किया जा सकता है। यहीं गीता का वह प्रसिद्ध वचन है कि जब जब धर्म की हानि होती है तब तब भगवान का अवतार होता है।


पांचवां अध्याय में कर्मसंन्यास योग नामक युक्तियां फिर से और दृढ़ रूप में कहीं गई हैं। इसमें कर्म के साथ जो मन का संबंध है, उसके संस्कार पर या उसे विशुद्ध करने पर विशेष ध्यान दिलाया गया है। यह भी कहा गया है कि एक स्थान पर पहुँचकर सांख्य और योग में कोई भेद नहीं रह जाता है। किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चले तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के जितने कर्म हैं, सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच जाता है और जल में खिले कमल के समान कर्म रूपी जल से लिप्त नहीं होता।


छठा अध्याय आत्मसंयम योग है जिसका विषय नाम से ही पता चलता है कि जितने विषय हैं उन सबमें इंद्रियों का संयम श्रेष्ठ है। सुख में और दुख में मन की समान स्थिति, इसे ही योग कहते हैं।

 श्री भगवान उवाच

               हे पार्थ! जब परुष, मन में आयी समस्त कामनाओ को छोड़ देता है । 

              तब, आत्मा से आत्मा में ही संनतष्ट वह पुरुष , स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।। (2/55) 


         सुखों के होने पर कामना रहित और दखो के होने पर जिसका मन व्याकुल नहीं होता है ।

         ऐसा आसक्ति, भय और क्रोध रहित, शान्त स्वभाव वाला परुष ही स्थितप्रज्ञ कहलाता है ।। {2/५६} 


          जो शभ को प्राप्त कर प्रसन्न नहीं होता और अशभ को प्राप्त कर द्वेष नहीं करता है ।

          हे अर्जुन! ऐसा सब र्विषयों में आसक्ति रहित परुष ही स्थिर बद्धिु कहलाता है ।। {2/57}


        हे पार्थ! जो परुष अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से सदा ही जब समेट लेता है ।

        तब कछुवे के समान अगं को समेटने वाला, वह ज्ञान निष्ठ परुष ही स्थिर बद्धिु होता है ।। {२/५8}

        इन्द्रियों को नियन्त्रित करके योगी हुआ परुष, मेरे परायण होता है ।

       और निश्चित ही, जिसकी इन्द्रियाँ वश में होती है, वह परुष स्थिर बद्धिु होता है ।। {2/६१}



सातवां अध्याय की संज्ञा ज्ञानविज्ञान योग है। विज्ञान की दृष्टि से अपरा और परा प्रकृति के इन दो रूपों की व्याख्या गीता ने दी है। अपरा प्रकृति में आठ तत्व हैं, पंचभूत, मन, बुद्धि और अहंकार। इसमें ईश्वर की चेष्टा के संपर्क से जो चेतना आती है उसे परा प्रकृति कहते हैं, वही जीव है। आठ तत्वों के साथ मिलकर जीवन नवां तत्व हो जाता है। इस अध्याय में भगवान के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है।


गीता का आठवां अध्याय अक्षरब्रह्मयोग है, जिसमें 28 श्लोक हैं। गीता के इस पाठ में स्वर्ग और नरक का सिद्धांत शामिल है। इसमें मृत्यु से पहले व्यक्ति को सोच, आध्यात्मिक संसार तथा नरक और स्वर्ग को जाने की राह के बारे में बताया गया है।


नौवां अध्याय में राजविद्याराजगुह्य योग गीता का नवां अध्याय है, जिसमें 34 श्लोक हैं। इसमें यह बताया है कि श्रीकृष्ण की आंतरिक ऊर्जा सृष्टि को व्याप्त बनाती है उसका सृजन करती है और पूरे ब्रह्मांड को नष्ट कर देती है।



दसवां अध्याय में विभूति योग गीता का दसवां अध्याय है जिसमें 42 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि किस प्रकार सभी तत्वों और आध्यात्मिक अस्तित्व के अंत का कारण बनते हैं।


ग्यारहवां अध्याय में विश्वस्वरूपदर्शन योग गीता का ग्यारहवां अध्याय है जिसमें 55 श्लोक हैं। इस अध्याय में अर्जुन के निवेदन पर श्रीकृष्ण अपना विश्वरूप धारण करते हैं।


बारहवां अध्याय में भक्ति योग गीता का बारहवां अध्याय है जिसमें 20 श्लोक हैं। इस अध्याय में कृष्ण भगवान भक्ति के मार्ग की महिमा अर्जुन को बताते हैं। इसके साथ ही वह भक्ति योग का वर्णन अर्जुन को सुनाते हैं।


तेरहवां अध्याय में क्षेत्र क्षत्रज्ञ विभाग योग गीता तेरहवां अध्याय है इसमें 35 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के ज्ञान के बारे में तथा सत्व, रज और तम गुणों द्वारा अच्छी योनि में जन्म लेने का उपाय बताते हैं।


चौदहवां अध्याय में गणत्रय विभाग योग है इसमें 27 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण सत्व, रज और तम गुणों का तथा मनुष्य की उत्तम, मध्यम अन्य गतियों का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं। अंत में इन गुणों को पाने का उपाय और इसका फल बताया गया है।


पंद्रहवां अध्याय में गीता का पंद्रहवां अध्याय पुरुषोत्तम योग है, इसमें 20 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण कहते हैं कि दैवी प्रकृति वाले ज्ञानी पुरुष सर्व प्रकार से मेरा भजन करते हैं तथा आसुरी प्रकृति वाले अज्ञानी पुरुष मेरा उपहास करते हैं।


16वें अध्याय में देवासुर संपत्ति का विभाग बताया गया है। आरंभ से ही ऋग्देव में सृष्टि की कल्पना दैवी और आसुरी शक्तियों के रूप में की गई है। एक अच्छा और दूसरा बुरा। 


सत्हरवां अध्याय में श्रद्धात्रय विभाग योग है। इसका संबंध सत, रज और तम, इन तीनों गुणों से है, अर्थात् जिसमें जिस गुण का प्रादुर्भाव होता है, उसकी श्रद्धा या जीवन की निष्ठा वैसी ही बन जाती है। यज्ञ, तप, दान, कर्म ये सब इसी से संचालित होते हैं। 


अठ्ठहारवां अध्याय में मोक्षसंन्यास योग का जिक्र है। इसमें गीता के समस्त उपदेशों का सार एवं उपसंहार है। इसमें बताया गया है कि पृथ्वी के मानवों में और स्वर्ग के देवताओं में कोई भी ऐसा नहीं जो प्रकृति के चलाए हुए इन तीन गुणों से बचा हो। मनुष्य को क्या कार्य है, क्या अकार्य है, इसकी पहचान होनी चाहिए। धर्म और अधर्म को, बंध और मोक्ष को, वृत्ति और निवृत्ति को जो बुद्धि ठीक से पहचनाती है, वही सात्विक बुद्धि है। 


मेरे साथ मेरा एक शहरी मिटा अरविन्द भी गया था। गीता के बारे में उसने अपने अनुभब को ग्रामबासिओं के साथ इस प्रकार शेयर किया।

                  मैं बहुत परेशान और डिप्रेशन में था और मृत्यु को लेकर बहुत परेशान था। जब मैं मर जाऊंगा तो क्या होगा? मुझे मौत से बहुत डर लग रहा था। ना तो मैं कुछ खा पा रहा था और न ही ढंग से सो पा रहा था। 


  मेने श्रीमद्भगवद्गीता को ध्यान से पढ़ा और उससे अपने जीवन के सभी संदेहों का सामना किया। मेरे मनोदशा सुधरने लगी और मेने अपने जीवन को अधिक सकारात्मक बनाने के लिए संकल्प ले लिया।भगवद गीता ने मुझे यह भी सिखाया कि आत्मा अमर होती है और मृत्यु सिर्फ शरीर का नाश होता है। इस ज्ञान का मेरे जीवन में बदलाव था क्योंकि मैं अपने आत्मा को स्वयं के कर्मों द्वारा पवित्र रखने की कोशिश करने लगा। 


                    फटे-पराने वस्त्र छोड़कर, जैसे मनुष्य ले लेता वस्त्र नये ।

                        जीर्ण हु ए शरीर छोड़कर, वैसे ही आत्मा लेती शरीर नये ।। {2/२२}


                       शस्त्र न आत्मा को काट सके, अग्नि न इसे जला सके ।

                      जल भी न गीला कर सके, और वाय न इसे सुखा सके ।। {२/२३}


                   आत्मा सदैव अबध्य है, और सभी के शरीर नष्ट होते हैं, हे भारत। 

                  भौतिक प्राणियों के विषय में, त शोक करने योग्य नहीं , हे पारथ ।। {2/३०} 


   

        भागवत गीता से हमें जीवन जीने की कला मिलती है| गीता सिखाती हैं कि नर्क के तीन द्वार क्रोध,लालच और वासना हैं।

क्रोध से भ्रम पैदा होता है।भ्रम से बुध्दि व्यग्र होती है।बुध्दि व्यग्र होने से तर्क नष्ट होता है। और तर्क नष्ट होने से इंसान का पतन हो जाता है।


         इन्द्रियों के विषयों के चिन्तन से परुष, उन विषयों में आसक्त हो जाता है ।

        आसक्ति से कामना और कामना में विघ्न होने से क्रोध उत्पन्न हो जाता है ।। {2/६२}


        क्रोध से अविवेक उत्पन्न होता है, और अविवेक से स्मृति भ्रम हो जाता है ।

       स्मृति भ्रम से बद्धिु नाश, और बद्धिु नाश से परुष श्रेय साधन से रे गिर जाता है ।।{२/६३}




 गीता हमे निम्न बाते सिखाती हैं 


1.बेकार की चिंता हम क्यों करते हैं।सब कुछ केवल आप पर हाय निर्भर नही करता यह संसार पूरा एक तन्त्र है आप उसके केवल एक कड़ी हो तो व्यर्थ मे चिन्ता मत करो।


2.बेकार में ही हम किसी से क्यों डरते हैं


3.कोई भी हमें मार नहीं सकता .


4.आत्म अज़र अमर है.


5.आत्म न कभी जन्म लेती है और न ही कभी मरती है.


6.इस संसार में जो हो रहा है अच्छा ही हो रहा है जो भी अब तक हुआ है वो भी अच्छा ही हुआ है और आगे भी जो होगा वो अच्छा ही होगा.


7.जो बीत गया उसके लिए पश्चाताप करने से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है.आने वाले वक़्त की चिंता हमें नहीं करनी चाहिए .


8.अपने वर्तमान को जीने में ही समझदारी है।


9."गीता में निहित दर्शन का जुड़ाव हमारे आंतरिक विश्वासों के साथ है" । इसमें जीवन के मूल्यों, उद्देश्य और मार्ग पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया जाता है।


10.गीता के अनुसार जो व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से नि:स्वार्थ भावना से प्रेम करता हैं. तो ऐसा प्रेम सच्चा प्रेम माना जाता हैं. जो लोग स्वार्थ की भावना से किसी व्यक्ति को प्रेम करती हैं. तो गीता के अनुसार ऐसा प्रेम सच्चा प्रेम नही होता हैं|


11. गीता ने अभिन्न पूर्णतावाद की वकालत की है। यह सभी एकतरफा घटनाक्रमों का खंडन करता है। यह "सक्रियता के माध्यम से त्याग" का प्रचार करता है। 


12.गीता में सक्रियता और त्याग का संश्लेषण हैं।


अपने अधिकारों का दावा करने और उनका प्रयोग करने की हमारी उत्सुकता में, हम अपने कर्तव्यों की उपेक्षा कर सकते हैं। इसलिए गीता के उपदेश की आवश्यकता अब पहले जैसी ही है।


आधुनिक युग विज्ञान का युग है।अतः कुछ लोगों को यह शंका हो सकती है, क्या आधुनिक युग में भी गीता की उपादेयता है?सच पूछा जाय तो गीता की यथार्थ आवश्यकता तो आधुनिक युग में ही है।यदि यह कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आज के मानव की लगभग सभी समस्याएं गीता का स्मरण करने से सरल हो जाएगी।


आधुनिक समय में जब विश्व शांति के सभी प्रयास रेत की दीवारों पर टिके हुए प्रतीत होते हैं, गीता का विश्व बंधुत्व का उपदेश मानवता का बहुत अच्छा मार्गदर्शन कर सकता है। गीता के अनुसार अंतिम लक्ष्य समाज का एकीकरण है। 


इसने न केवल मानव के कल्याण के लिए उपदेश दिया है बल्कि सभी जीवित प्राणियों के लिए भी गीता में वह उदारता है जो भारतीय विचार की विशेषता है। गीता ने सर्वत्र ईश्वर को देखकर स्वार्थ और परोपकार का समन्वय किया।


काल के साथ-साथ मानव का स्वभाव परिवर्तित नहीं होता।गीता का आधार मानव स्वभाव के मौलिक तत्त्वों पर है, अतः मानव को सदा ही गीता से प्रेरणा मिलती रहेगी।आधुनिक युग के अनेक दार्शनिक, राजनीतिज्ञ और वैज्ञानिकों ने गीता से प्रेरणा पायी है। 


'यंग इंडिया' में गांधी जी लिखते है--" मैं भगवद्गीता में ऐसी शक्ति पाता हूँ जो मुझे'पर्वत पर उपदेश'में भी नहीं मिलती।जब निराशा मेरे सम्मुख उपस्थित होती है और नितांत एकाकी मैं प्रकाश की एक किरण भी नहीं देख पाता तब मैं भगवद्गीता की ओर लौटता हूँ।मुझे यहां अथवा वहां एक श्लोक मिल जाता है और मैं तत्काल ही अत्य अधिक दुःखों के बीच में मुस्कराने लगता हूँ।"



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