शंखनाद
शंखनाद
आजकल की खबरें सुनता और पढ़ता हूं तो माताजी से जुड़े किस्सों की याद आ जाती है। मैं शायद छठी या सातवीं कक्षा में रहा हूंगा। हम लोग मुरादाबाद के थाना कोतवाली के सरकारी आवास में रहा करते थे। पांच सरकारी क्वार्टर लाइन से बने थे। हम लोग क्वार्टर नंबर 2 में रहा करते थे। हमारे क्वार्टर में दो कमरे , कमरे के आगे बरामदा और बरामदे के आगे आंगन था। आंगन में एक क्यारी हुआ करती थी। क्यारी के दाहिने छोर पर एक आम का पेड़ था जिसकी ऊंचाई लगभग 7 - 8 फीट रही होगी जो न ऊंचाई में बढ़ता था और न घटता था। क्यारी के बाएं छोर पर एक गुड़हल का पेड़ था । क्यारी के दोनों छोरों के बीच मनी प्लांट छाया हुआ था। आंगन में बाईं ओर एक अमरूद का पेड़ था और बाईं ओर वाले घर में एक बड़ा सा बरगद का पेड़ था, जो था तो पड़ोसी के घर, पर छाया हमारे आंगन में रहता था।
इन पेड़ों की छायों के नीचे लगती थी मम्मी जी की चौपाल , जिसमें बाकी क्वार्टर्स की महिलाएं चाय - बिस्किट पार्टी में आमंत्रित रहती थीं। इन पार्टियों में सभी महिलाओं द्वारा घरेलू और न्यूज पेपर में छपे सम -सामयिक मुद्दों पर व्यापक चर्चा की जाती थी। मेरे पढ़ने के लिए टेबल - कुर्सी बरामदे में लगी रहती थी। उनकी चर्चाओं की प्रचंड ध्वनियों के बीच अपनी पढ़ाई भी चलती रहती थी।
माताजी स्वभाव से ही धार्मिक थीं। देवी मां पर उनकी अटूट श्रद्धा थी। उनकी धार्मिकता का प्रभाव इतना प्रबल था कि पापाजी ने शादी के बाद अंडा तक खाना बंद कर दिया था।
परिवार और रिश्तेदारों में उनकी छवि एक कंजूस व्यक्ति की रही थी पर मुझे वो शुरू से ही मितव्ययी लगतीं थीं। नवरात्रि में हर दिन वो काली जी के मंदिर जाने के लिए रिक्शा नहीं करतीं बल्कि पैदल ही जाती थीं। रिक्शे वालों के साथ किराए को लेकर उनके बारगेनिंग लेजेंडरी लेवल की होती थी।मुरादाबाद में काली जी के मंदिर में राम नवमी का बड़ा भव्य मेला लगता था। हमें इस मेले का साल भर इंतेज़ार रहता था। मम्मी जी द्वारा रिक्शे के लिए बारगेनिंग कोतवाली के गेट से शुरू होती । वो दस रुपए मांगता , मम्मी पांच रुपए के लिए कहकर आगे बढ़ जातीं। इस तरह वो आगे बढ़ती जातीं। कुछ दूरी पर पांच रूपये में काली जी के मंदिर जाने वाला रिक्शा मिलता भी तो वो कहतीं कि अब तो आधा रास्ता पैदल ही तय कर लिया अब किस बात के पांच रूपये , अब तो तीन ही रुपए देंगे कहकर आगे बढ़ जातीं। हम भाई - बहन उनके पीछे - पीछे चलते- चलते पैदल ही काली जी के मंदिर पहुंच जाते। हां, वापसी में चूंकि रात हो जाती थी, तब हम रिक्शे से ही वापस आते। उनके द्वारा रिक्शे जैसे मामलों में तो कंजूसी थी पर हमें दूध, फल, बादाम आदि खिलाने में कोई कंजूसी नहीं थी। उनका कहना था कि खर्चा ऐसी जगह करो जिससे कि शरीर स्वस्थ रहे और दिमाग तेज।
मुझे उनकी धार्मिकता भी अंधी नहीं लगती थी। एक बार एक पंडितजी ने उन्हें बताया कि पिताजी पर शनि की साढ़े साती चल रही है। उपाय के लिए, एक नामी पंडितजी को बुलाया गया। वो पंडितजी तो नहीं आए पर उनके शिष्य आए। वार्तालाप आंगन में ही हो रहा था, मैं बरामदे में बैठा था। उनके शिष्य ने कहा कि ग्रह-शांति करानी होगी और ग्रह शांति पूजा का सारा सामान उन्होंने मम्मी जी को नोट करवा दिया था। थोड़ी बारगेनिंग के बाद पंडितजी के दक्षिणा के पैसे भी डिसाइड कर लिए गए थे। सामान में यज्ञ के लिए पांच किलो घी लिखाया गया था। सब कुछ सही चल रहा था कि शिष्य ने आगे कहा कि गुरु जी हवन आश्रम में ही कर लेंगे और सिर्फ भभूत आपको दे दी जाएगी । वो भभूत आप पूरे घर में छिड़क देना। मैं माताजी के नेचर से वाकिफ था। शिष्य के ऐसे वचन सुनकर मैने अपने हाथ में रखी पेंसिल साइड से रख दी अब मेरा पूरा ध्यान माताजी के रिस्पांस पर टिक गया था। उन्होंने उस समय तो हामी भर दी पर शिष्य के जाने के बाद उन्होंने मुझसे कहा, " अरे ये पोंगा पंडित है, हम किसी और ज्ञानी पंडित से उपाय पूछेंगे।"
खैर शनि की साढ़े साती से बचने के लिए उन्होंने सस्ते उपाय की खोज जारी रखी और उन्हें एक उपाय मिला भी। एक ज्ञानी पंडित जी ने उन्हें बताया कि सफेद गाय को रोज रोटी खिलाने से भी शनि की साढ़े साती खत्म होती है। फिर क्या, रोज रात मुझे भेजा जाता कि सफेद गाय को ढूंढकर रोटी खिलाने। मैं भी - सफेद न सही तोह भूरी ही सही - गाय को रोटी खिला कर जरूर जाता।
उन्हीं दिनों गांव में मकान को लेकर परिवार में कुछ झगड़ा था। पिताजी का स्वास्थ्य भी बिगड़ गया था। इन सबके बीच माताजी ने अगले 11 महीने तक - हर महीने - सत्य नारायण कथा कराने का मन बना लिया था। पर धार्मिक कर्मकांड सिर्फ श्रद्धा से नहीं पूरे होते, अक्सर खर्चीले भी होते है। संभवतः, पंडितजी की दक्षिणा बचाने के लिए उन्होंने निर्णय लिया कि वो सत्य नारायण की कथा खुद ही कहेंगी। बाजार से वो सत्य नारायण की कथा की किताब भी ले आईं और उसी अमरूद , बरगद और आम के पेड़ों की छाया के नीचे चल रही चाय बिस्किट पार्टी में , सभी महिलाओं के बीच , उन्होंने खुद से सत्य नारायण कथा कहने के प्रस्ताव पर चर्चा की। बरामदे में, पेन - पेंसिल- किताब लिए बैठा, मैं उनकी इस चर्चा का साक्षी बना।
उस समय क्वार्टर नंबर 1 में झा आंटी , 3 में पाठक आंटी, 4 में सिंह आंटी और 5 में मिश्रा आंटी रहा करतीं थीं। सभी ने एक सुर में कहा - पहला तो ये कि बिना ब्राह्मण के तुम्हारी सत्य नारायण कथा कभी सफल नहीं हो सकती, और दूसरा ये कि महिलाऐं कथा पढ़ ही नहीं सकतीं।
माताजी का प्रस्ताव ध्वनि मत से खारिज कर दिया गया। पर शायद उन्होंने उस क्षण अपने मन से वो प्रस्ताव खारिज नहीं होने दिया। लगभग एक साल का उन्होंने इंतेज़ार किया। उन दिनों हमारी गर्मियों की छुट्टी नानाजी के घर ही बितती थी। गांव में हमारे घर के सामने एक बड़ा शिव मंदिर है। उसी मंदिर के प्रांगण में भागवत कथा कही जाती थी और भागवत कथा कहते थे - अशरफी लाल पंडित। मम्मी जी ने पंडित अशरफी लाल से खुद से सत्य नारायण कथा कहने के प्रस्ताव पर चर्चा की और पंडित अशरफी लाल को भी न जाने क्या सूझी और उन्होंने कह दिया कि तुम्हारे कथा कहने में कोई शास्त्र बाधा नहीं है।
फिर मम्मी जी ने इस मुद्दे पर मेरे नानाजी से चर्चा की। मेरे नानाजी भी बहुत धार्मिक व्यक्ति रहे थे। संस्कृत भाषा के प्रकांड पंडित थे। गीता के 300 श्लोक उन्हें मुंह - जुबानी याद थे। उन्होंने माताजी से कहा कि भगवान भक्त के भाव से प्रसन्न होते हैं । उन्होंने एक वन लाइनर भी कहा जो आज भी मेरी स्मृति में जीवित है - " भाव के भूखे होते हैं भगवान ।"
गर्मियों की छुट्टियों के बाद जब हम लोग वापस मुरादाबाद आए, तो मम्मी जी का हृदय उमंग , तरंग , और ऊर्जा से भरा था। अब उनके साथ - ' डॉक्ट्रिन ऑफ भाव के भूखे होते हैं भगवान ' थी और साथ में पंडित अशरफी लाल का आशीर्वाद भी था। पर उनके चाय - बिस्किट पार्टी सम्मेलन में ये प्रस्ताव फिर भी पारित नहीं हो पाया। उनकी कथा का बहिष्कार कर दिया गया। पर उन्होंने अब मन बना लिया था सत्य नारायण की कथा कहने का।
न्योते के बावजूद, उनकी कथा में कोई नहीं आया, सिवाय मेरे। माताजी किताब में बताई गई विधि से सत्य नारायण भगवान की कथा कहतीं गईं और मैं उनकी कथा सुनता गया और ये सिलसिला अगले 11 महीनों तक चला।
सत्य नारायण की कथा में पांच अध्याय होते है और हर अध्याय के बाद शंख बजाया जाता है। पहले अध्याय के बाद एक बार, दूसरे अध्याय के बाद दो बार, और इसी तरह पांचवें आखिरी अध्याय के बाद पांच बार शंख बजाया जाता है।
उस समय की मेरी उमर के हिसाब से शंख बजाना आसान नहीं था। शंख बजाने में होठों को कसकर दबा कर पूरी ताकत से हवा शंख में फूंकनी पड़ती है । शंख बजाने में गाल की नसों का तनाव कानों तक महसूस होता है। पर सिर्फ एक कथा कहने के लिए उनके द्वारा साल भर किए गए प्रयासों को देखकर , मेरे मन में यही आया कि - भाई, ऐसे मौके पर शंखनाद तो बनता है। बाद में तो दुर्गा सप्तशती पढ़ कर उन्होंने घर पर खुद ही हवन तक किए।
आज हम तीनों भाई बहन अच्छा पढ़ लिखकर समाज में अच्छे से सेटल है। ये देखकर एक बात तो तय है कि उनकी पूजा व्यर्थ नहीं हुई, बल्कि सफल रही।
