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Bharat Bhushan Pathak

Drama

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Bharat Bhushan Pathak

Drama

शंखनाद

शंखनाद

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ढृढ़ इच्छाशक्ति और आत्मबल से मनुष्य कुछ भी कर सकता है,इसका जीता-जागता उदाहरण है मेरी इस कहानी की नायिका "निश्चया"।

निश्चया का परिवार बहुत ही साधारण व सरल हृदय वाला परिवार था।उसके माता-पिता और उसके छोटे भाई के अलावे उसके परिवार में कोई ओर नहीं था।

निश्चया अभी बच्ची थी ,जो केवल कक्षा 5 में पढ़ रही थी।वह पढ़ने -लिखने में तो बहुत ही कुशल थी,परन्तु अन्य कामों में पीछे ,बहुत पीछे थी वह...

उसे भीड़ में रहना,लोगों से अकेले मिलना,रात में थोड़े देर के लिए भी अँधेरे में रहने में काफी डर लगता था।

यहाँ तक कि कोई ये तक उसे कह दे कि तुम्हारे पीछे कौन है , तो ही वह डर से काँपने लगती थी और तो और कभी-कभी बेहोश होकर गिर भी जाती थी।

एक दिन माँ ने उसे पड़ोस के घर से कुछ सामान लाने के लिए भेजा,तभी उसके पीछे आने वाले कुछ बच्चों ने उससे ये कह भर दिया कि देखो तुम्हारे पीछे बड़े-बड़े दाँतों और भयानक नाखूनों वाला राक्षस खड़ा है,इतना ही पर्याप्त था उसे फिर से डराने के लिए।

इसके परिणामस्वरूप वह जोर-जोर से चिल्लाने लगी । इसके साथ ही आस-पास के घर से उसके सारे पड़ोसी दौड़ कर आ गए।कुछ देर में वहाँ एक मेला सा लग गया।

सबलोग उसके पास आते थे और उसे चुप कराने की कोशिश करते,परन्तु वह उनके द्वारा चुप कराने पर और

भी रोने-चिल्लाने लगती थी।आए लोग आपस में बात करने लगे कि आखिर निशि बिटिया को हुआ क्या है,यह पढ़ने-लिखने में भी बहुतअधिक अच्छी है।क्या इसे किसीने पीटा तो नही ?क्या इसे कहीं भूख तो नहीं लगी ?कहीं ये डर तो नहीं गयी ?क्या इसने कुछ ऐसा-वैसा देख तो नहीं लिया?वो ये सब तर्क-वितर्क कर ही रहे थे कि पास ही के घर में रहने वाली एक औरत ने निशि बिटिया अर्थात् निश्चया जिसे वो प्यार से निशि पुकारते थे ,उसकी माँ को उसके रोने के विषय के बारे में बतला दिया ,वो भी वहाँ पर

निश्चया को ढूँढते-ढूँढते पहुँच गयी। उसकी माँ को आते ही उन लोगों ने फिर से निश्चया से पूछा कि आखिर बात क्या है,वह क्यों रो रही थी।

अपनी माँ को देखकर निश्चया ने अपने रोने-चिल्लाने का कारण यह बताया कि अभी-अभी कुछ बच्चे उसके पास आए थे और उन्होंने उससे कहा था कि तुम्हारे पीछे बड़े बड़े दाँतों और भयानक नाखूनों वाला राक्षस खड़ा है और वह इतना सुनकर यह सोचते ही कि कहीं वो बड़े-बड़े दाँतों और नाखूनों वाला राक्षस कहीं उसे पकड़ कर चबा-चबाकर कहीं कच्चा न खा जाए,जिसके बाद वो अपने माँ-बाप से भी नहीं मिल पायेगी।वह यह सब सोचकर ही रो-चिल्ला रही थी। लोगों ने जब उसके रोने और चिल्लाने का कारण जाना तो वह निश्चया की ओर देखकर खूब हँसने लगे। साथ ही छत के ऊपर से देखती एक औरत ने जब यह कह डाला कि सुना था पुलिस और फौज वालों के बच्चे बहादुर होते हैं तो निश्चया बेटी इसकी अपवाद तो नहीं है।उसके बोलने के अंदाज से व्यंग्य स्पष्टतः झलख रहा था। उसके इस बात को सुनकर वहाँ उपस्थित लोगों ने उस महिला की बात का जोर-जोर से खिलखिलाकर और हामी भरते हुए समर्थन किया। इतना तो पर्याप्त ही था निश्चया और उसकी माँ के पुराने जख्मों को पुनः हरा होने के लिए पर्याप्त ही था। उसने निश्चया का हाथ पकड़ा और सम्भवतः उसे घसीटते हुए अपने घर की ओर चल दी कि तुम्हारे पिता तो एक योद्धा की भाँति शहीद हो ही गए,पर न जाने तू कहाँ से हमारे भाग्य में आ गयी।है तो तू ए.सी.पी. प्रखर की ही निशानी ।जिनके एक हूँकार से दुश्मनों की रूह तक थर्रा उठती थी। उसके बाद वो अपने घर पहुँचकर निश्चया के बालों में तेल लगाते हुए अपने उस समय को याद करने लगी ,जब उसकी शादी ए.सी.पी.प्रखर से हुई थी।कितनी खुश थी वह...उस दिन वो और मेजर प्रखर मसूरी की हसीन वादियों में पहाडी़ के ढलान पर प्रकृति के सौन्दर्य को निहार रहे थे कि तभी....उन्हें एक फोन आया था और वो मुझको टैक्सी में बिठाकर अपने कर्तव्य पथ की ओर चल दिए थे।पुलिस वालों और फौज वालों के लिए रात और दिन कोई मायने नहीं रखती। उसके बाद निश्चया की माँ विवेचना उस दिन रात भर ए.सी.पी.प्रखर का इन्तजार करती रह गयी थी बैठकर, वैसे तो पुलिस या फौजवालों के परिवार के लिए उम्मीद या प्रतीक्षा शब्द उनके शब्दकोष की एक अनिवार्य तत्व की भाँति ही है परन्तु यह प्रतिक्षा और उम्मीद आखिर कबतक.. रात कब दिन में बदल गयी थी उस दिन कुछ पता ही तो न चल पाया था विवेचना को ...वो इसी प्रकार ही ए.सी.पी.प्रखर का इन्तजार करती रह गयी थी।फिर एक फोन ने उसके प्रतीक्षा को सर्वदा के लिए ही प्रतिक्षा बनाकर रख दिया था उसके बाद..अब इस पहाड़ से जीवन को जीने के लिए विवेचना के पास उनके पति ए०सी०पी०प्रखर की एकमात्र निशानी के रूप में यही डरी -सहमी सी निश्चया रह गयी थी और रह गया था उसके पिता ए०सी०पी०प्रखर की धूमिल पड़ चुकी-सी स्मृतियाँ..... विवेचना ये सब सोच ही रही थी कि तभी उसकी और ए०सी०पी०प्रखर की स्मृतिस्वरूप शेष रह चुकी उसकी

प्यारी बिटिया निश्चया उठकर उसके पास आकर रोने लगी तब फिर से वो यादें उसकी यादों में कहीं खो-सी

गयी,सिमट कर रह गयी।निश्चया के रोने से उसे यह याद हो आया कि आज पहली बार अपनी प्यारी-सी ,फूल-सी बच्ची को पीटा था उसने और उसकी बच्ची मार खाकर बिना कुछ खाए-पीए ही सो गयी थी। खैर किस्मत ने उसे एक ओर मौका दिया था अपनी बच्ची से टूटी हुई मित्रता को ठीक करने.. आज निश्चया फिर जो उसके पास आई थी,उसे देखकर विवेचना के अन्तस में छिपा गमों का पहाड़ विध्वंशित हो गया और इसके विध्वंशित होने के बाद विवेचना रूपी सागर से असंख्य जलधाराएं प्रस्फुटित हो पड़ी। निश्चया के मासूमियत वाले अन्दाज ने इस ज्वार को थोड़ा शान्त तब कर दिया जब उसने विवेचना से ये कहा कि मम्मी एक बात कहूँ ,"जब सुबह तुमने मेरे पीठ पर जोर से घुम्म(मुक्के की आवाज) मारा तो मैंने सोचा कि तुमसे बात भी नहीं करूँगी और पापाजीसे तुम्हारी शिकायत भी कर दूँगी। उसकी ये कहते ही रोती हुई विवेचना भी हँसने लगी और उसे गोद में लेकर प्यार से उसे चूमने लगी। अब दोनों माँ-बेटी की बातें पुनः प्रारम्भ हो गयी थी।निश्चया ने जब अपनी बचकानी भाषा में विवेचना से

ये कहा कि मम्मी मैंने ये सोचा है कि अब मैं बिकुल भी नहीं डरूँगी,न रोऊँगी और न ही कभी चिलाऊँगी और पापा के जैसे ही बहादुर बनूँगी।उसके बाद तो निश्चया का निश्चय और भी अटल दिखने लगा था।सुबह से ही उसमें विचित्र सा परिवर्तन दिख रहा था।संभवतः उसने अपने इस भय के साथ होने वाले युद्ध का शंखनाद कर दिया था।

कुछ दिन तक तो निश्चया की उसकी मम्मी के रूप में एक दोस्त ,साथ में रही..

पर कुछ दिनों के बाद वो भी निश्चया को अपने इस निश्चय के साथ अकेले ही इस नश्वर जगत में छोड़कर चली गयी थी।

हुआ यह था कि इन दिनों विवेचना प्रखर की याद में कुछ ज्यादा ही उदास रहने लगी थी,जिसके फलस्वरूप वह हमेशा एक चिन्तन मुद्रा में रहती थी।

एक दिन जब वो बाजार से सब्जी लेकर आ ही रही थी की कुछ मन मंथन में उसे इस बात का पता ही न चल पाया कि वह इस लोक से परलोक की ओर कब प्रस्थान

कर गयी।अब अकेले थी तो नस्वर जगत में वो निश्चया जो अबतक लगभग उन्नीस-बीस साल की हो गयी थी।अपनी माँ की देहावसान के बाद निश्चया कुछ दिनों तक तो अकेले ही इस संघर्ष का सामना करती रही। फिर उसके भारतीय थल सेना परीक्षा का परिणाम आ गया,उसके बाद निश्चया अपनी एक नये संघर्ष की दुनिया की ओर अग्रेसर हो गयी।शायद उसके प्रशिक्षण के साथ ही एक नये शंखनाद का प्रारम्भ था यह...

निश्चया अब वो डरने,रोने और चिल्लाने वाली निश्चया नहीं रही थी।दृढ़ आत्मशक्ति,कठोर अनुशासन व दैनिक शारीरिक व मानसिक अभ्यास के फलस्वरूप निश्चया अब मेजर निश्चया विवेचना प्रखर बन चुकी थी। उसके पश्चात ही कठोर साधना के फलस्वरूप वो भारतीय थल सेना की कमाण्डिंग आॅफीसर बन कर एक नये शंखनाद के साथ दुश्मनों के खेमे की और प्रस्थान कर गयी।साथ में उसके असंख्य वीर योद्धा थे। परन्तु वह अकेले ही अभिमन्यु की ही भाँति दुश्मनों के चक्रयूह के अन्दर प्रविष्ट होती जा रही थी।

हर ओर से असंख्य दुशासन,असंख्य दुर्योधन उसका मार्ग अवरूद्ध करने को तत्पर थे,पर निश्चया के अटल निश्चय के समक्ष कोई क्षण भर भी ठहर नहीं सक रहा था।

हर ओर से आज के इस महाभारत में दुर्योधन और अनगिनत दुशासन टूट पड़े थे उस पर ,परन्तु निश्चयारूपी शैलाब के सामने किसी का ठहर पाना सम्भव नहीं हो पा रहा था। पर अन्त में उस चक्रव्यूह की भाँति ही इस चक्रव्यूह में निश्चयारूपी प्रचण्ड अभिमन्यु शंखनाद करके अन्तिम बार जब आगे की ओर बढ़ी तो दुश्मनों के गोली का शिकार हो गयी। उसके बाद भी इस शेरनी ने अपने इस सिंहत्व को न छोड़ा और वो एक घायल शेरनी की भाँति ही आगे बढ़ती रही।

उसके बंदूक की गोली की प्रत्येक ध्वनि महाभारत के शंखनाद के समान ही थी ।हरओर से घायल यह निश्चयारूपी शेरनी माँ भारती की गोद में थकहारकर चिरनिद्रा में विलीन हो गयी।आज वाकई उसने अपने पिता के चित्र और माँ के आँसुओं से किए उस वादे को पूरा कर ही दिया था।

अन्त में युद्ध विराम का शंखनाद भी हुआ और इस पराक्रमी सिंहनी का शरीर माँ भारती के गोद में सिमट गया।



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