Ashish Kumar Trivedi

Inspirational

4.8  

Ashish Kumar Trivedi

Inspirational

शिवोहं

शिवोहं

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सुयश अपने लैपटॉप के सामने आँखें बंद किए बैठा अपने विचारों में मग्न था। तभी उसकी पत्नी विशाखा ने कहा।

"खाना खा लो बाद में लिख लेना।"

"अभी नहीं....अभी नावेद खान को मेरी ज़रूरत है।"

"तो ठीक है। करो मदद अपने नावेद खान की। टीवी पर मेरी फेवरेट मूवी शुरू होने वाली है। अब खाना मूवी खत्म होने के बाद ही मिलेगा।"

सुयश ने उसी तरह आँखे बंद किए हुए कहा।

"ठीक है....यू गो एंड इंज्वॉय योर मूवी।"

विशाखा जाते हुए रुक कर बोली।

"सुयश अगर तुमने नावेद खान की जगह कोई महिला चरित्र रचा होता तो मैं कह सकती थी कि वो मेरी सौत है।"

सुयश के चेहरे पर मुस्कान आ गई। विशाखा के जाने के बाद उसने लैपटॉप स्क्रीन पर पढ़ना शुरू किया।

नावेद की आँख खुली तो उसके चारों तरफ सिर्फ घुप अंधेरा था। कुछ क्षणों के बाद जब उसकी आंखें अभ्यस्त हुईं तो उसे उस अंधेरे में धुंधली सी आकृतियां दिखीं । चारों तरफ कार्डबोर्ड के बक्से जैसे थे। शायद कोई गोदाम था। आँखों के साथ साथ उसकी और भी इंद्रियों ने काम करना शुरू कर दिया। उसकी नाक को एक अजीब सी दुर्गंध आ रही थी। जैसे अक्सर पब्लिक टॉयलेट्स के बाहर आती है। तो यहाँ क्या कोई टॉयलेट है। नावेद ने हिलने की कोशिश की। उसे एहसास हुआ कि उसकी टांग गायब है। किसने निकाली उसकी प्रॉस्थैटिक टांग ? और क्यों ? 

उसे किडनैप करने वाला इतना डरा हुआ है। उसे डर था कि कहीं वह भाग ना जाए। नावेद खान को हंसी आ गई। इसके लिए उसने मेरी टांग निकाल दी।

नावेद खान उस जगह पर कैद था। सुयश जब तक उसे वहाँ से निकाल नहीं लेगा उसे चैन नहीं पड़ेगा। 

चैन पड़ेगा भी कैसे ? नावेद खान उससे अलग थोड़ी ना है। वह उसी का तो अक्स है। उसके संघर्ष के मंथन से ही तो जन्मा है नावेद खान। 

उस रात हुए कार एक्सीडेंट ने उससे उसका सब कुछ छीन लिया था। वह अपाहिज होकर बिस्तर पर पड़ा था। अपनी इच्छा से हिल डुल भी नहीं सकता था। विशाखा का चेहरा देख कर उसके दिल पर बर्छी चलती थी। वह उसके सामने मुस्कुराती थी। पर वह जानता था कि अंदर से वह कितनी दुखी है। उसके घरवाले परेशान थे। कोई कुछ नहीं कहता था पर सबकी आँखों में नमी को वह देख लेता था जो झूठी मुस्कान के परदे से झांकती थी। 

एक क्रिकेटर के तौर पर उसका कैरियर उस बिस्तर पर दम तोड़ चुका था जिस पर वह खुद एक ज़िंदा लाश की मानिंद पड़ा था।

एक मायूसी भरे अंधेरे ने उसके समूचे व्यक्तित्व को जकड़ लिया था। बस बिस्तर पर पड़े हुए वह मन ही मन चीखता था।

नहीं जीना है मुझे....क्यों ज़िंदा रखा ? बस अब ले चलो।

सबसे छिपा कर अब वह भी उस अदृश्य परम शक्ति के सामने रोना सीख गया था।

डॉक्टरों की कोशिश और घरवालों की दुआओं से वह बिस्तर से व्हीलचेयर पर आ गया था। पर जीने की इच्छा उसमें रत्ती भर भी नहीं बची थी।

ऐसे में वह चिड़चिड़ा हो गया था। बात बात पर झुंझला जाता था। खासकर लोगों की बेवजह दर्शाई गई संवेदना उसे चिढ़ा देती थी। जिसमें उसे ढांढस बंधाने का भाव कम और उसकी लाचारगी पर तरस अधिक होता था।

उसके चिड़चिड़े होते स्वभाव का सबसे अधिक असर विशाखा पर होता था। वह बेवजह उस पर चिल्लाने लगता था।

क्यों दूसरों की तरह मुझ पर तरस खाने आती हो। मुझे किसी की ज़रूरत नहीं। तुम्हारी भी नहीं। बस यूं ही इस व्हीलचेयर की कैद में घिसटते घिसटते मर जाऊँगा।

ऐसा नहीं था कि उसे विशाखा की तकलीफ का एहसास नहीं था। पर उसकी तकलीफ यही थी कि विशाखा को उसके कारण इस दुख से गुज़रना पड़ रहा है।

पर विशाखा चट्टान की तरह डटी थी। उस हर पल इसी विचार में गुज़रता था कि कैसे सुयश को इस मायूसी की कैद से छुड़ा कर ले आए। 

उसने जीवन पथ पर चलने के लिए जिस सुयश का हाथ थामा था वह बहुत जुझारू था। उस वक्त भी वह अपने क्रिकेट कैरियर के कठिन दौर में था। बहुत खराब फॉर्म से गुज़र रहा था। पिछली दस पारियों में सिर्फ 70 रन बनाए थे। पिछली तीन पारियों में लगातार ज़ीरो पर आउट हुआ था। अखबारों में सुर्खियां थीं। 

हैट-ट्रिक बाई सुयश।

उस कठिन समय में बहुत ही सादे समारोह में सात फेरे लिए थे दोनों ने। पर पहली ही रात सुयश ने कहा था।

मैं लोगों को यह कहने का मौका नहीं दूँगा कि तुम एक फ्लॉप क्रिकेटर की पत्नी हो। आई विल बाउंस बैक

उसके बाद सुयश ने धमाकेदार वापसी की थी। उसके वही शब्द विशाखा के कानों में गूंजते रहे थे। वह चाहती थी कि सुयश फिर से कहे।

आई विल बाउंस बैक

लेकिन इस बार सुयश का हौंसला टूट चुका था। विशाखा ने खुद को और भी मजबूत बना लिया था।

जब कोई राह तलाशने की कोशिश करता है तो अंधेरे भी हार जाते हैं। विशाखा की कोशिश भी रंग लाई। 

विशाखा अपने एक दोस्त आदित्य के घर पर एक बहुत ही विलक्षण प्रतिभा से मिली। अरिहंत पेशे से जर्मन भाषा के रिटायर्ड प्रोफेसर थे। पर भारतीय दर्शन और ग्रंथों में उनकी विशेष रुचि थी। वह देश विदेश में भारतीय धर्मों व दर्शन पर बोलने के लिए जाते थे। इसी सिलसिले में आदित्य के घर आए थे। उसी शाम शहर की मानी हुई संस्था ने उनका लेक्चर आयोजित किया था। उनकी बातों से प्रभावित विशाखा ने तय कर लिया था कि वह उस लेक्चर में सुयश को लेकर जाएगी।

कठिन था पर उसने सुयश को मना ही लिया। ऑडिटोरियम भरा हुआ था। पर अरिहंत ने उनके लिए विशेष व्यवस्था करवा दी थी। 

अरिहंत ने अपना लेक्चर शुरू किया।

शिवोहं....यानि कि मैं ही शिव हूँ। तो ये शिव कौन है ? शिव हैं इस सृष्टि का आधार। शिव से ही उत्पत्ति है। शिव में ही अंत। तो वो शिव तो मैं स्वयं हूँ। फिर क्या आवश्यक्ता है मुझे बाहर से शक्ति तलाश करने की.....

अरिहंत ने सवाल किया। फिर श्रोताओं से भरे ऑडिटोरियम पर नज़र डाली। 

क्यों मैं कुछ भी पाने के लिए किसी और शक्ति के सामने गिड़गिड़ाऊं....वह परम शक्ति तो मैं ही हूँ। क्यों ना खुद ही उसे पाने की कोशिश करूँ जो मुझे चाहिए। अपनी असफलताओं का उत्तरदाई मैं हूँ....मेरी सफलताएं मुझ पर निर्भर हैं।

अरिहंत फिर रुके। सब चुपचाप मंत्रमुग्ध सुन रहे थे।

शिवोहं.... अहं ब्रह्मास्मि....ये उद्घोष है हमारे पूर्वजों का। ये वाक्यांश नहीं शक्ति का श्रोत हैं।

ऑडिटोरियम तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था। विशाखा भी ताली बजा रही थी। पर सुयश अभी भी वैसे ही मायूस बैठा था। मन ही मन वह विशाखा पर झल्ला रहा था। ये बेकार का लेक्चर सुनाने लाई थी। सब बेकार की बात है। कथनी करनी का फर्क। खुद पर बीते तो समझ आए।

लेक्चर के बाद विशाखा सुयश को लेकर अरिहंत से मिली। अरिहंत ने केसरिया रंग का कुर्ता पहना हुआ था। नीचे उसी रंग की लुंगी थी। जो दक्षिण भारतीय तरीके से बांधी गई थी। अरिहंत ने मुस्कुराते हुए उनका स्वागत किया।

"कैसे हो सुयश ?"

सुयश ने कोई जवाब नहीं दिया। 

"कैसा लगा यहाँ आकर ?"

सुयश के चेहरे पर व्यंग भरी मुस्कान थी। 

"बहुत अच्छा....मैं तो शक्ति से भर गया।"

अरिहंत उसी मृदु मुस्कान के साथ बोले।

"भर जाओगे....जब अपनी इस बेवजह कड़वाहट को त्याग कर गहराई से सोंचोगे।"

'बेवजह कड़वाहट' यह सुन कर सुयश चिढ़ गया। 

"मेरा दुख आपको बेवजह लगता है। लगेगा ही। कुछ बातें रट कर आसानी से इतने लोगों की तालियां जो मिल जाती हैं। कभी आप पर पड़ेगी तो देखता हूँ ये शिवोहं कितना याद रहता है।"

विशाखा ने सुयश को शांत कराने की कोशिश की। 

"कह लेने दो बेटा....मन का गुबार निकालना भी ज़रूरी है। वरना नया कैसे अपनी जगह बनाएगा।"

अरिहंत के चेहरे पर अभी भी शांत भाव था। उन्होंने सुयश से पूछा,

"सुयश क्या तुम दुनिया में अकेले हो जिस पर दुख का साया पड़ा हो। एक बार गौतम बुद्ध ने अपने शिष्य से कहा कि ऐसे घर से भिक्षा लाओ जहाँ कभी शोक ना हुआ हो। उस दिन वह शिष्य खाली भिक्षा पात्र के साथ लौटा।"

"मैंने भी सुनी हैं ऐसी ज्ञान की बातें। पर मुझे जहान भर के दुख से क्या मतलब। मुझे मतलब है अपने आप से।"

"तुम्हें अपने आप से भी कहाँ मतलब है ? होता तो खुद को यूं इस दुख की कैद में ना छोड़ देते। हाथ पैर मारते बाहर निकलने के लिए।"

"बात करना आसान होता है। खुद झेलना मुश्किल।"

"नहीं इतना कठिन नहीं है। मैं कह रहा हूँ।"

"अच्छा....किस अनुभव से ?"

अरिहंत के चेहरे पर फिर वही मृदु मुस्कान थी। उन्होंने अपने कुर्ते को थोड़ा ऊपर खींचा। फिर अपनी लुंगी को सावधानी से ऊपर उठाया।

सुयश अचंभित था। विशाखा को भी यकीन नहीं हो रहा था। अरिहंत का बायां पैर घुटने के नीचे से कटा था। उन्होंने प्रॉस्थैटिक पैर लगा रखा था।

"ये सब कब हुआ ? कैसे हुआ ? मायने नहीं रखता है। बस तुम ये समझ लो कि मैं भी उस अंधेरी सुरंग से बाहर निकला हूँ जिसमें तुम अभी भी बंद हो। पर ये जान लो इसके बाहर निकल सकते हो। और सिर्फ तुम ही प्रयास कर सकते हो।"

अरिहंत खड़े हो गए। 

"चलता हूँ सुयश....पर शिवोहं झूठ नहीं है।"

उस रात सुयश बस शिवोहं के बारे में सोंचता रहा। सुबह सचमुच एक नया सवेरा लेकर आई। इस सुबह में उसने खुद से अहद किया कि वह भी सुरंग से बाहर आकर दिखाएगा।

सुयश कोशिश कर रहा था। विशाखा उसके साथ थी। तलाश थी एक नई राह की। वह उस राह की तलाश में जुट गया। 

उसे जवानी के आरंभिक दिनों से ही जासूसी उपन्यास पढ़ने का शौक था। पर वह सिर्फ पढ़ता नहीं था। उसके अपने मन में भी कितना कुछ उमड़ता था। पर तब क्रिकेट के चलते उसने कभी ध्यान नहीं दिया था। 

एक रात जब वह बिस्तर पर बैठा सोंच रहा था तभी जन्म हुआ नावेद खान का। उसने उसके बाहर निकल कर कहा।

देखो मैं भी हूँ ना। इस नकली टांग से देश का सबसे बड़ा जासूस बनूँगा। तुम क्यों यूं बैठे हो। थाम लो मेरा हाथ। हम दोनों सफलता के पथ पर आगे बढ़ेंगे। हम दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ना।

उसी रात सुयश ने अपना लैपटॉप उठाया। शब्दों का शरीर देकर नावेद खान को एक महान जासूस बना दिया।

अब नावेद खान सीरीज़ की यह छटी किताब थी। 

सुयश को नावेद खान की मुक्ति का मार्ग मिल गया। उसने फौरन आगे की कहानी लिखी। किताब का एक अध्याय पूरा हो गया था। 

सुयश ने लैपटॉप बंद कर दिया। अपनी पावर्ड व्हीलचेयर से वह लिविंग रूम में पहुँचा। विशाखा मूवी देखते हुए आंसू बहा रही थी। सुयश मुस्कुराया। 

'ना जाने इसे इस मेलोड्रामा में क्या मज़ा आता है।'

विशाखा ने उसकी तरफ देखा। 

"अभी फिल्म खत्म होने में वक्त है।"

"तुम देखो, मैं भी तुम्हारे साथ देखता हूँ।"

"रहने दो तुम्हें नहीं अच्छी लगेगी। ब्रेक में खाना देती हूँ।"

सुयश ऐड ब्रेक का इंतज़ार करने लगा।


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