सदक़ा
सदक़ा
आज हम भाई ,बहन "रमज़ानुल मुबारक" में जो सदक़ा निकालते हैं वो हमारे अम्मीं और अब्बा का तरीक़ा है। कई साल हो गए अम्मीं और अब्बा को गुज़रे, लेकिन आज भी अब्बा की बातें ज़ेहन में गूंजती रहती है। मैं फ्लैशबैक में चला जाता हूँ।
अक्सर उन प्यारी यादों में ऐसा महसूस होता है जैसे अम्मीं और अब्बा अभी भी बाहर सहन में बैठे हुए रमज़ान में देने वाले "सदक़ा, ज़कात और ख़ैरात का कमाई के एक-एक पाई का हिसाब लगा रहे हैं। अम्मीं ,चांदी, सोना कितना है घर में, अब्बा कारोबार में पूरे साल कितना आय हुई और मुनाफा हुआ उस पर हमें 2.5% ग़रीब तबक़े में तकसीम करना होता है (ग़रीबों में भी मोहताज, बेवा,यतीम) इन लोगों को दिया जाता है। 1400हिजरी से हमारे पैग़म्बर साहब ने हिदायत की है समाज का ग़रीब तबक़ा त्योहार पर, किसी के घर में कमी न हो ग़रीब भी अपने बच्चों के साथ अच्छे से त्योहार मना सके। बस यही वजह है के जो "साहिबे हैसियत" (दान करने की हैसियत) हो ग़रीबों में दें
अब्बा हिसाब लगाते हुए मुझे आवाज़ लगाते "सुनो अहमद" कॉलेज जाते वक़्त पास की किराने की दुकान पर "रहीम" काम करता है। वो यतीम है उसको कहते जाना दुकान से छुट्टी होने पर मुझसे मिलता जाए।
कॉलेज में लेट हो जाने की वजह से उस लड़के रहीम कहना भूल गया, शाम को जब लोटा तो अब्बा दुकान पर इदरीस मियाँ से बातें कर रहें थे मैं बड़ा शर्मिंदा हुआ। अब्बा से नज़रें नहीं मिला पाया। मैं भी वहीं अब्बा और इदरीस मियाँ की बातें सुनने लगा।
वहां एक लेडीज़ आई और इदरीस भाई से कहने लगी "चीटियों को मारने का पॉउडर मिलेगा”, और अपनी ही धुन में कहने लगी “इतना बड़ा आलिशान घर बनवाया है और इन चिटियों ने नाक में दम कर रखा है। मेरे शौहर कहते हैं तुम साफ-सफाई में लापरवाही करती हो। हमारी अम्मीं के ज़माने में त़ो कभी चिटियां नहीं हुई। अब बताएं भाई साहब, क्या मैं सफाई नहीं रखूंगी?”
हमारे अब्बा सुन रहे थे उनसे रहा नहीं गया और बोले "बीबी एक बात बताएं, पहले के ज़माने की माँएं बड़ी समझदार होती थी। पहले जहाँ चिटियों का झुंड देखा नहीं झटसे मुठ्ठी भर आटा डाल देता थी। ये तरीक़ा सदक़े का भी हैं। हमारे प्यारे "नबी सल्लल्लाहु" के पास एक आदमी आया और अर्ज़ किया मुझे रोज़ी की बरकत की दुआ बता दीजिए आपने उससे कहा जा भूखों को खाना खिला और सदक़ा दें"
कुछ दिनों बाद वो आदमी फिर आया कहने लगा "मेरे ख़ुद खाने को नहीं है, मैं कैसे भूखों को खिलाऊंगा?"
आपने कहा "इन चरिंदों, परिंदों को दाना-पानी डाल ये भी अल्लाह की मख़लूक़ात हैं। ये भूखें इन्हें खाना खिला यही सदक़ा है”
अब्बा की सीखें हम सब भाई-बहन ने गांठ बांध रखी हैं और सदक़ा, ज़कात, से बरकत है। अब्बा की याद का सिलसिला टूटा जब फ़ोज़िया आपी ने "अहमद-अहमद” कह कर पुकारा तो मैं फ़्लैशबैक से बाहर आया। मेरी आंखें नम थी। अम्मीं और अब्बा याद आ गई।