सदाचार एक राह
सदाचार एक राह
एक महात्मा बहुत ज्ञानी थे, साधक थे, अंतर्मुखी थे। वे अपनी साधना में लीन रहते थे। चमत्कार में उनकी कोई रुचि नहीं थी। एक बार एक लड़का उनके पास आया। वह महात्मा जी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ और चेला बनने की पुरजोर प्रार्थना की। महात्मा जी ने भी सोचा बुढ़ापा आ रहा है, एक चेला पास में होगा तो वृद्धावस्था में सहारा बनेगा। यह सोचकर उन्होंने उसे चेला बना लिया। चेला बहुत चंचल प्रकृति का था।
ज्ञान -ध्यान में उसका मन नहीं लगता था। दिन भर आने जाने वालों से बातें करने और मस्ती करने में उसका समय व्यतीत होता था। गुरु ने कई बार उसे प्रति बोध देने की चेष्टा की। ज्ञान -ध्यान- सेवा आदि कार्य में योजित करने का प्रयत्न किया, पर सफलता नहीं मिली। दुनिया चमत्कार को नमस्कार करती है, यह सोचकर एक दिन चेला महात्मा जी से बोला -गुरुदेव !मुझे कोई चमत्कार सिखा दें। गुरु ने कहा, वत्स! चमत्कार कोई काम की वस्तु नहीं है। उससे एक बार भले ही व्यक्ति प्रसिद्धि पा ले लेकिन अंततोगत्वा उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। गुरु द्वारा बहुत समझाने पर भी चेला अपनी बात पर अटल रहा। बालहठ के सामने गुरुजी को झुकना पड़ा। उन्होंने अपने झोले में से एक पारदर्शी डंडा निकाला। उन्होंने अपने चेले के हाथ में उसे थमाते हुए कहा यह लो चमत्कार।
इस डन्डे को तू जिस किसी की छाती के सामने करेगा उसके दोष इसमें प्रकट हो जाएंगे। चेला डंडा पाकर बहुत प्रसन्न हुआ। गुरु ने चेले के हाथ में डंडा क्या थमाया मानो बंदर के हाथ में तलवार थमा दी। एक दिन की बात है गुरु जी सो रहे थे। चेले के मन में आया मैं सब के दोष देखता हूँ पर अब तक गुरु जी के दोष देखे ही नहीं। आज अच्छा मौका है इस सोच के साथ ही उसने गुरु जी के सीने के सामने डंडा कर दिया।
गुरुजी के भीतर, क्रोध, मान, माया, लोभ के जो अंश बचे थे, वे उस में प्रकट हो गए। चेले ने मन में निश्चय कर लिया मुझे नहीं चाहिए ऐसे गुरु। मैं तो इन्हें निर्दोष समझता था पर इनमें भी ये सब दोष छिपे हैं। ज्यों ही गुरु जी नींद से जागेंगे, नमस्कार करके इनके शिष्यत्व से छुट्टी ले लूंगा। कुछ देर बाद गुरु जी उठे। आंखें खोलते ही चेला बोला- गुरु जी नमस्कार! मैं जा रहा हूं। गुरु जी बोले -क्यों भाई ?जाने वाली क्या बात हो गई। चेला बोला- गुरु जी आज तक मैं आपको दोषमुक्त समझता रहा था, आप में तो क्रोध है, अभिमान है, ईर्ष्या है, द्वेष है, माया है, लोभ हैं, सब दोष विद्वान हैं। ऐसी स्थिति में मैं आपके पास रह कर क्या करूंगा ? गुरुजी सारी बात समझ गए। कोशिश में अवश्य हूं सारा प्रयत्न उसी के लिए कर रहा हूं। पर जाने से पूर्व एक बार डंडा अपनी और भी घुमा कर देख लो, स्वयं को भी देख लो।
चेले को बात जँच गई। उसने डंडा अपनी ओर किया तो देखा कि भीतर दोषों का अंबार है। शर्म से उसका मुंह नीचा हो गया। गुरु ने शांत भाव से कहा -अब मेरे दोषों से तुम अपने दोषों की तुलना करो। शिष्य ने अपने दोषों की तुलना की। शिष्य ने अपने दोषों की ओर दृष्टि घुमाई तो आंखें फटी सी रह गईं।
कहाँ तो गुरुजी के सरसों के दाने जितने दोष, और कहाँ उसके अपने पर्वत जितने दोष। वह तत्काल गुरु जी के चरणों में गिर पड़ा और अपनी भूल की माफी मांगते हुए बोला- गुरु जी ! आज से मैं दूसरे के दोष देखने की भूल नहीं करुँगा, अपने ही दोष देखने का प्रयास करूंगा, व्यक्तित्व विकास के लिए आत्म -दर्शन व स्थिति को देखना अत्यंत आवश्यक है।