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अनु उर्मिल 'अनुवाद'

Inspirational

4.6  

अनु उर्मिल 'अनुवाद'

Inspirational

सच्ची मुक्ति

सच्ची मुक्ति

6 mins
470


"जानती है मैंने तेरा नाम उस्रा क्यों रखा?... क्योकि उस्रा का मतलब होता है "नई भोर".... जब मैं अपना सबकुछ खोकर अपनी ज़िन्दगी के अंधेरों में भटक रहा था न, तब तू एक नई सुबह की तरह आई। तेरी नन्हीं झिलमिल आँखो ने मेरे मन को उम्मीद की रोशनी से भर दिया था। तेरे छोटे-छोटे गर्म हाथों ने मेरे ठंडे पड़ चुके हौसलों में जान फूंक दी थी। मैं तो मर ही चुका था मगर तू मेरे लिए जीने की वजह बन के आई थी। अपने नन्हे हाथों से उम्मीद का द्वार खोल तू मुझे ज़िन्दगी की ओर लाई, और अब जब मैं इस दुनिया से जा रहा हूँ तो मैं चाहता हूँ कि मेरे लिए उस दुनिया का द्वार तू अपने इन्हीं हाथों से खोले, मेरी चिता को मुखाग्नि देकर..!!" 

"मगर बाबा लोग कहते हैं कि इंसान को मोक्ष तभी मिलता होता है, जब उसे बेटे के द्वारा मुखाग्नि दी जाती है । क्या आप इस बात को नहीं मानते?"...उस्रा ने बाबा के चेहरे को अचरज़ भरी निगाहों से देखते पूछा।

" इंसान की सच्ची मुक्ति तो प्रेम में निहित है बेटा! तेरे प्यार ने मेरे जीवन को खुशियों से भर दिया था। जब तू छोटी थी तो तेरी निश्छल मुस्कान मेरे हर दुःख को हर लेती थी। तेरी माँ के जाने के बाद तूने एक माँ की तरह मेरा ख्याल रखा और आज जब मैं मौत के दरवाजे पर खड़ा हूँ, तब भी तू ही है जो मेरे साथ खड़ी है। अगर तेरे हाथों से मुझे मोक्ष नहीं मिल सकता, तो दुनिया की कोई चीज़ मुझें मोक्ष नहीं दे सकती...!" दिवाकर बाबू के जवाब ने उस्रा को खामोश कर दिया।

"हम लोग इस अधर्म के भागीदार नहीं बनेंगे। ऐसा कैसे हो सकता है भला? भाई रीत- रिवाज़ भी कोई चीज़ है? वर्षों से वेद-पुराणों में लिखे विधान को हम अपनी आँखों के सामने कैसे ध्वस्त होने दे सकते हैं?" लोगों की बातों से उस्रा अपने ख्यालों से बाहर आई।

             

कैंसर से लंबे समय तक संघर्ष करने के बाद आखिरकार दिवाकर बाबू अपनी ज़िंदगी की ज़ंग हार गए। आज उनका अंतिम संस्कार है। सभी दोस्त, रिश्तेदार औऱ उनके जान-पहचान के लोग उनके अंतिम दर्शन के लिए मौजूद हैं। मगर दिवाकर बाबू की अंतिम इच्छा वहाँ मौजूद लोगों के बीच बहस का मुद्दा बनी हुई है। उनके बड़े भाई रमाकांत और कुछ रिश्तेदार इस बात के लिए राजी नहीं हैं कि बेटे के होते हुए भी दिवाकर बाबू का अंतिम संस्कार उनकी बेटी उस्रा के हाथों हो।

"बेटे के मौजूद होने के बाद भी लड़की के हाथों अंतिम संस्कार कैसे हो सकता है? शास्त्रों में भी यही लिखा है कि जब तक बेटा मुखाग्नि नहीं देता, तब तक आत्मा को मोक्ष प्राप्त नहीं होता....!" रमाकांत बाबू ने कहा।

"क्या आप लोग इस बात को साबित कर सकते हैं?" अचानक उस्रा ने कहा। सब लोग आँखे तरेर कर उसे देखने लगे।

"शास्त्रों में लिखी बाते तथ्य है मैं मानती हूँ। लेक़िन उनका कोई पुख़्ता प्रमाण है क्या? क्या कोई ये साबित कर सकता है कि बेटे द्वारा मुखाग्नि देने या पिंडदान करने से किसी इंसान को मुक्ति मिल ही जाती है? अगर कोई साबित कर दे तो मैं अभी के अभी ये ज़िद छोड़ दूँगी। मैं पूछती हूँ कि जिन लोगों के बेटे नहीं होते क्या उन लोगों को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती? कोई भी रीति-रिवाज़ इंसान की ख़ुशी से ज्यादा महत्वपूर्ण कैसे हो सकता है...!!" उस्रा ने कहना जारी रखा।

"देखो लड़की! शास्त्रों में लिखी बातों पर सवाल उठाना सही नहीं है। रीत-रिवाज़ इंसानो के भले के लिए ही बनाये गए हैं...!!" एक बुजुर्ग रिश्तेदार ने कहा।

"रीति- रिवाज़ इंसान की सहूलियत के लिए बनाए गए हैं, न कि इंसान रीति-रिवाजों के लिए । आप लोग मेरे साथ आना चाहें तो ठीक वरना मैं अकेली ही काफी हूँ अपने बाबा के आख़िरी सफर की सहभागी बनने के लिए...!!"

"अरे आदर्श! तू क्यों चुप है बेटा? पिता को मुखाग्नि देना तेरा अधिकार है। तू इस तरह ख़ामोशी से ये सब होते कैसे देख सकता है?" रमाकांत बाबू ने दिवाकर बाबू के बेटे आदर्श से कहा जो अब तक खामोश था।

"माँ-बाप पर तो सभी बच्चों का बराबर हक होता है न ताऊ जी। बाबा जितने मेरे थे, उतने दीदी के भी थे फिर उनके अंतिम संस्कार का हक सिर्फ़ मेरा कैसे हुआ? मैं बाबा के फैसले का सम्मान करता हूँ और मुझें गर्व है कि मेरे बाबा ने जाते-जाते भी समाज़ की सड़ी-गली मानसिकता बदलने की कोशिश की है। बाबा का अंतिम संस्कार तो दीदी के हाथों ही होगा...!!"आदर्श ने कहा।

"तुम दोनों का दिमाग ख़राब हो गया है क्या? बरसों से चली आ रही परंपरा को यूँही बदलने चले हो। अरे मरता हुआ इंसान अपने होश में नहीं होता। हज़ारों बातें चल रही होती हैं उसके मन में। उसे सही-ग़लत का भान नहीं रहता। दिवाकर भी ऐसी ही हालत में था। हम उसकी बातों को महत्व कैसे दे सकते हैं?" रमाकांत बाबू ने कहा।

"सही कह रहे हैं रमाकांत बाबू! मरने वाला चला गया, मगर हम लोग तो ज़िंदा है, हम कैसे अपने संस्कार भूल सकते हैं। आज ये रिवाज़ तोड़ने की कोशिश की जा रही है, कल दूसरा टूटेगा और परसों तीसरा..हम लोग क्या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे..!!" एक बुजुर्ग रिश्तेदार ने गुस्से में कहा।

"बिल्कुल ठीक कहा शर्मा जी, अरे शास्त्रों में तो लड़कियों को शमशान घाट में भी जाने की इजाज़त नहीं है, और ये लोग मुखाग्नि देने की बात कर रहे हैं। सुनो लड़कीं! अगर तुमनें अपनी ज़िद नहीं छोड़ी तो हममें से कोई इस अंतिम संस्कार का हिस्सा नहीं बनेगा..!!" पड़ोस के एक व्यक्ति ने कहा। वहाँ मौजूद सभी लोगों ने सहमति में सुर मिलाया।

"ठीक है जैसी आप लोगों की मर्ज़ी। मेरे बाबा ने अकेले हम लोगों को पाल-पोष कर बड़ा किया। हर हाल में कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे, बिना किसी से उम्मीद किये। तो क्या हम लोग भी बिना किसी से उम्मीद किये अकेले उनकी अर्थी को काँधा नहीं दे सकते..!!" उस्रा ने कहा।

"किसने कहा तुम लोग अकेले हो, हम लोग हैं न..!!" पीछे से आई एक आवाज़ ने सबका ध्यान खींचा। ये आवाज़ रेखा जी की थी।

"ये लोग क्या समझते हैं कि ये लोग साथ नहीं आएंगे तो क्या दिवाकर बाबू का अंतिम संस्कार नहीं होगा।। हम लोग देंगे उनकी अर्थी को काँधा। उन्होंने समाज़ में बदलाव की नींव डालने की कोशिश की है, आने वाली पीढ़ी को नई लीक दिखाई है। उनकी इस पहल को हम लोग सार्थक करेंगे । हम सब औरतें दिवाकर बाबू की आखिरी यात्रा में साथ जाएंगे..!!" रेखा जी ने कहा।

रेखा जी की बातों से वहाँ मौजूद सभी लोग अवाक थे। देखते ही देखते मोहल्ले की सारी औरतें वहाँ जमा हो गईं। इस सकारात्मक बदलाव को देखकर उस्रा और आदर्श बहुत खुश थे। उनकी आँखे भर आईं। उन्हें अपने बाबा के जाने का दुःख तो था, पर ख़ुशी इस बात की थी कि जाते- जाते भी उनके बाबा समाज के लिए एक मिसाल बन गए थे। आज पहली बार ऐसा हुआ था कि किसी शवयात्रा में महिलाएँ शामिल हुईं थी और एक लड़की द्वारा एक शव को मुखाग्नि दी गयी थी।



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