Mukta Sahay

Drama

4.5  

Mukta Sahay

Drama

साथी ऐसे भी और वैसे भी-3

साथी ऐसे भी और वैसे भी-3

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169


मेरी सुबह और शाम अब कुछ ज़्यादा ही ख़ुशनुमा सी होती जा रही हैं। रोहन से पिछली मुलाक़ात ने मुझे व्यथित कर गया था जबकि इस बार की मुलाक़ात ऐसी ताजी बयार ले कर आई कि सच कहूँ तो मेरे पाँव ज़मीन पर नही हैं। वैसे तो मेरा काफ़ी नज़दीकी रिश्ता रहा था अजय के साथ भी लेकिन रोहन के साथ से जैसा अनुभव हुआ ऐसा कभी पहले नही हुआ था। शायद मुझे पहली पार प्यार हुआ था। हर समय रोहन का ही ध्यान रहता, उसकी हर बात कान में गूंजती रहती, उसके स्पर्श को मैं अनुभव करती रहती। काम में भी बैठी, मैं कब ख़्यालों में खो जाती पता ही नही चलता, फिर कभी फ़ोन की घंटी तो फिर कभी किसी दोस्त की चिकोटी मुझे मेरे ख़्यालों से बाहर लाती। 

आज शनिवार था सो घर पर ही रहना था । मैं अपनी सुहानी सुबह के मज़े ले रही थी अपनी मधुर यादों के साथ। मेरी नज़र एक प्यारी सी, छोटी पक्षी पर गयी जो धीरे-धीरे मेरे क़रीब आती जा रही थी। मुझे उसे निहारने में और उसके साथ खेलने में बहुत अच्छा लग रहा था। तभी घंटी बजी, मैंने सोंचा कौन होगा अभी? घड़ी पर नज़र गई, साढ़े सात बजे थे। इतनी सुबह तो कोई भी नही आता, मैंने सोंचा। डोर बेल की स्क्रीन पर देखा तो अजय था। मेरा मन अब कड़वा हो गया, ये क़्यों आया है। अब क्या बचा है जो मेरे पास आया है।      है ।

मैंने खुद पर नज़र घुमाई, बालों को समेट, जूड़ा बनाया और दरवाज़ा खोला। एक दूसरे को देखा हमने। अब हम दोनो में से किसी को समझ नही आ रहा था की क्या बोले क्या ना बोले, कैसे बात की शुरुआत करें। पीछे दोनो के बीच इतना कुछ हो गया था कि अब एक दूसरे का सामना ही कठिन था तो फिर शुरुआत बहुत ज़्यादा मुश्किल होनी ही थी। आया तो अजय था, किसी कारण नही पता लेकिन मैंने ही पूछ लिया, हाँ बताओ कैसे आना हुआ। अजय ने कहा कुछ ज़रूरी चीजें रह गईं थी, कई दिनों से सोंचा रहा था ले आऊँ पर इधर आना नही हो पा रहा था।

मैंने पूछा, कैसा समान जो आज चार महीने बाद इतना ज़रूरी हो गया। अभी तक मैंने उसे घर में आने को नही कहा था। हमारे बीच दरवाज़े पर खड़े खड़े बात हो रही थी। उसने अपनी जेब से चाभी निकाल कर मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा, ये चाभी रख लो, इस फ़्लैट की, मेरे ही पास रह गई थी। तभी मुझे ध्यान आया कि घर की एक चाभी तो इसके पास थी, ये तो कभी भी आ कर अपना समान ले जा सकता था वैसे ही जैसे चोरों की तरह क्या शादी के लिए गया था। ये सुधार कैसे आया इस में। मैंने चाभी लेते हुए उसे अंदर आने को कहा। इस घर में कभी वह बड़े अधिकार से अंदर आता था और घर की हर चीज़ पर उसका बराबर का हक़ हुआ करता था। समय समय की बात है ये। 

यूँ तो अजय ने अपनी सारी ख़ास चीजें साथ ले ली थी शादी के लिए जाने के पहले। एक एक घड़ी, कैमरा, हार्ड-डिस्क, फ़ाइलें और भी बहूत कुछ। शादी के लिए जाने से पहले उसने एक अलग फ़्लैट ले लिए था जो मुझे अफिस से पता चला था और वहाँ ज़रूरत के सारे सामान भी इकट्ठा करके वह शादी को गया था। अब जो बची थीं उनमें उसके टॉलेटरीज़, पूराने कपड़े, कुछ किताबें, पेन-काग़ज़ इत्यादि ही थे जो उसके अपने काम के थे। कुछ  मैंने फेंक दिए थे और बचे को मैंने एक पैकेट में बांध कर रख दिया था कि किसी ज़रूरतमंद को दे दूँगी। इस घर में जो भी चीजें हैं वह हमदोनो ने मिलकर जमा करीं थीं सो उसे वह नही ले जा सकता था और ना ही उसे ले जाना चाहिए।

मैंने कहा ले लो जो भी लेना है। तब अजय ने कहा, ले लेता हूँ। वैसे मैं तुमसे मिलना भी चाहता था जब जा रहा था तब हमारे बीच बात नही हो पाई थी। मैंने कहा, बात तो हुई थी बहुत सी पर जो बात होनी चाहिए थी वह नही हुई थी। शायद उस पर बात करने की मंशा ही नही थी। अजय थोडा असहज हो गया मेरी इस बात को सुनकर। वह आगे बोला, जब मैं अचानक घर गया था तब मुझे नही पता था की किसलिए मुझे इतनी हड़बड़ी में बुलाया जा रहा है। मेरे मन में घर में कुछ बुरा होने की आशंका थी सो तुमसे भी कुछ ना बता सका। जब घर पहुँचा तब पता लगा मेरे सगाई की पूरी तैयारी थी सौग़ात से लेकर मेहमान तक सभी आए हुए थे, बस मेरे पहुँचते ही रस्म का होना बाक़ी था। ऐसे हालात में कुछ भी नही कर सका। जब वापस आया तो तुम्हें बताने कि कई बार कोशिश की लेकिन हिम्मत ही नही हुई। ना ही इतनी हिम्मत हुई कि शादी के लिए मना कर सकूँ। मैं भी तुम्हारे साथ ही रहना चाहता था लेकिन घर वालों को समझना, ऐसे रिश्ते के बारे में, बहुत ही कठिन था। 

जब शादी की तारीख़ पक्की हो गई तो मैंने अलग फ़्लैट ले लिया। तब भी मैंने चाहा की तुम्हें बात दूँ लेकिन सच कहूँ तो डर था कि कहीं तुम घर जा कर सब बता ना दो। बहुत बदनामी हो जाती मेरे परिवार की इस कारण मैं तुम्हें बिना कुछ बताए ही चला गया। सोंचा था लौट का बता दूँगा, पर तुम्हें पहले ही पता चल गया अफिस से। 

अजय तुम बदनामी की बात कर रहे हो, मुझे बदनाम करने और मेरी शादी की बात तोड़ने में तुमने कौन सी कसर छोड़ी थी। उस दिन जब तुम अपनी पत्नी के साथ रेस्टरेंट में आए थे तब तुमने रोहन को मेरे बारे में क्या कहा था। रही बात तुम्हारे घर जा कर तुम्हारी शादी तोड़ने की तो इतने सालों की दोस्ती में तुमने मुझे इतना ही जाना था। हमारे बीच जो भी रिश्ता था उसकी शुरुआत हम दोनो की अच्छी दोस्ती से ही हुई थी, इतना भी विश्वास नही था उस दोस्ती पर। अजय नज़रें नीचे झुकाय मेरी बातें सुन जा रहा था। हमारे रिश्ते में तो कोई वादा कोई ज़िम्मेदारी नही थी बस था तो पारदर्शिता और विश्वास एक दूसरे पर। नही तो समाज द्वारा बनाए बंधनों के बिना इतने समय क्या हम साथ रह सकते थे। पर तुमने खुले विचारों वाले क़ायदे तो अपना लिए पर अपने विचारों के दायरे को खोल ही नही पाए।

जब परिवार और समाज का इतना भय था तो इतने दिन मेरे साथ कैसे रहे थे तुम, ये सोंच कर की तुम तो पुरूष हो, तुम्हार तो हक़ है कुछ भी करो समाज तो सवाल महिला से है करेगा। खुद तो ज़िंदगी में आगे बढ़ गए और जब मैंने आगे कदम बढ़ाया तो खाई खोदने चले आए। अब जाओ तुम्हारा जो सामान यहाँ रह गया है ले लो। अजय ने कहा मेरे सर्टिफ़िकेट वाला फ़ाइल सेफ़ में रखा है। उसे मैं साथ ले जाना भूल गया था। अभी उसकी ज़रूरत आ गई है, मैं नई नौकरी ज्वाइन करने वाला हूँ। मैंने सेफ़ ले ला कर उसे दे दी और मेरी भाव-भंगिमाओं ने उसे दर्शा दिए कि उसका एक पल भी यहाँ रहना मुझे बर्दाश्त नही है। 

अजय के जाने के बाद मैंने कामना करी कि अपने वैवाहिक जीवन में ये अपनी जीवनसाथी के साथ पारदर्शी और विश्वासपात्र रहे।


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