सात फेरों वाली
सात फेरों वाली
"हमेशा जवाब देना अच्छा नहीँ होता"कभी कभी चुप रह जाया करो।" आरव ने सोनिका को समझाया तो सोनिका ने खुद को संयत कर लिया।वैसे भी अबके वो खुद के लिए नहीँ बल्कि अपनी जेठानी सर्वदा के लिए मम्मीजी की गलत बात का विरोध कर रही थी।ये पहली बार नहीं था ज़ब उसकी सास घर की औरतों को रात का बासी खाना खाने कह रही थी।चुँकि सोनिका प्रेग्नेंट थी इसलिए उसे ताज़ा और पौष्टीक खाने की हिदायत देते हुए खुद अपने और जेठानी वसुधा की थाली में बचा हुआ खाना परोस रही थी।आज वसुधा ने सोनिका के उकसाने पर बासी रोटी खाने से मना किया तो सास गुस्से से आग बगुला हो गई थी और ताने देते हुए कुछ वही पुरानी बात दुहरा रही थी।"मर्दों को घर से बाहर जाकर मेहनत का काम करना पड़ता है, उन्हें ताज़ा खाना खिलाओ।हम औरतें तो घर में रहती हैं।घर के कामों में भला उतनी थकावट कहाँ होती है।तो दो एक बासी रोटी खा लोगी तो क्या फर्क पड़ जायेगा।" पढ़ी लिखी सोनिका ज़ब लगभग साल भर पहले इस घर में ब्याहकर आई थी तो उसे सबसे ज़्यादा ताज्जुब इसी बात से हुआ था कि अक्सर घर की महिलाएँ पुरुषों के बाद खाना खाती थीं और कभी कभी तो पुरुषों को गर्म फुल्के खिलाने में वो और जेठानी किसी एक को बाद में खाना पड़ता था।सोनिका को बड़ा अजीब लगता, इस ज़माने में ऐसी सोच कौन रखता है? ऊपर से जेठानीजी भी तो पढ़ी लिखी आधुनिक ख्यालों की महिला थी वो कैसे चुपचाप सास की सब गलत बात भी मान लेती थी।सोनिका ने ज़ब शुरू में इस बात का विरोध किया तो जेठानी वसुधा ने उसे बाद में मना किया कि,"इस घर में ऐसा ही होता है।तो मैं अक्सर रात की बची रोटियाँ सुबह उठकर जैसे ही कूड़ावाला आनेवाला होता है मैं तुरंत रोटियां और बाकी बचा हुआ खाना लपेटकर कूड़ेदान में डाल देती हूँ।किसीको पता ही नहीँ चलता।और अगर कभी माँ जान रही होतीं हैं कि रात में खाने में क्या क्या बचा है।तब उसे ना फेंक पाते ना किसी को दे पाते हैं।बस उसे हमें ही खाना होता है।
""पर इस तरह कूड़े में फेंकना तो खाने की बर्बादी है और दिन चढ़े रात का खाना खाना हेल्थ की भी बर्बादी है।आप मम्मीजी से कुछ कहती क्यूँ नहीँ?"सोनिका ने कहा तो वसुधा के पास उसका कोई जवाब नहीँ था।बस इतना ही कहा कि," कुछ बातों का जवाब ना देकर चुप रहकर नज़रअंदाज़ करना ज़्यादा अच्छा रहता है।"
बाद में वसुधा और सोनिका ने इसका ये हल निकाला कि वो बहुत ही नाप तौलकर खाना बनाने लगीं थीं।ताकि सुबह उन्हें ना खाना पड़े।पर कल ज़ब लखनऊ वाले फूफाजी आए तो सासुमाँ के फरमान के मुताबिक छोले, पूरी और बहुत सारे पकवान बने थे।वो तो संजोग था कि फूफाजी बाहर से नॉनवेज पैक कराकर ले आए थे और फिर बहुत सारा खाना बच गया था।अगले दिन रविवार होने की वजह से घर के तीनों पुरुष और जेठानी के बच्चे भी घर में ही थे और सासुजी ने कहा कि, "घर के लोगों के लिए खाने में गरम गरम चावल,दाल, सब्जी, रायता सब बना लो।और हम दोनों आज से कल तक बचा हुआ फ्रिज का खाना ख़त्म करेंगी।"इतना सुनते ही सोनिका को रहा नहीँ गया।क्यूँकि अभी दस दिन पहले ही उसकी रिपोर्ट आई थी, वो माँ बननेवाली थी।मतलब ज़ब तक सोनिका अकेली थी तब तक उसे बासी खाना पड़ता था।अब चुँकि उसके अंदर एक जीव पल रहा था।माँजी के शब्दों में उनका पोता पल रहा था तो सासुमा ने सोनिका को ताज़ा खाना खाने की हिदायत देनी शुरू कर दी थी।अलबत्ता वो खुद भी रात का बचा खाना ही खाती थी।इसलिए आज ज़ब नहीँ रहा गया तो सोनिका ने इसका विरोध करते हुए कहा कि,"मम्मीजी, स्त्री हो या पुरुष बासी खाना सबके लिए नुकसानदेह होता है।अब तक मुझे भी वही खाना पड़ता था।अब मैं माँ बननेवाली हूँ तो अब मुझे पौष्टीक और ताज़ा खाना खाने की सलाह और इज़ाज़त दे रही हैँ।क्या मेरी खुद की कोई वैल्यू नहीँ है।?मम्मीजी कुछ कहती तबतक आरव बोल उठा।"तुम्हारे पास तो हर बात का रेडीमेड जवाब तैयार रहता है।अब बस भी करो अब सोनिका।मम्मी को और कितना सुनाओगी।कभी कभी जवाब ना देना भी अच्छा रहता है।"
"नहीँ नहीँ आरव! सोनिका को मत रोक।उसे बोलने दे जो उसके मन में है।सच कहूँ तो आज इसने मेरी आँखें खोल दी हैं।सही तो पूछ रही है।ज़ब यह गर्भवती नहीं थी तब तो मैंने इसे बासी, बचा खुचा खाने की सलाह दी।अब ज़ब कि एक नन्ही जान पल रही है इसके अंदर तो मैं अच्छा खाने को कह रही हूँ".अब चौंकने की बारी सोनिका और वसुधा की थी।कहीं ममम्मीजी नाराज़गी में तो ये नहीँ कह रहीं हैं।मम्मीजी ने सोनिका के सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा,"बेटा, आज तुमने मेरी आँख खोल दी।मैं भी क्या करती।अपने घर में भी यही देखती आई थी।फिर ब्याहकर ससुराल आई तो यहाँ भी घर की औरतें सबसे बाद में बचा खुचा खाना ही खाती थीं।वसुधा ने भी कभी इस बात का विरोध नहीँ किया।बहुत अच्छा किया सोनिका ने जो यह सवाल उठाकर इसने मुझे समझा दिया कि हम स्त्रियों को भी पौष्टीक खाने की बहुत ज़रूरत होती है।"बोलते बोलते मम्मीजी का गला थोड़ा रुंध गया तो आरव ने उनका कंधा पकड़ते हुए कहा,"माँ, तुम शायद भूल गई हो।तुम सास हो इन बहुओं के सामने दबँग बनकर रहो।वरना ये तुम्हारे सर पर चढ़ जाएंगी।"आरव ने जिस नाटकीय अंदाज़ में ये बात कही उससे सबको हँसी आ गई।अगले दिन से जो भी खाना बचता उसे मम्मीजी खुद दूधवाले को दे आतीं कि वह अपनी गाय को खिला दे।इस तरह थोड़ी समझदारी और थोड़े सामंजस्य से घर सुचारु रूप से चल पड़ा !