Richa Pathak Pant

Inspirational

4.7  

Richa Pathak Pant

Inspirational

साँझ-बाती

साँझ-बाती

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यशोधरा जी छत पर से कपड़े तथा सुखायी गयी कुछ बड़ियाँ हाथों में समेटकर धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरती हुईं आँगन से होते हुए बैठक के कमरे में आ पहुँचीं। बैठक की मेज पर रखे समाचार-पत्र को लेकर यथास्थान संभाला, कपड़े शयनकक्ष के बिस्तर पर रखे फिर सूती कपड़े में बंधी बड़ियों की गठरी लेकर रसोईघर की तरफ चल दीं। 


आज उनके मन में हर्ष तथा विषाद के कैसे ही ज्वार- भाटे एक साथ ही डूबते - उफनते चले जा रहे थे। अब जाकर उनकी वर्षों की तपस्या सफल हुई थी। उनका मन बीस वर्ष पूर्व के उन कठिन दिनों की याद में जाकर अटक गया जब अकस्मात वैधव्य के तुषारापात से जीवन-यापन का यक्ष-प्रश्न उनके तथा उनके तीन और पाँच वर्षीय पुत्रों के समक्ष मुँह बाये खड़ा था। कुटुंब-परिवार ने सहायता की तो परन्तु एक सीमा के अंदर ही, अलावा इसके वह स्वयं भी तो अपने तथा अपनी संतानों के साथ किसी पर बोझ बनना नहीं चाहती थीं। 


फिर किशोरावस्था में सीखा गया रूई तथा कपड़ों से बच्चों के खिलौने बनाने की निपुणता का गुण आड़े वक्त में उनके बड़ा काम आया। पहले तो आस-पड़ोस तथा रिश्तेदारों को आपूर्ति करनी आरंभ की, फिर इन्हीं लोगों के परिचय के बूते उनका काम शनैः शनैः आगे बढ़ता रहा। 


कुछ ही वर्षों के अन्तराल में यशोधरा जी प्रगति की इतनी सीढ़ियाँ चढ़ चुकी थीं कि वे स्वयं भी आश्चर्यचकित थीं कि कहाँ तो वे अपनी ही आजीविका के विषय में आश्वस्त न थीं और अब कहाँ अनेक महिलाओं को रोजगारपरक प्रशिक्षण दे और अपने रोजगार में सम्मिलित कर उनका संबल बन चुकी थीं। इसे वह ईशकृपा ही मानती थीं जिसने उन्हें न केवल संकट से उबारा वरन् समाज में प्रतिष्ठित भी किया। 


ऐसा नहीं था कि जो कठिन पथ उन्होंने अपने लिए चुन लिया था उस पर उन्हें बाधाओं के पहाड़ों का सामना न करना पड़ा हो या हताश होकर उनकी हिम्मत ही न टूटने लगी हो। परन्तु आत्मबल एवं आत्मीयजनों का सहयोग ही सारी दुश्वारियों को पार करने का संबल बना रहा। वह जानती थीं कि सन्ध्या के दीपक की लौ की तरह ही उनको भी इस भीषण रात्रि के व्यतीत होने तक आलोकित रहना ही होगा। 


अब उनका ज्येष्ठ पुत्र सरकारी विभाग में उच्चाधिकारी था तथा कनिष्ठ उच्च शिक्षा प्राप्त कर कुछ समय नौकरी करने के पश्चात उनके इस फलते-फूलते व्यवसाय को अन्तरराष्ट्रीय स्तर तक पहुँचाने का स्वप्न देख रहा था। 


यशोधरा जी दोनों पुत्रों हेतु योग्य वधू-संधान में पूर्ण मनोयोग से जुटी हुई धीं। ज्येष्ठ पुत्र का संबंध तो एक योग्य एवं गुणवती कन्या से ठहर भी गया था। इसी संदर्भ में आगामी सप्ताह को उन्हें कन्या-पक्ष के घर कुछ परम्परा निर्वाह हेतु भी जाना था। 


प्रातः तुलसी के चौरे में जल अर्पण कर पूजन कर पिछली सन्ध्या की साँझ-बाती को देखते हुए यशोधरा जी सोच रही थीं कि अंततः उनकी विकट रात्रि समाप्त हुई। अब उनके दोनों पुत्र - दिवाकर तथा प्रभाकर गगनांचल में अपने नाम के अनुरूप ही पूरी आभा के साथ चमक रहे थे। 



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