खजाना
खजाना
जानकी बुआ लौटी ही थीं शहर से और आते ही बैठक के दीवान पर पसर गईं। लम्बे सफ़र की थकी तो थीं पर हफ्ते भर बाद घर लौटीं बुआ ऐसा अनुभव कर रही थीं जैसे बरसों बाद अपने आशियाने पर वापस आयी हों। उनकी गुणवती पुत्रवधु रमा, जिसे उन्होंने अपने सहज, सजग, स्वाभाविक मार्गदर्शन एवं प्रशिक्षण द्वारा दक्ष, सुघड़ गृहिणी में समुन्नत कर दिया था, एक गर्मागर्म चाय का प्याला और कुछ स्वल्पाहार ले उपस्थित हुई। जानकी बुआ ने एक स्नेहसिक्त मधुर दृष्टि अपनी पुत्रवधु पर डाली और कहा - "अरी, मैं कोई मेहमान हूँ क्या?"
पुत्रवधु स्मित हास्य के साथ बोल उठी - "आप थकी होंगी, माँ।"
चाय खत्म कर जानकी बुआ ने पूरे हफ्ते का हालचाल पूछ डाला हालाँकि वह फोन पर नियमित खबर लेती रही थीं। रमा ने मामाजी, अर्थात् जानकी बुआ के बड़े भाई साहब, के स्वास्थ्य संबंधी जिज्ञासा पूर्ति के पश्चात दोपहर के खाने के विषय में पूछा।
बुआ ने कहा - "जिसमें सुविधा हो, वही बना लो बिटिया।" "शाम को मैं भी तुम्हारी मदद कर दूँगी।"
फिर उन्होंने रमा का हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा लिया।रमा ने किंचित चिंतित से स्वर में पूछा - "क्या बात है माँ? आप किसी बात से परेशान हैं क्या? आपकी तबीयत तो ठीक है न?"
जानकी बुआ कुछ न कहकर सिर्फ़ रमा के सिर पर हाथ फेरती रहीं। फिर उन्होंने रमा को अपने पाश में बाँध लिया और उसपर ढेरों आशीषों की अनवरत वर्षा करती रहीं। रमा अपनी मातृस्वरूपा सासूमाँ के स्नेह से अनभिज्ञ तो न थी परन्तु आज उनकी अतिशय भावुकता का कारण समझने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी। तभी बुआ ने कहा - "कुछ नहीं बिटिया, कभी-कभी मन भावनाओं से भर उठता है तो प्याला छलक ही जाता है। तू जाकर रसोई संभाल ले। शाम को बात करेंगे।"
"ठीक है माँ" कहती हुई रमा बर्तन समेटकर रसोई की तरफ चल दी।
जानकी बुआ अकेली होते ही कुछ ही वर्षों पहले के अतीत में खो गईं, जिन दिनों वे अपने ज्येष्ठ पुत्र नारायण के लिए कन्या संधान में व्यस्त थीं। तभी उनके ज्येष्ठ भ्राता बद्रीदत्त जी ने एक अत्यंत रूपवती कन्या मनस्विनी का संबंध उन्हें सुझाया था, यह कहते हुए कि मनस्विनी रूपवती होने के साथ ही साथ अति समृद्ध परिवार की एकमात्र पुत्री है। जानकी बुआ स्वभावतः गुणों की खोज करने वाले जौहरी की तरह थीं और उन्हें मनस्विनी का धनाढ्य होना कोई अवगुण तो नहीं पर गुण भी नहीं लगा था। फिर भी बिना किसी पूर्वाग्रह के एक बार कन्या पक्ष से मिल लेने में उन्हें कोई आपत्ति न थी। यद्यपि मिल लेने पर भी मनस्विनी उन्हें बस ठीक-ठाक सी और आत्मकेन्द्रित ही लगी थी।
बद्रीदत्त जी हालांकि मनस्विनी एवं विशेषतः उसके परिवार पर इस तरह रीझे हुए थे कि उन्होंने तो स्पष्ट ही कह रखा था कि यह गुणी कन्या तो परिवार में आनी ही चाहिये। यदि किसी कारणवश नारायण का संबंध यहाँ स्थापित नहीं होता तो उन्हें अपने कनिष्ठ पुत्र संजीव के लिए मनस्विनी का हाथ माँगने में भी कोई आपत्ति न थी। वह तो नारायण के संजीव से बड़े होने के कारण वह चाहते थे कि नारायण ही का संबंध पहले ठहर जाये। फिर जानकी जी के पति का असामयिक निधन हो जाने से वे उनके तीनों बच्चों नारायण, नरेश और नंदिनी के प्रति अपना दायित्वबोध भी समझते थे।
लेकिन वह कहते हैं न कि जोड़ियाँ तो स्वर्ग से ही बनकर आती हैं। तो अन्ततोगत्वा नारायण का विवाह रमा से तथा संजीव का मनस्विनी से कुछ ही महीनों के अन्तर से सम्पन्न हुआ। तथा सभी अपने-अपने परिवारों में रम गये। दोनों लड़कों के विवाहोपरान्त आज प्रथम अवसर था जब बुआ अपने भ्राता बद्रीदत्त जी के घर आयी थीं, उनके गिरते स्वास्थ्य का जायजा लेने। घर में बीमार श्वसुर के होते हुए भी गृहवधू की उपस्थिति प्रायः नगण्य ही रहती थी। न तो ब्यूटी पार्लर के अपाॅइंटमेन्ट रद्द किये जाते और न ही सहेलियों संग मिल घूमने-फिरने और पार्टी इत्यादि का कार्यक्रम ही टाला जाता।
इन सब बातों से वैसे तो जानकी बुआ को कोई आपत्ति न थी वरन् वे स्वयं ही अपने पुत्र-पुत्रवधू को प्रोत्साहित किया करतीं सैर-सपाटे के लिये, यह कहकर कि ये दिन फिर नहीं आने वाले। परन्तु हाँ अपने कर्तव्यों से विमुख होकर नहीं। उनके अनुसार अपनी प्राथमिकताएँ तय करने लायक परिपक्वता सभी में होनी ही चाहिए। बहरहाल, जानकी बुआ जितना कर सकती थीं, भाभी की मदद, घर तथा बीमार अग्रज को संभालने में की और आखिर उनके लौट चलने का दिन भी आ पहुँचा। एक ही शहर रहते हुए भी अग्रज के दोनों पुत्र राजीव तथा संजीव सिर्फ़ हालचाल पूछने की औपचारिकता ही निभाते रहे।
रमा पास ही के विद्यालय में शिक्षिका होने के साथ ही साथ प्रायः सभी सामाजिक एवं पारिवारिक उत्सवों में भी बढ़-चढ़ कर भाग लेती रहती थी। जानकी जी भी गृहस्थी में यथासम्भव सहयोग किया करतीं। आज जानकी बुआ अपने पुत्र-पुत्रवधू पर गर्व के साथ ही साथ स्वयं भी दर्प से भर उठीं। इस छोटे से कस्बे के एक साधारण से मकान के अन्दर उनके पुत्र-पुत्रवधू किसी राजा-रानी सरीखे ही थे और वे स्वयं भी तो किसी राजमाता से कम न थीं।
जिस 'खज़ाने' की वे मालकिन थीं उस पर उन्हें गर्व था और कल को जब वे यह दौलत छोड़कर जाएँगी भी तो कोई इसमें सेंध न लगा सकेगा, वे आश्वस्त थीं।
