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Richa Pathak Pant

Drama

5.0  

Richa Pathak Pant

Drama

उम्मीद

उम्मीद

15 mins
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" तुम कब तक यूँ अकेली रहोगी ?" लोग उससे जब तब यह सवाल कर लेते हैं और वह मुस्कुरा कर कह देती है," आप सबके साथ मैं अकेली कैसे हो सकती हूं।"

उसकी शांत आंखों के पीछे हलचल होनी बन्द हो चुकी है। बहुत बोलने वाली वह लड़की अब सबके बीच चुप रह कर सबको सुनती है जैसे किसी अहम जबाब का इंतजार हो उसे।

जानकी ने दुनिया देखी थी उसकी अनुभवी आंखें समझ रहीं थीं कि कुछ तो हुआ है जिसने इस चंचल गुड़िया को संजीदा कर दिया है लेकिन क्या?

" संदली !, क्या मैं तुम्हारे पास बैठ सकती हूं?", प्यार भरे स्वर में उन्होंने पूछा।

" जरूर आंटी, यह भी कोई पूछने की बात है।", मुस्कुराती हुई संदली ने खिसक कर बैंच पर उनके बैठने के लिए जगह बना दी।

" कैसी हो ? क्या चल रहा है आजकल ? ", जानकी ने बात शुरू करते हुए पूछा।

" बस आंटी वही रूटीन, कॉलिज- पढ़ाई....", संदली ने जबाब दिया।" आप सुनाइये।"

" बस बेटा, सब बढ़िया है। आजकल कुछ न कुछ नया सीखने की कोशिश कर रही हूं।", चश्मे को नाक पर सही करते हुए जानकी ने कहा।

" अरे वाह ! क्या सीख रही है इन दिनों ?", संदली ने कृत्रिम उत्साह दिखाते हुए कहा जिसे जानकी समझ कर भी अनदेखा कर गई।

"कुछ बहुत बड़ा तो नहीं, 'बिटिया'। हम पुरानी उमर के लोग हैं ज्यादा नया क्या कर सकते हैं। अब क्षमता और ऊर्जा तो खास बचती नहीं है इस उम्र में। हाँ, तुम जैसे युवाओं से बात करना नयी स्फूर्ति से अवश्य भर देता है।" जानकी आंटी ने मुस्कुराते हुए संदली की ओर देखा।

संदली बगीचे में खिले एक स्थिर से गुलाब को एकटक देखने में व्यस्त थी। गुलाब की पत्तियाँ हल्की सी मुरझा रही थीं, शायद थोड़ी सी फुहारें या थोड़ी देखभाल उसे फिर से हरा कर दे।

"आजकल मैं अपनी घरेलू सहायिका की बिटिया और साथ ही उसकी कई सहेलियों को पढ़ाई में मदद करने के साथ ही साथ एक स्वयंसेवी संस्था 'उम्मीद' के साथ मिलकर उन्हें हस्तशिल्प का भी प्रशिक्षण दिलवा रही हूँ।" संदली ने जानकी आंटी की ओर देखा और उसे उनका स्वर सिर्फ़ सूचनात्मक नहीं लगा।

"अच्छा आंटी! अब मैं चलती हूँ।" कहते हुए संदली उठ खड़ी हुई। मुझे अपने एम॰ बी॰ ए॰ के कुछ असान्मेंट्स पर भी काम करना है - टाइमली सबमिट करने के लिए। मंजरी को भी निकलना होगा।

"ठीक है बेटा, कल मिलते हैं।" कहते हुए जानकी आंटी ने एक वात्सल्यपूर्ण मुस्कान संदली की तरफ उछाल दी जिसका प्रत्युत्तर मुस्कान से देते हुए वह तेजी से अपने फ्लैट की तरफ चल निकली।

जानकी आंटी और संदली एक ही आवासीय परिसर में रहते थे। एक - दूसरे के घर आने - जाने जैसी आत्मीयता तो न थी - शायद उम्र के अन्तर की वजह से - परन्तु एक - दूसरे के फ्लैट न॰ मालूम थे। और यहीं कॉलनी के पार्क में अक्सर शाम को मिलना होता था उनका।

संदली जब घर पहुँची तो मंजरी बस निकलने कैसे ही थी। "अरे! सुन संदली। वो दूध ज़रा खत्म हो गया है। तू बाज़ार से लेती आना प्लीज़ जब आज सब्जी लायेगी।"

"और हाँ, मैंने सैंडविचेज बनाये थे अपने लिए। तेरे लिए भी रखे हैं, किचन में। खा लेना और अगर मूड न हुआ तो फ्रिज़ में ज़रूर रख देना।"

"ओके बाबा, सब सुन लिया।" कहती हुई संदली सोफे में धँसान गयी। "चल बाय, हाँ" कहती हुई मंजरी फटाफट निकल पड़ी।

संदली, मंजरी के साथ एक किराये के फ्लैट में रहती थी। मंजरी एक कॉल - सेंटर की नाइट-शिफ्ट में काम करती थी और अक्सर पूरा दिन घर में सोते हुए गुजारती। इस कारण संदली से उसकी बातचीत भी सीमित मुद्दों पर - अक्सर घरेलू बातों - को लेकर ही होती थी। दोनों एक कॉमन मित्र के माध्यम से मिली थीं।

दोनों के बीच भावनात्मक आत्मीयता तो पनपने का अवसर न पा सकी थी। हाँ, औपचारिक शिष्टाचार अवश्य था जिसे अपनी - अपनी स्वभावगत विशेषताओं के चलते लाँघने का प्रयास दोनों ही नहीं करती थीं।

संदली कुछ अनमनी सी होकर किचन में चली गई। सैंडविच की तरफ नज़र डाली पर भूख मर चुकी थी। सोचा एक कप चाय ही पी ले। तो चाय का बर्तन गैस पर रखकर सैंडविच फ़्रिज़ में रख दी। फिर चाय का कप लेकर ड्रॉइंग रूम में आ गई। असाइनमेंट्स का पुलिंदा और लैपटॉप लेकर काम शुरू करने की कोशिश की पर मन नहीं लगा उसका। सोफ़े पर ही वह कब नींद के आगोश में समा गयी पता ही नहीं लगा उसे।

सुबह उठी तो आज सर कुछ भारी सा लगा उसे। घड़ी की तरफ़ नज़र दौड़ाई तो पूरे आठ बज रहे थे। सोचा जल्दी से उठकर फटाफट तैयार होकर कॉलेज के लिए निकल ले। पर शरीर आज बिल्कुल भी साथ नहीं दे रहा उसका। सोफ़े से उठकर बिस्तर पर जा लेटी किसी तरह। साइड-टेबल पर रखी बॉटल से थोड़ा पानी पिया और वापस नींद में लौट गई।

जब उठी तो देखा दोपहर के दो बज रहे हैं और मंजरी कब की लौट आयी है। मंजरी ने उसे देखते ही थोड़े स्नेह से पूछा - "तबियत कैसी है अब तेरी।"

"ठीक हूँ।" - संक्षिप्त सा उत्तर देकर संदली पलंग का सहारा लेकर उठ बैठी।

"चल मैंने खिचड़ी बनाई है, चलकर थोड़ी सी खा ले।"

मंजरी की तरफ एकटक देखती हुई संदली ने पूछा - "तुम सोयी नहीं आज?"

"मैडम, आज थर्सडे है, मेरा वीकली ऑफ। तो आज शाम को कुछ कलीग्स के साथ मूवी का प्लान है।"

संदली अभी भी कमजोरी सी तो महसूस कर रही थी पर अब सर दर्द नहीं था। किसी तरह उठकर वॉशरूम जाकर फ़्रेश हो आई। अब पहले से बेहतर और कुछ तरोताज़ा महसूस कर रही थी। दोनों ने साथ मिलकर खिचड़ी खाई फिर मंजरी अपनी सहकर्मियों के साथ शॉपिंग और मूवी प्लान के लिए निकल पड़ी।

संदली अब घर में अकेली थी। सोचा थोड़ी देर को नीचे पार्क में टहल आऊँ। जैसे ही नीचे उतरी सामने से जानकी आंटी 'ईवनिंग वॉक' पर निकली हुई दिखाई दीं।"अरे ! आओ बेटा संदली। ये तुम्हारा गुलाबी टॉप तो तुम पर बहुत खिल रहा है।"

"थैंक्स आंटी" संदली धीमे से मुस्कुरायी।

चलते हुए जानकी आंटी और संदली दोनों पार्क की कल वाली बेंच पर आ बैठीं। कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद आज आंटी ने उसे अपने घर पर चाय का निमंत्रण दे डाला। संदली ने मना करने का सोचा फिर सहर्ष तैयार भी हो गई। वे दोनों दो बिल्डिंग छोड़कर चौथे माले वाले जानकी आंटी के फ्लैट के सामने खड़ी थीं। फ्लैट के मुख्यद्वार की बगल में 'म्यूराल' की बड़ी कलात्मक सी नेमप्लेट लगी थी जिसपर सुंदर अक्षरों में 'रमाकांत वर्मा' और 'जानकी वर्मा' लिखा हुआ था।

"ये नेमप्लेट तो बड़ी ही खूबसूरत और कुछ अलग सी है, आंटी।" संदली ने प्रशंसात्मक लहजे में कहा

"क्यों न हो भला, ये इन्होंने अपने हाथों से जो बनाई है।" संदली ने देखा सामने एक लगभग पैंसठ वर्षीय बुजुर्ग - पर उन्हें बुजुर्ग कहना शायद उचित न हो, तंदरुस्ती से पैंतालीस वर्ष के लगभग और खुशमिज़ाज लग रहे थे - खड़े थे।

जानकी आंटी ने मुस्कुराते हुए परिचय करवाया - "ये मेरे पति मि॰ रमाकांत वर्मा और ये संदली - हमारे परिसर में ही रहती है और एम॰बी॰ए॰ कर रही है।"

संदली ने श्रद्धापूर्वक दोनों हाथ जोड़कर 'नमस्ते अंकल' कहा।

" आओ! बैठो बेटा।" कहते हुए अंकल उन दोनों के साथ अंदर आ गये। जानकी जी और संदली के सोफ़ा पर बैठते ही बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने पूछा - "तो बेटा तुम एम॰बी॰ए॰ किस स्ट्रीम से कर रही हो।"

"फिनैंस में, अंकल।" संदली ने उत्तर दिया। "बहुत बढ़िया, बेटा। वैसे तुम्हारी जानकारी के लिए बता दूँ कि मैं भी भारत सरकार के वित्त विभाग से रिटायर्ड हूँ। अब तुम दोनों बैठो, मैं सबके लिए चाय बनाकर लाता हूँ।"

"अरे! नहीं-नहीं, आप क्यों तकलीफ कर रहे हैं, अंकल।" अब संदली ने जानकी आंटी की ओर देखा। उन्होंने पलकें झपकाकर संदली को आश्वस्त किया और उसके हाथों पर अपनी हथेली रखते हुए कहा - "हमारे घर का यह अलिखित नियम है कि जब तुम्हारे अंकल के मित्र आते हैं तो मैं बनाती-खिलाती हूँ और जब कोई मेरी सहेली या परिचिता आ जाय तो चाय-नाश्ते की ज़िम्मेदारी तुम्हारे अंकल की। या फिर जब हमने सम्बन्धी-रिश्तेदारों को आमंत्रित किया होता है तो हम दोनों मिलकर सारी तैयारी पहले से ही करके रखते हैं या फिर कुछ बाहर से मँगवा लेते हैं ताकि आराम से गपशप कर सकें।" संदली सिर्फ़ विस्फारित नेत्रों से उन्हें देखे जा रही थी।

जानकी जी ने बातें आगे बढ़ाते हुए कहा - "कल तुम मुझसे पूछ रही थी ना कि मैं आजकल नया क्या कर रही हूँ और मैंने तुम्हें थोड़ा बताया भी कि किस तरह मैं अपनी घरेलू सहायिका और उसकी ही बस्ती में रहने वाली अन्य महिलाओं के बच्चों की पढ़ाई में मुफ्त सहायता करती हूँ। और हम उन्हें हस्तशिल्प का प्रशिक्षण दिलवाकर ऊँचे दामों में उनका उत्पाद मॉल्स, शिल्प एवं कला प्रदर्शनियों में बिकवाकर उन्हें अधिकाधिक लाभ प्रतिशत पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं। इस काम में जैसा कि मैंने तुम्हें बताया था, 'उम्मीद' नामक एक गैर-सरकारी स्वयंसेवी संस्था भी हमारी पूरी सहायता करती है।

इतनी देर में रमाकांत जी भी चाय-नाश्ता लाकर ट्रेन, सेंटर-टेबल पर रख चुके थे। संदली ने एक नज़र दौड़ायी और देखा कि चाय के साथ मठरी, शकरपारे, कुछ तले हुए चिप्स-पापड़ आदि काफ़ी सारा सामान था।

"अंकल आप तो वाकई बहुत कुछ ले आये" संदली ने सकुचाते हुए कहा।

"अरे तुम आराम से खाओ।" जानकी जी ने स्नेहपूर्ण स्वर में कहा।

"हाँ, बेटा तकल्लुफ को कोई जरूरत नहीं और खाकर बिल्कुल बताना कि तुम्हारी आंटी बनाई मठरी- ये सारा कुछ तुम्हारी आंटी ने घर पर ही बनाया है - और मेरी बनाई हुई चाय में कौन जीता।" कहते हुए उन्होंने स्नेहसिक्त मुस्कान से अपनी सहधर्मिणी की ओर देखा।

जानकी जी ने भी प्रत्युत्तर में अपनी मुस्कान की पँखुड़ियाँ बिखेरते हुए सेंटर-टेबल की निचली सतह से निकालकर एक ब्रॉशर संदली की तरफ बढ़ाया।

"यह क्या है, आंटी ?" संदली ने प्रश्न किया।

"ये जिस संस्था 'उम्मीद' के विषय में मैंने तुम्हें बताया उसके बारे में विस्तार पूर्वक इसमें पढ़ सकती हो।"

रमाकांत जी अपनी चाय खत्म कर टहलने और दोस्तों से गपशप करने नीचे जा चुके थे।

"तुम इसे देखो, मैं अभी आई।" कहती हुई जानकी जी भी अंदर कमरे की ओर चल दीं।

इतनी देर बाद अब कमरे में अकेले बैठी संदली ने आस-पास नज़रें घुमाईं। जानकी जी ने वास्तव में अपना घर काफी कलात्मक और सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया था। बिल्कुल वो कहते हैं ना प्रत्येक वस्तु अपने नियत स्थान पर और प्रत्येक वस्तु के लिए एक नियत स्थान। इसका नमूना तो वह घर की नेमप्लेट में भी देख चुकी थी। एक प्रकार की सकारात्मकता का अनुभव तो उसे घर में कदम रखते ही हो गया था।

इतने ही में जानकी जी अंदर से कुछ हस्तशिल्प की कलाकृतियाँ लेकर आ गईं।

"ये सभी हमारी संस्था की कर्मियों द्वारा बनाई गयी हैं। जानकी जी ने बताया।

"क्या वाकई ?" उन कलाकृतियों को उलट-पुलट कर देखती हुई संदली ने साश्चर्य कहा।

"ये तो किसी दक्ष कलाकार की बनायी मालूम होती हैं।" संदली ने अपना मत प्रकट किया।

"हाँ! क्योंकि 'उम्मीद' सभी महिलाओं को उनकी रुचि और क्षमता के अनुसार ही प्रशिक्षण देती है। हस्तशिल्प, पाक-कला, सिलाई-कढ़ाई, बुनाई हाउस-कीपिंग इत्यादि। फिर प्रशिक्षण पश्चात इन महिलाओं को उनकी सुविधानुसार यदि वे चाहें तो, नौकरी ढूँढने, हमारे साथ काम करने अथवा घर से ही काम करने में पूरा सहयोग एवं समर्थन दिया जाता है। बंदिश बस ये रहती है कि उन्हें अपनी जैसी कम-से-कम दो और अधिक कितनी भी महिलाओं को यह प्रशिक्षण मुफ्त देना होता है जो स्वयं उन्होंने प्राप्त किया।"

संदली बड़े ही ध्यान और उत्साह से जानकी जी की बातें सुन रही थी।

अपनी मुग्धावस्था से बाहर आते हुए अचानक संदली ने उनसे पूछ डाला -

"वो सब तो ठीक है आंटी, पर आप इतना सब कुछ करने का समय किस प्रकार निकाल पाती हैं? जानती हैं कल आप से जिस असाइनमेंट को पूरा करने का कहकर मैंने आप से विदा ली थी, आज २४ घंटे से अधिक का समय बीतने पर भी मैंने उसे हाथ तक नहीं लगाया है। जानती हूँ शुरु कर लूँ तो तकरीबन दो घंटों में उसे समाप्त भी कर सकती हूँ। मगर शुरुआत करना फिर न चाहते हुए भी घंटों उसमें अपना सिर खपाना मेरे वश की बात नहीं रहती। अक्सर कॉलेज में असाइनमेंट्स देर से सबमिट हो पाते हैं। स्वयं समझती हूँ कि जैसा दिया है उससे कहीं अधिक गुणवत्ता वाला असाइनमेंट बना सकती थी। इन सबका असर मेरे मार्क्स, ग्रेड और क्रिडेन्शियल्स पर पड़ता है तो और अधिक परेशान हो उठती हूँ।"

एक गहरी साँस लेते हुए एक ही झटके में संदली ने अपनी व्यथा जानकी जी को कह सुनायी।

जानकी जी काफ़ी गौर से एकटक संदली के चेहरे के उठते-गिरते भावों को पढ़ती रहीं, फिर कुछ ठहरकर उन्होंने कहा -

"आखिर कोई तो वजह रही होगी संदली, तुम्हारे एम॰बी॰ए॰ में दाखिला लेने की। मेरा मतलब है तुम्हारी जैसी होनहार, शिष्ट और सुसंस्कृत लड़की ने कुछ सोचकर ही यह फैसला लिया होगा। अब यदि तुम अपना पूरा ध्यान, जो कि तुम्हें इस समय अपनी पढ़ाई पर लगाना चाहिये, वो तुम नहीं लगा पा रही हो तो कारण अपने अंदर ढूँढने की चेष्टा करो। वजह तुम्हें खुद-ब-खुद मालूम हो जायेगी।"

फिर थोड़ा विराम लेकर उन्होंने कहना ज़ारी रखा।

"तुम यदि उचित समझो तो मुझसे अपनी परेशानी बाँट सकती हो।"

संदली कुछ देर तक जानकी जी के चेहरे की तरफ देखती रही मानो सोच रही हो कहूँ या नहीं, कहूँ भी तो किस तरह और क्या ? या फिर अपना ही विश्वास तौल रही थी।

फिर कुछ देर रुक कर मानो शरीर का सारा विश्वास एक जगह इकठ्ठा कर उसने धीरे-धीरे कहना शुरु किया -

" आंटी ! मेरा एक सहपाठी है, समीर। दो वर्षों की पढ़ाई के दौरान हम एक-दूसरे के काफ़ी निकट आ गये और यहाँ तक कि भविष्य के सपने सँजोते-सँजोते हमने विवाह का भी निश्चय कर लिया था। समीर का एक ही सपना रहा कि कुछ भी करके यू॰ एस॰ में सेटल होना है और खूब पैसे कमाने हैं। और उसके इस सपने में मेरा भी पूरा सहयोग और समर्थन हमेशा रहा। वह भी मेरी ही तरह एक सामान्य मध्यवित्त परिवार से आता है और देर - सबेरे हम दोनों मिलकर अपने सारे ख्वाब हकीकत में बदल भी लेते पर तभी समीर के लिए एक सजातीय युवती का रिश्ता आया जिसका परिवार कई वर्षों से यू॰ एस॰ में सेटल्ड है। और कोर्स पूरा होते ही उन्होंने समीर के लिए भी जॉब और सपरिवार वहीं सेटल होने का ऑप्शन दिया है। पता नहीं अपनी किस बेवकूफी की वजह से मुझे पूरा यकीन था कि समीर इस प्रस्ताव को मना कर देगा। मगर उसने ऐसा नही किया और वह सहर्ष तैयार हो गया मानो मुँह माँगी मुराद मिल गयी हो उसे।"

इतना कहकर संदली कुछ देर को चुप हो गयी। फिर उसने सामने रखी टेबल पर से एक ग्लास उठाकर उसमें बॉटल से थोड़ा ठंडा पानी डाला और धीरे-धीरे पीने लगी। ग्लास रखकर उसने फिर से कहना शुरु किया।

"आंटी मैं बचपन से ही अपनी माँ के साथ अपने नाना-नानी के घर में रहती आयी हूँ। मेरे माता-पिता विधिवत अलग तो नहीं हुए पर मेरे छुटपन से ही हमेशा अलग ही रहे। और अब जहाँ मैंने समीर के साथ अपने ख्वाबों के महल सजाने शुरु किये तो हवा के एक ही झोंके से ताश के पत्तों की मानिंद ठहठहाकर गिर पड़े। अभी तक मैंने अपने सुख-दुःख का विश्वस्त साथी समीर को बना रखा था और अब अचानक ही उसके मेरे जीवन से चले जाने का निर्णय लेने के बाद से मैं, मेले में खोई किसी बच्ची सा महसूस कर रही हूँ और कुछ भी निश्चय कर पाने में असमर्थ हूँ।"

फिर एक लम्बी साँस लेते हुए संदली ने आगे कहना जारी रखा।

"नाना-नानी के गुजर जाने के बाद मेरी माँ पिछले एक वर्ष से मेरे पिता के साथ रहने चली गयीं। पर दोनों ही शायद पिछली कड़वाहटें भुला नहीं पाये थे। दोनों में झगड़े कहीं ज्यादा बढ़ गये और अब शायद दोनों डिवोर्स भी ले लें। मुझे अपने भविष्य में अँधकार के सिवा कुछ नज़र नहीं आता। जीवन का कोई भी मकसद मैं ढूँढ नही पाती हूँ।" इतना कहकर संदली पीछे झुककर सोफ़े से टिक गयी।

जानकी जी अपने स्थान से उठकर संदली के समीप आ खड़ी हुईं और उसके सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोलीं- "तुम एक बहुत ही बहादुर बच्ची हो, संदली बेटा। हिम्मत रखो, सब ठीक होगा। तुम बैठो, मैं अभी आयी।

संदली अपनी दोनों हथेलियों में अपना चेहरा छुपाकर चुपचाप बैठी रही। तभी अचानक एक दिव्य सी सुगन्ध ने उसके नथुनों में प्रवेश किया। वह कुछ समझती कि तभी मन्दिर की घंटी और शंखध्वनि उसके कानों से आ टकरायी। उसने मुँह ऊपर की ओर उठाकर देखा तो सामने ड्रॉइंग रूम की एक तरफ बने मन्दिर के सामने जानकी जी नतमस्तक थीं। उन्हें आध्यात्म में लीन देखकर उसका अपना मन भी श्रद्धा से भर उठा और एक नूतन शक्ति का संचार उसने अनुभव किया।

जानकी जी आरती की थाली ले संदली के सामने आ खड़ी हुईं। संदली ने आरती लेकर सिर पर हाथ फेरा और फिर चलने के लिए इजाज़त माँगी। जानकी जी ने प्रेम से कहा - "चली जाना, बेटा। वैसे मेरे पास तुम्हारे लिए एक ऑफर है। तुम चाहो तो मुझे मेरे काम में ज्वाइन कर सकती हो। दरअसल 'उम्मीद' एक काफ़ी बड़ी संस्था है जिसके पूरे भारतवर्ष में हज़ारों एम्प्लॉइज़ हैं और विदेशों से तथा भारत सरकार से वित्तीय सहायता एवं उत्कृष्ट कार्यों के लिए सम्मान तथा पुरस्कार आदि भी प्राप्त होते रहते हैं। तुम इसकी वेबसाइट पर और अधिक जानकारी वे सकती हो। अगले ही महीने तुम्हारे कॉलेज सहित अन्य कॉलेजेज में भी 'कैम्पस रेक्रूटमेंट प्रोग्राम' भी हैं, तुम उसके थ्रू भी आ सकती हो।"

संदली के साथ चलते-चलते दरवाज़े तक पहुँची जानकी जी ने कहा - "तुम अपना निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हो, बेटा। पर मेरा जीवन अनुभव कहता है - हम किसी न किसी रूप में समाज से लाभान्वित होते ही हैं। यदि हम इस पाने को समाज को लौटाएँ तो, कई बार स्वयं भीतर से खाली होने पर भी, तो ये देना हमारा देना न होकर पाना बन जाता है और हमें पहले से भी कहीं अधिक समृद्ध करता है। जॉब के विषय में तुम्हारा निर्णय चाहे जो हो परन्तु किसी न किसी रूप में समाज से जुड़ी रहो और ईश्वर पर भरोसा बनाए रखो तो हर बाधा को पार कर सकोगी।"

फिर उन्होंने संदली के हाथ में एक सुन्दर और प्यारी सी कलाकृति थमाते हुए कहा - "और हाँ, ये तुम्हारे लिए। पहली बार घर आयी हो, खाली हाथ नहीं जाने दूँगी।"

इतना कहकर उन्होंने संदली को हृदय से लगा लिया। उनके ममत्व ने अन्तर तक संदली को भिगो दिया।

"और हाँ, आज जितना हो सके असाइनमेंट पर काम करके समय पर सो ज़रूर जाना ताकि कल समय पर उठ सको। धीरे-धीरे समय प्रबन्धन की कई टिप्स मुझसे लेकर तुम मेरे जीवन-अनुभवों का लाभ उठा सकती हो।"

"थैंक्स आंटी ! मुझे इतनी अच्छी तरह से समझने के लिए। आप नही जानतीं कि आप ने कितनी गहरी खाई से मुझे बाहर निकाला है।"

"बस-बस अब ज्यादा तारीफ़ नहीं।" जानकी जी ने नकली डपट के साथ एक हल्की चपत लगाते हुए कहा तो दोनों खिल-खिलाकर हँस पड़ीं।

सुबह से शाम तक आज वही संदली थी। बस अब उसे 'उम्मीद' की एक किरण मिल गयी थी।


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