परवरिश
परवरिश
नन्हा बिन्नी पार्क में अकेले बैठे- बैठे ज़मीन कुरेद रहा था। यह शहर के एक पाॅश इलाके की एक पाॅश आवासीय काॅलनी का पार्क था। कुरेदते - कुरेदते जब उकता गया तो उठकर थोड़ी देर यहाँ - वहाँ भटकते हुए जाकर पार्क की लकड़ी की बेंच पर बैठ गया।
आज बिन्नी काफ़ी अकेला और उदास सा महसूस कर रहा था।नींद और भूख तो सता रही थी पर घर जाने का मन न हुआ उसका। जाकर भी क्या करता भला ? टी. वी. देख - देखकर नन्हीं सी जान की आँखें पहले ही काफी दुःख रही थीं । आज शनिवार होने के कारण उसके अधिकांश मित्र अपने - अपने परिवारों के साथ शॉपिंग मॉल या एम्यूज़मेंट पार्क आदि स्थानों पर गये हुए थे। इसलिए आज वह कुछ ज़्यादा ही अकेला महसूस कर रहा था।
बेंच पर बैठे ही बैठे कब निद्रा देवी अपना आँचल उसपर लहरा गईं वह जान ही न सका। अचानक किसी परिचित स्वर से उसकी तंद्रा टूटी।
यह सोसायटी के सबसे मिलनसार सिक्योरिटी गार्ड गंगाधर अंकल थे। अर्द्धसदी पार के गंगाधर अंकल गाँव में परिवार रख यहाँ दूर शहर में नौकरी करते थे तो कॉलनी के बच्चों में ही अपना परिवार ढूँढा करते थे।
बिन्नी अपनी नन्हीं हथेलियों से अपनी उनींदी आँखों को मलते हुए उठ बैठा।
साँझ का धुँधलका भी अब घिरने लगा था।
गंगाधर - "चलो बाबा ! मैं आपको आपके फ्लैट तक छोड़ दूँ।"
नन्हें बिन्नी के मन में पता नहीं क्या सूझी उसने सीधे अपने घर को दौड़ लगा दी। जैसे ही लिफ्ट उसके माले पर पहुँची, उसे जोर - जोर से बातें करने की आवाज़ सुनाई दी। यह उसके माता - पिता ही थे।
पिता - "तो क्यों करती हो तुम ऐसी नौकरी जो तुम्हें घर - परिवार की ज़िम्मेदारियाँ उठाने लायक ही नहीं छोड़ती।"
माँ - "मैंने तुम्हें पहले ही कह दिया था ये साल मेरी पदोन्नति के लिए बहुत महत्वपूर्ण है । वरना मैं बहुत पिछड़ जाउँगी।"
पिता - "मुझे पता होता तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं का बोझ हमारे परिवार पर इतना भारी पड़ेगा तो मैंने तुमसे कभी शादी न की होती।"
भूख - प्यास और नींद से व्याकुल बिन्नी का माँ - पिता से लिपटकर प्यार जताने का उत्साह जाता रहा। दरवाजे के अन्दर जाने की हिम्मत वह नहीं जुटा पाया। उसके थके - बोझिल कदमों ने उसे शिथिल पड़कर वहीं बैठा दिया। उसे लगा वह स्थिर है और सारी दुनिया उसके चारों ओर घूम रही है जिसमें उसके माता - पिता भी हैं और वह चाहे तो भी हाथ बढ़ाकर उन्हें छू नहीं सकता।
