रंग की ओर
रंग की ओर
गंगापुर गांव में राधा, भरी जवानी में विधवा हो गई थी। उसके पति, रमेश, गांव के जमींदार के खेतों में काम करता था और एक सड़क दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई थी। राधा पर तो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था। न केवल उसने अपना जीवन साथी खोया था, बल्कि समाज की तिरछी निगाहों का भी सामना करना पड़ता था ।
गंगापुर, रूढ़िवादी विचारों से घिरा हुआ गांव था। विधवा होने के बाद राधा को हर रंग से वंचित कर दिया गया। सफेद साड़ी, बिना श्रृंगार, हर उत्सव और खुशी से दूरी बस यही उसकी नई पहचान थी। लोग उससे सहानुभूति तो दिखाते थे, लेकिन अक्सर सलाहों के नाम पर उसे याद दिलाते रहते थे कि अब उसका जीवन त्याग और तपस्या का है।
राधा के मन में दुख तो था, पर हिम्मत नहीं हारी थी। रमेश हमेशा कहते थे, "राधा, तुम तो सूरजमुखी हो, हमेशा रौशनी की तरफ देखना।" रमेश की बातें उसे हौसला देती थीं। उसने फैसला किया कि वह अपनी जिंदगी को यूं ही बेरंग नहीं होने देगी।
राधा का एक छोटा सा बेटा, कृष्णा था। वही उसकी जिंदगी का सहारा था। वह कृष्णा को अच्छी शिक्षा देना चाहती थी और उसे एक बेहतर भविष्य देना चाहती थी। उसने गांव के स्कूल में बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। धीरे-धीरे, उसकी मेहनत और लगन से स्कूल में बच्चों की संख्या बढ़ने लगी। राधा बच्चों को सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं देती थी, बल्कि उन्हें नैतिक मूल्यों, जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण और आत्मविश्वास का पाठ भी पढ़ाती थी।
गांव के कुछ लोगों को राधा का यह बदलाव रास नहीं आ रहा था। वे उसे याद दिलाते कि विधवा को इस तरह सबके सामने नहीं आना चाहिए, उसे घर में रहकर भजन-कीर्तन करना चाहिए। लेकिन राधा ने उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया। उसे पता था कि वह कुछ गलत नहीं कर रही है।
एक दिन, गांव में पंचायत बैठी। कुछ लोगों ने राधा की शिकायत की कि वह विधवा होकर भी रंगों से दूर नहीं रहती, हंसती-बोलती है और गांव के बच्चों को पढ़ाती है। मुखिया ने राधा को बुलाया और उससे सफाई मांगी।
राधा बिना डरे पंचायत के सामने खड़ी हुई और बोली, "मैं जानती हूं कि हमारे समाज में विधवाओं के लिए कुछ नियम हैं। लेकिन मैं यह भी जानती हूं कि एक विधवा भी इंसान होती है। उसे भी जीने का हक है। उसे भी खुश रहने का हक है। मैंने अपने पति को खोया है, इसका मतलब यह नहीं है कि मैं अपनी जिंदगी को भी खो दूं।"
उसने आगे कहा, "मैं कृष्णा को एक बेहतर भविष्य देना चाहती हूं। मैं चाहती हूं कि वह एक अच्छा इंसान बने। और मैं यह तभी कर सकती हूं जब मैं खुद मजबूत रहूंगी, खुश रहूंगी।"
राधा की बातों ने पंचायत में सन्नाटा ला दिया। गांव के कुछ बुजुर्गों को उसकी बातें सही लगीं। उन्होंने कहा कि राधा तो गांव के बच्चों को शिक्षित कर रही है, यह तो एक अच्छा काम है।
अंत में, मुखिया ने फैसला सुनाया कि राधा को अपनी मर्जी से जीने का हक है। वह बच्चों को पढ़ा सकती है और अपने जीवन में खुशियां ढूंढ सकती है, बशर्ते वह मर्यादा का पालन करे।
राधा की जीत हुई। उसने समाज की सोच को बदलने की एक छोटी सी कोशिश की थी और उसमें सफल रही थी। धीरे-धीरे, गांव के लोगों का नजरिया भी बदलने लगा। वे राधा को सम्मान की दृष्टि से देखने लगे।
राधा ने अपने जीवन को रंगों से भरना शुरू किया। उसने रंगीन साड़ियां पहननी शुरू कीं, श्रृंगार करने लगी और गांव के उत्सवों में भाग लेने लगी। वह जानती थी कि रमेश हमेशा उसके साथ हैं, उसकी ताकत बनकर।
राधा की कहानी गंगापुर में एक मिसाल बन गई। उसने यह साबित कर दिया कि विधवा होना जीवन का अंत नहीं है, बल्कि एक नई शुरुआत है। वह भी अपनी जिंदगी में रंग भर सकती हैं और खुश रह सकती हैं। उसने समाज को यह सिखाया कि विधवा औरत को भी इस समाज में जीने का हक है और उसे भी खुश रहने का हक है। राधा ने रंगहीन जिंदगी को रंगीन बनाने का एक प्रेरणादायक उदाहरण प्रस्तुत किया।
