रिश्तों में विश्वास की रेसिपी
रिश्तों में विश्वास की रेसिपी


" तुम बिन मैं कुछ भी नहीं, जग लगे बेकार जो तू नहीं " गुनगुनाते हुए प्रीति खाना बना रही थी। दूर बैठा हिमांशु उसे घूरे जा रहा था। उसे प्रीति की हर बात पर प्यार आता था। शादी को कुछ ही महीने हुए थे। प्रीति और हिमांशु की अरेंज मैरिज थी इसलिए अभी धीरे धीरे एक दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे थे। प्रीति हिमांशु के कहने पर भी उसकी मदद नहीं लेती थी किचन में, बस हर समय अपना फोन जरूर साथ लिए घूमती थी। कभी कभी उसे गुस्सा भी आता कि उसकी नई नवेली बीवी के साथ फोन ही चिपका रहता था हमेशा।
एक दिन हिमांशु ऑफिस से आया तो बहुत देर बेल बजाने पर प्रीति ने दरवाजा खोला। हिमांशु को बहुत गुस्सा भी आया, उसके हाथ में पड़े फोन की लाइट बता रही थी कि वो फोन पर किसी से बात कर रही थी। हिमांशु का मूड ऑफ हो गया। टेबल पर सजा उसका फेवरेट खाना भी उसका मूड ठीक नहीं कर पाया।
अगले दिन सुबह उठा तो देखा प्रीति किचन में है और फोन पर ही किसी से चैट कर रही थी, हिमांशु को देखते ही उसने छिपा दिया।
अब उसका पारा सातवे आसमान पर था। अगर वो फोन चेक करेगा तो प्रीति को बुरा लगेगा पर बुरा उसे खुद लग रहा था कि नई नई शादी में ऐसी नौबत आ गई थी। क्या कमी रह गई थी कि प्रीति को उससे बाते छिपानी पड़ रही है।
उसने उदास होकर माँ को फोन लगाया।
" माँ! ऐसा लगता है आप लोगों ने गलती तो नहीं कर दी, या मैं ही रिश्ते निभाने में कच्चा हूं?
" ऐसा क्या हुआ बेटा? "
" माँ मैं प्रीति को हर सुख देता हूं फिर भी उसे मुझसे क्या तकलीफ है? "
" क्या हुआ बेटा? वो तेरा ख्याल नहीं रखती क्या.. खाना पीना सब टाइम पर.. "
" माँ! खाना पीना ही सब होता है क्या? आपसी विश्वास भी कोई चीज़ होती है या नही?"
" बेटा तू खुल कर पूछ सकता था ऐसी बात करने से पहले "
" मुझे तो लगता है कि वो मुझे पसंद ही नहीं करती है"
तब तक प्रीति उसके कमरे में आती है और हिमांशु की बात सुनकर रोते हुए चली जाती है।
हिमांशु उसके पीछे कमरे तक जाता है तो वो गुस्से में अपना सामान बाँध रही होती है।
" अरे ये क्या कर रही हो? "
" हाँ सही कहा आपने, ख्याल रखना क्या होता है.. विश्वास सब होता है जो आपको मुझ पर था ही नहीं कभी.. अब यहां रुक कर क्या मतलब"
" तुम ही बताओ प्रीति मानता हूं तुम गलत नहीं पर क्या मैं ऐसा करता तो तुम नाराज नहीं होती"
" ऐसा करता? कैसा करता? आपको तो पता भी नहीं.. पूछा तो होता.. चोरी और सरप्राइज में फर्क़ तो होता है ना? खैर अब बता कर मतलब भी नहीं "
हिमांशु परेशान हो गया आखिर उससे ऐसी गलती कैसे हो गई।
" देखो प्रीति मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं शायद इसलिये तुम्हारे फोन से भी असुरक्षित महसूस कर रहा था। मुझे माफ कर दो और पूरी बात तो बताओ? "
" हिमांशु मैं अपने मायके में कभी किचन में नहीं गई थी, अपनी पढ़ाई से मतलब रखा। शादी करके आई तो माँ से प्यारी सासु माँ मिली जिन्होंने मेरी हर समस्या को समझा। मैं हमारी गृहस्थी को पूरी तरह से संभालना चाहती थी अगर मैं अपनी मां को बोलती तो वो यूँ ही बोलती की मेड रख लो वगैरह! पर सासु माँ ने मुझे धैर्य से समझा और मुझे मदद कर रही थी। तुम्हें क्या पसंद है क्या नहीं.. घर के काम कैसे करना है और सब भी.. पर तुम्हें तो सिर्फ शक करना था "
" अच्छा तो वो माँ थी! सॉरी प्रीति.. असल में माँ या कोई भी होता मुझे ऐसे नहीं सोचना चाहिए था मुझे तुमसे पूछना चाहिए था.. माफ कर दो "
" नहीं मैं जा रही हूं मायके और अब सारा काम खुद सीख कर आऊंगी "
" अरे मेरी प्रिय! मैं करूंगा सारे काम, तुम बस हुक्म दो.. और तुम बिन मैं कुछ भी नहीं.. सच !
गिले शिकवे मिटा दो दिल एक हो गए थे।