रहस्योद्घाटन

रहस्योद्घाटन

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छोटा सा था तब माँ मुझे खिलौनों के पास बैठाकर कमरा बन्द कर जाने क्या बजाती थी। मुझे तब उस यंत्र का नाम नहीं मालूम था, पर उसकी धुन मेरे जैसे शैतान बालक को भी शांत कर देती। तब समझ नहीं पाता था, माँ क्यों ऐसे डर छुपकर उसे बजाती है। अपने कपड़ों की अलमारी में पुराने कपड़ों की तह के बीच में उसे छुपाती थी। कभी कभी खेल खेल में मैं उसे निकाल भाग लेता। माँ की मानो जान ही निकल जाती थी।

वो पसीना पसीना हो मुझे चिपटा लेती, मैं भी डर जाता। जब मुस्कुराते हुए उन्हें वापस करता वो मेरे गाल पर पुचकार कर और ज़ोर से कस लेती। मैं 7 साल का हो गया, लेकिन ये रहस्य था कि खुलने का नाम ही नहीं ले रहा था। पिता से मेरी बात केवल स्कूल में मेरी परसेंटेज, स्पोर्ट्स में मेरी ट्रॉफी के इर्द गिर्द घूमती। वो कभी कहीं घुमाने नहीं ले जाते, कभी गोद मे बैठाकर नहीं खेलते, ये दूसरा रहस्य था मेरे जीवन का। माँ से पिता का बर्ताव एक नौकरानी के जैसा था या शायद उससे भी बद्तर।

माँ एक रोबोट की भांति उनके हुक्म मानती पर फिर भी गलती कर डालती। ये रसोई में छोटे डब्बे पीछे क्यों रखे हैं? जब सारी शर्ट पर इस्त्री की है तो सफेद पर क्यों नहीं? मुझे आज यही पहननी थी, ये कंघे में एक बाल क्यों है, ये झाड़ू तिरछी क्यों रखी है। ये सब बातें बाद में कही जाती पहले एक झन्नाटेदार थप्पड़ माँ के गालों से होता हुआ मेरे दिल को भेद जाता।

जब तक पिता घर मे रहते, माँ एक जिंदा लाश की तरह रहती, अगर सांस ना ले रही होती तो उसकी गिनती मुर्दों में ही थी। पिता के जाने के बाद वो धम्म से सोफे या बिस्तर पर ढह जाती, मुझे सहलाती, मुँह पर पानी के छींटे मारती, मानो उस उदासी, भय, को चेहरे से धो डालना चाहती हो।

फिर एक दिन पहला रहस्य खुला, मैं करीब 16 का रहा होऊंगा, पिता शायद कुछ नरम पड़ने लगे थे। सालों बाद उन्हें माँ के कमरे में देखा, पर माँ क्यों पहले की तरह घबराई हुई ही लग रही थी! पिता ने पूरे कमरे का मुआयना किया, झटके से अलमारी खोली, माँ गश खाती खाती बची। कपड़े का ढेर उठा बाहर फेंका साथ ही वो भी फर्श पर गिरी माँ की बांसुरी। हाँ माँ बांसुरी बजाती थी या कहूँ कि जीती थी उसे।

पिता आजतक के सबसे ज्यादा रौद्र रूप में थे, माँ भय मिश्रित हैरानी से पिता को देख रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था ये रहस्योद्घाटन कैसे हुआ। पिता ने थकने तक माँ को पीटा। मैं 16 साल का नपुंसक कुछ ना कर सका, पर रात भर माँ सुबकती रही और मैं पिता को मारने के मंसूबे बनाने लगा। किस तरह जान लूँ कि माँ और मुझपर कोई आंच ना आए।

तभी गुस्से में पिता की कही बात अचानक दिमाग मे अटक गई "16 साल से इसे अपनी आँखों के सामने झेल रहा था, तुमसे बर्दाश्त नहीं हुआ जो उस हराम की इस दूसरी निशानी को भी सम्भाल रखा है"

"कौन, किसे झेल रहा था? मुझे? पिता मेरी बात कर रहे थे और हराम कौन था? आज मुझे सब सवालों के जवाब चाहिए थे, मैंने सुबकती माँ का कंधा छुआ। वो पल्ले से आँसू पूछती हुई उठी। छोटा होता तो माँ पुचकार कर गोद में भर लेती, काश मैं छोटा ही होता, काश ये सब ना समझ पाता।

"माँ बताओ बात क्या है? मैं भूमिका बनाने की स्थिति, उम्र और मूड में बिल्कुल नहीं था।

"क्या बात"?

माँ आज भी मुझे बच्चा ही मानती है

आप जानती हो।"

"कसे बताऊँ, तू समझेगा माँ की बात ?"

"बिल्कुल समझूंगा।"

"शादी के बाद तेरे पिता और मुझमें बहुत ही प्यार था और इतना ही प्यार था मुझे बांसुरी से। टीवी पर कृष्ण पर आधारित एक नाटक देखते देखते मैं बांसुरी की दीवानी हो गई थी।

"मायके में किसी ने मेरी इस चाह को पूरा करने के बारे में नहीं सोचा, तुम्हारे पिता ने सोचा भी और किया भी।"

"तुम्हारे जन्म से पहले शिरीष मुझे बांसुरी सिखाने आने लगे। मैं लगन से अपनी चाह में डूब रही थी इसलिए उस गुरु के भेष में छुपे हैवान को पहचान नहीं पाई। धीरे धीरे बांसुरी में मैं परफेक्ट होने लगी, एक दिन उसने बाँसुरी सिखाते हुए मेरे होठों को छुआ। मैं अंगार महसूस कर भौचक्की रह गई। सामने तुम्हारे पिता थे, हतप्रभ मैं और बेशर्म मुस्कान के साथ शिरीष। मैं सदमे में थी जिसे तुम्हारे पिता ने सहमति समझा, वो गुस्से में दरवाजा ज़ोर से पटक निकल गए। उनके जाने के बाद मुझे होश आया। मैंने एक थप्पड़ उसे रसीद किया। वो मुझे भुगत लेने की धमकी देता हुआ चला गया, जिसे मैंने सिर्फ कोरी धमकी समझा था। उसने मेरा जीवन कोरा कर दिया। उसके बाद से ही तुम्हारे पिता कटे कटे रहने लगे। सम्बन्ध थे पर होकर भी नहीं थे। इस घटना के 5 दिन बाद मुझे अहसास हुआ तुम्हारा। मैं सांतवे आसमान पर थी, अब सब कुछ पहले जैसे हो जाएगा। मैं शाम को अच्छे से तैयार हो इनका इंतजार कर रही थी। ये आए, मुझे देखा। मैंने इनका हाथ पकड़ तुम्हारे आने की आहट सुनाई।"

इतना कहते कहते माँ हाँफने लगी, मैंने उनकी पीठ सहलाई।

वो आगे बोली "वो पहली बार था जब उन्होंने मेरे ऊपर हाथ उठाया, उनके बोले शब्द आज तक कानों में चुभते हैं। तो उस हराम ने सच कहा था तू उसका पाप लिए मुझे पिता बनने का अहसास दिलाना चाहती है। इतनी पिटाई के बाद मैं सफाई देने की स्थिति में नहीं थी या मैं सफाई देना ही नहीं चाहती थी। खुद की मर्दानगी पर सवाल ना उठे इसलिए अलग नहीं हुए, पर केवल समाज की नजर में। मेरे पास सिर्फ दो ही सहारे बचे, मेरे बचपन का प्यार बाँसुरी और तू।

इतना कह कर माँ चुप हो गई। मैं तब तक सोच चुका था क्या करना है। 2 हफ्ते बाद पिता को एक जगह आमंत्रित किया गया। मैं भी साथ में गया, सामने स्टेज पर माँ थी, पिता की मुट्ठियां कसने लगी। मैंने उन कसी हुई मुट्ठियों ने एक रिपोर्ट जबर्दस्ती थमा दी, जिसमे मेरे दोस्त राहुल के पिता ने मेरी भरपूर मदद की।

पिता और मेरी डीएनए रिपोर्ट, पिता ने रिपोर्ट को देखा, मुझे देखा, माँ की तरफ देखा। आंसुओ की धार निकली जिसमें मुझे भिगोने की कोशिश की गई। पर बचपन से माँ के आंसुओ में भीगता मैं अब और गीलापन नहीं चाहता था। मैंने उनका हाथ झटका, खड़ा होकर स्टेज पर परफ़ॉर्म करती माँ के लिए जोरदार तालियां बजाने लगा। माँ भी रो रही थी, पर पहली बार मुझे वो रोते हुए अच्छी लगी। जिस बात के लिए उस रोज़ से मैं पश्चाताप में जल रहा था आज उस निर्णय पर गर्व कर रहा था।

"हाँ माँ तुम्हारी बाँसुरी बजाती हुई वीडियो उस दिन मैंने ही फेसबुक पर डाली थी। वहीं से पिता के सामने तुम्हारे बाँसुरी वादन का रहस्य खुला था।


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