राख

राख

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रामी तेज तेज कदम बढ़ा रही थी..आज उसे खेतो में जल्दी आना पड़ा..बहुत कोशिश की पर प्रकृति की आवाज को कौन रोक सकता है।

भय से हृदय धड़ धड़ कर रहा था, भय जानवरो से ज्यादा इंसानों का..निपट कर, खुद को ढकती छुपाती, इधर उधर नजरें घुमाती हुई घर वापस लौट रही थी।

तभी लगा कोई पास से गुजरा, खुद को बहुत कोसा..इससे तो भाई को साथ ले आती, देर से सोया था तो क्या हुआ..थोड़ी देर और जाग लेता..

आज अपने भाई प्रेम पर भी गुस्सा आ रहा था। सामने दो खेतो के बीच बनी नाली पर कुछ पुरुष लेटे हुए बड़बड़ा रहे थे..

"जाते समय तो ये नहीं थे" वो बड़बड़ाई

वो बुरी तरह डर गई..मन ही मन रोने लगी..आँखों के सामने समाचारों में दिखाई जली लाश घूम गई..

वो तो शहर था..खूब चलती सड़क..खूब रोशनी..और यहाँ..

डर से पैर जम गए.. हिम्मत की, जल्दी से घूमी और लगभग दौड़ पड़ी

अरे चोर.. चोर..देखो तो कौन भाग रहा है ये?सारे पुरुष एक साथ चिल्ला उस तरफ दौड़ पड़े

अंधेरे में ठोकर खाकर गिर पड़ी, तभी उजाला लिए सामने भाई खड़ा था

"भईया.. भईया.."उसे कुछ समझ नहीं आया इस समय क्या कहें, बस भाई की छाती में मुँह दे फफक फफक कर रो पड़ी..

उसने पीछे घूम कर देखा, वो चारो उल्टी दिशा में दौड़ रहे थे..शायद भईया से डर गए, वो मुस्कुरा दी

"ये लालटेन लो, और घर जाओ"

"और आप"?

"मैं भी निपट कर आता हूं"

"अच्छा इसलिए ही आए, मुझे लगा मेरी चिंता में..."

लगभग नाचती, मुस्कुराती घर पहुँची, लालटेन बाहर चबूतरे पर रखी और अंदर गई।

भाई बिस्तर पर लेटा खर्राटे ले रहा था, पसीने से नहा उठी..वापस बाहर की तरफ गई

हल्की उजास में देखा कोई महिला आकृति, हाथ मे लालटेन लिए खेतो की तरफ..दौड़ कर चबुतरे पर पहुँची.. पूरे चबूतरे पर राख बिखरी थी..बदबूदार राख....


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