रौशनी

रौशनी

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रामनाथ बाबू का मन आज सुबह से ही उद्विग्न था।ऑफिस आकर वे चुपचाप अपनी कुर्सी पर बैठ गये थे।किसी से न कुछ बोलते थे, न ही कोई जवाब देते थे।पिउन रामदीन ने प्रणाम किया, तो उन्होंने बस, हल्का-सा सिर हिलाया, रोज की तरह चहकते हुए नहीं पूछा कि कैसे हो रामदीन ? रामदीन भी सोच में पड़ गया कि हमेशा हँसने-बोलने वाले रामनाथ बाबू आज चुप क्यों हैं ? कुछ तो बात है। उनकी चुप्पी ने पूरे ऑफिस को बेचैन कर दिया था।

लंच ब्रेक में मनोहर बाबू, जो उनके सहपाठी थे, उनके पास आए और धीरे से उनके कंधे पर हाथ रखकर उनके पास बैठ गये - "क्या हुआ भाई ? आज तुम इतने उदास, गुमसुम-से क्यों हो ? कुछ बात है, तो बताओ, शायद मैं कुछ मदद कर पाऊँ।"

"तुम क्या मदद कर सकते हो यार ? तुम कुछ नहीं कर सकते।" - रामनाथ बाबू ने दु:खी और उदास स्वर में मनोहर की ओर देखते हुए कहा।

"आखिर बात क्या है....बताओ तो सही।"

"बताने लायक हो तो न बताऊँ यार ? मेरी बेटी कल रात घर छोड़कर चली गयी है....उस परवेज के साथ। शादी कर ली उससे। मैंने मना किया था फिर भी....।"

रामनाथ बाबू ने अपने मन की पीड़ा अपने मित्र के समक्ष रख दी।

"....मैंने बहुत समझाया उसे कि विजातीय लड़का है। मगर उसकी जिद....। कितने नाजों से पाला था मैंने उसे। कभी कोई कमी नहीं होने दी।अभी हाल तक, जब भी मैं उसकी शादी की बात करता था, तो वह कहती थी कि पापा मुझे अपने से अलग मत करना। अभी मुझे पढ़ना है। पहले अपना करियर बनाना है, फिर शादी।और अचानक ये सब....! देखो..! मेरे लिए तो....वो मर चुकी है अब ! बस।"

बोलते - बोलते रामनाथ बाबू की आँँखें आक्रोश और गुस्से से लाल हो गयी थी। "तुम भी न यार, अब तक वही.... दकियाुसी सोच रखते हो।"

"नहीं भाई, यह दकियानुसी सोच की बात नहीं है। परिवार, समाज, परिवेश.....सब कुछ देखना पड़ता है।"

"देखो, अब पहले वाली बात नहीं रही। ज़माना बदल गया है। बदलते समय के साथ, हमें भी अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ेगा। तभी हम नयी पीढ़ी के साथ सामंजस्य बिठा पाएँगे....।"

मनोहर ने रामनाथ बाबू को जमाने की रवायत समझाने की कोशिश की - "....वरना हम ख़ारिज हो जाएँगे, और दुनिया आगे बढ़ जाएगी। तुम लट्ठ पकड़कर बैठे रहना। समझे। "

" हूँ.....।" - मनोहर के कठोर शब्दों को रामनाथ बाबू ने सुना और मनोहर की ओर देखने लगे।

"देखो यार, जाति - पाँति, धर्म, मजहब की दीवारें इंसान - इंसान को अलग करने के लिए हमने ही बनाई हैं।ये हमारे पाँवों की बेड़ियाँ हैं। हमें इन्हें तोड़ना ही होगा.....अगर आगे बढ़ना है तो। तुम्हारे बेटी - दामाद का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा तुम्हारे नाराज रहने से। वे तो प्रेम से अपना जीवन जी लेंगे। मगर उनसे नफरत कर, तुम ही जीवन भर घुटते रहोगे। इसलिए....चलो, उठो, बेटी से बात करो। बच्चों की खुशी में ही हमें अपनी खुशी ढूँढनी चाहिए। अपने हाथों को बाँधे रामनाथ बाबू कुछ देर तक चुप रहे, फिर नाक तक उतर आए अपने चश्मे को ठीक किया और अचानक उठ खड़े हुए - " हाँ...।शायद तुम ठीक कहते हो। " - और मनोहर को गले लगा लिया - " मेरे दोस्त। मेरे यार। तूने मेरी आँखें खोल दीं। तू चलेगा मेरे साथ, मेरे दामाद के यहाँ ? " मनोहर ने रामनाथ बाबू की आँखों में झाँका, उनकी आँखें डबडबा गई थीं और उनकी आवाज थरथरा रही थी....। 

" हाँ भई, क्यों नहीं ? मैं तो कब से बिटिया से मिलने का इंतजार कर रहा हूँ।" - मनोहर ने चहकते हुए कहा।मन के बंद कमरे की सारी खिड़कियाँँ सहसा खुल गयी थीं।प्रदीप्त रोशनी से रामनाथ बाबू का घर - आँगन रोशन हो गया था। अँधेरा छँट चुका था, और वे बड़े सुकून से मनोहर की गाड़ी में अपनी बेटी के घर की ओर जा रहे थे।


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