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Kajal Kumari

Horror Fantasy Thriller

4  

Kajal Kumari

Horror Fantasy Thriller

राऊत कोठी एक जिंदा राज

राऊत कोठी एक जिंदा राज

8 mins
4

*प्रस्तावना — 2018 की एक सच्चाई जैसी रात** हर हॉरर कहानी की शुरुआत कहीं-न-कहीं से होती है, पर इस कहानी की शुरुआत वह नहीं जानता जिसने इसे जिया… बल्कि वह जानता है जिसने इसे खुद **देखा** — और जो आज भी इससे पीछा छुड़ा नहीं पाया। आइए मैं आपको मेरे शहर में एक पुराना, आधा-टूटा, बर्फ़ जैसी चुप्पी में डूबा मकान था… जिसे लोग “**राऊत कोठी**” के नाम से जानते थे। कुछ लोग कहते थे — अंदर *कुछ* है। कोई इंसान नहीं… कोई आत्मा नहीं… कुछ **और**। कुछ… जो **साँस लेता है।** और जिसकी साँसें पास आकर रुक सी जाती हैं। *नमस्ते मैं इस कहानी में शामिल एक व्यक्ति जिसने इसे जिया हैं* मेरा नाम **अनिरुद्ध सिंह** है। मैं क्राइम और पैरानॉर्मल केसों पर काम करता हूँ। रिपोर्ट लिखता हूँ, डॉक्यूमेंट करता हूँ, और कभी-कभी सच्चाइयाँ सामने लाता हूँ जिन्हें कोई छूना भी नहीं चाहता। मैं भूत प्रेत आत्मा जैसी चीजों में यकीन नहीं करता था। लेकिन 2018 की गर्मियों में जो मैंने देखा… उसके बाद नींद आज तक दुश्मनी निभाती है। उस समय मुझे एक कॉल आया था — मेरे कॉलेज के दोस्त “**प्रतीक**” का। उसने बस इतना कहा था— “अनिरुद्ध… राऊत कोठी में कुछ हुआ है। तुम नहीं आए… तो मैं मर जाऊँगा।” उसकी आवाज़ पत्थर जैसी ठंडी थी। मैं उसी शाम निकल पड़ा। **2. राऊत कोठी या एक ठहरी हुई सी मौत** घर तक पहुँचने वाली सड़क पर अजीब सन्नाटा था। जैसे दोनों तरफ़ के पेड़ किसी को रोकने की कोशिश कर रहे हों। राऊत कोठी शहर से 15 किमी दूर जंगलों में थी — एक पुरानी कॉलोनी का आखिरी, सबसे अलग घर। छत आधी टूटी हुई, खिड़कियाँ खामोश, और दीवारें काली पड़ चुकी थीं — जैसे किसी ने आग में भून दिया हो। आस पास के लोग कहते थे — 12 साल पहले इस घर में पूरी राऊत फैमिली मर गई थी। लेकिन मौत कैसे हुई, इसका कोई जवाब आज तक नहीं मिल सका। कोठी के दरवाज़े पर पहुँचकर मैंने आवाज़ लगाई: “प्रतीक…?” अंदर से कोई हल्की **ठक्… ठक्…** की आवाज़ आई। मानो कोई लकड़ी पर उंगलियाँ मार रहा हो। घर में अँधेरा था। मगर अँधेरा स्थिर नहीं… चलता-सा। --- ## **3. प्रतीक का पहला कदम राऊत कोठी में** जैसे ही मैं अंदर गया, मेरे बगल से कोई बहुत तेज़ हवा गुज़री — इतनी ठंडी कि मेरी साँस अटक गई। ऊपर की मंज़िल से कदमों की आवाज़ आई। धीमी… संतुलित… जैसे कोई नंगे पैर चल रहा हो। मैंने टॉर्च जलाई और चढ़ने लगा। सीढ़ियों के आख़िर में, बाएँ वाले कमरे में प्रतीक बैठा था — कोने में सिकुड़ा हुआ। उसका चेहरा सूज चुका था, और आँखें किसी गहरी चीज़ से भरी हुई। “तू इतनी देर से क्यों आया…?” उसकी आवाज़ अजीब थी। बहुत धीमी, जैसे कोई अंदर से बोल रहा हो। “क्या हुआ यहाँ?” मैंने पूछा। उसने काँपते हाथ से दीवार की तरफ़ इशारा किया। दीवार पर कुछ लिखा था— **“यहाँ… अँधेरा भी देखता है।”** लिखावट इंसानी नहीं थी। ऐसी थी जैसे खरोंच से उकेरी गई हो। “प्रतीक, ये किसने लिखा?” वह ज़ोर से काँपा और फुसफुसाया— “ये… **वो** लिखता है।” “कौन?” उसने अचानक साँस रोकी। उसकी आँखें फैल गईं। पलक भी नहीं झपक रही थी। “जो तू देख नहीं रहा… पर वो तुझे देख रहा है।” --- **4. कोठी में हुई पहली अजीब सी हरकत** हवा में एक पल को कोई भारीपन आया। इतना कि छाती पर किसी ने घुटना रख दिया हो। कमरे की ट्यूबलाइट अपने आप टिमटिमाई— फिर जली। फिर बंद। और उसके बाद, लकड़ी के फ़र्श के नीचे से धीमे, गीले कदमों की आवाज़ें उठने लगीं। चप्प… चप्प… चप्प… जैसे कोई ज़मीन के अंदर चल रहा हो। “यह नीचे कौन है?” मैंने आवाज़ लगाई। प्रतीक ने कहा— “नीचे कोई नहीं रहता। वो ऊपर आता है।” उसकी बात पूरी होने से पहले कमरे की ट्यूबलाइट **फूट गई**। अँधेरा छा गया। लेकिन उस अँधेरे में… मुझे किसी के बहुत नज़दीक खड़े होने की हल्की साँसें सुनाई दे रही थीं। मानो कोई मेरी गर्दन पर फूँक मार रहा हो। --- **5. हम तो भाग नहीं पाए** मैंने प्रतीक का हाथ पकड़ा और बाहर की ओर भागा। पर जैसे ही दरवाज़े तक पहुँचे— दरवाज़ा **अपने आप बंद** हो गया। ज़ोर से। ऐसे मानो किसी ने धक्का मारा हो। मैंने ताकत लगाई। नहीं खुला। उसके बाद… सीढ़ियों पर **धीरे-धीरे चलते कदमो की आहट।** ऊपर से नीचे। कदम स्थिर थे। पर एकदम इंसानी नहीं। थोड़े असमान… जैसे किसी के पैर मुड़े हुए हों। टॉर्च फिर जलाई। और मैंने देखा— सीढ़ियों से उतर रहा इंसान नहीं था। वह बस एक **परछाई** थी, पर उसका आकार किसी इंसान जैसा नहीं… किसी जानवर जैसा भी नहीं। जो भी था… वह खुद अंधेरे से बना हुआ लगता था। लेकिन वह **साँस ले रहा था**। मैंने सुना। एक लंबी, भारी साँस। मैंने प्रतीक को झकझोरा— “ये क्या है!?” वह फुसफुसाया— “अंधेरा… जो जीता है।” --- **6. तहखाने का सच** भागने का एक ही रास्ता था — तहखाना, जिसके दूसरी तरफ़ जंगल की तरफ़ जाने वाला एक टूट हुआ बैकडोर था। हम दोनों नीचे भागे। पर जैसे ही हम उतरे… हवा में किसी के दौड़ने की भारी आवाज़। ऊपर से, नीचे आते हुए। कुछ हमारा पीछा कर रहा था। तहखाने का दरवाज़ा खोला — अंदर की हवा तेज़ और बर्फ़ जैसी ठंडी थी। कोनों में कुछ पड़ा था। पहले लगा पत्थर हैं… लेकिन नहीं — वे **नाखूनों से उखड़े हुए कई दीवार के टुकड़े** थे। सैकड़ों खरोंचे। जैसे कोई अंदर बंद हो और बाहर आना चाहता हो। एक कोने में काले कोयले से लिखा था— **“यह घर साँस लेता है।”** प्रतीक घुटनों पर गिर पड़ा। “यही है वो कमरा जहाँ राऊत परिवार… जहाँ…” उसकी आवाज़ टूट गई। मैंने पूछा, “यह घर ऐसा क्यों है?” प्रतीक की आँखों में डर का समंदर था— “घर नहीं… **कोठी के अंदर कुछ तो जिंदा है।** राऊत परिवार उसे शांत करने की कोशिश किया था कभी। उन लोगों ने तांत्रिक क्रियाएं करवाई थीं लेकिन सब असफल हो गया… और वो चीज़ दीवारों में समा गई।” “तो अब वो क्या चाहती है?” उसने धीरे से कहा— “कोई… जो उसकी जगह ले सके।” --- **7. सच्चाई तब शुरू होती है— जब हमने सोचा था अंत है** तहखाने के बैकडोर की तरफ़ भागने लगे। पर तभी… **ठक्… ठक्… ठक्…** ऊपर की मंज़िल से घर के हर कमरे के दरवाज़े एक-एक करके बंद होने लगे। धीमी, भारी आवाज़ के साथ। पूरे घर में एक ही आवाज़ गूँज रही थी — **साँसें।** लंबी… धीमी… भारी। मैंने पहली बार महसूस किया — कोठी का हर कमरा, हर दीवार, मानो धड़क रही थी। हाँ— दीवारें हल्की-हल्की काँप रही थीं। जैसे अंदर कोई बड़ा-सा जीव हिल रहा हो। मैंने बैकडोर खोला — जंगल की तरफ़ अँधेरा फैला हुआ था। हम दौड़े। पर जैसे ही दो कदम बाहर निकाले— कोठी के अंदर से किसी ने मेरी कमीज़ पकड़ ली। उसका कोई हाथ नहीं… वो कोई इंसान नहीं… कुछ था **परछाई जैसा**। मैं छूटकर भागा। प्रतीक भी भाग रहा था। फिर अचानक प्रतीक चीखा— “अनिरुद्ध!!” मैं मुड़ा— और देखा कि कोई काली टेढ़ी आकृति प्रतीक के पैरों को खींच रही थी। वह मिट्टी पर घिसट गया। मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। पर वह आकृति… बहुत ही ज़ोर से खींच रही थी। उसकी उंगलियाँ नहीं थीं, सिर्फ़ काली धुआँ जैसी लटें, जो प्रतीक के पैरों पर लिपटती जा रही थीं। प्रतीक चिल्ला रहा था— “अनिरुद्ध… मुझे मत छोड़ना… प्लीज़… मत—” पर किसी भी इंसान से ज़्यादा ताकत उस काली चीज़ में थी। प्रतीक घिसटता हुआ कोठी के अंदर वापस खींच लिया गया। दरवाज़ा जोर से बंद। और चारों तरफ सिर्फ सन्नाटा। मैं भागकर जंगल में दौड़ गया। लगभग तीन किलोमीटर दूर जाकर रुका। फोन निकाला। कोई नेटवर्क नहीं। फिर अचानक एक मैसेज आया— प्रतीक का। **“ये अब मेरी आवाज़ नहीं है…”** **“दूर मत जाना…”** **“अँधेरा तुम्हें भी बुलाना चाहता है।”** मैं काँप गया। मैसेज 3:07 AM पर भेजा गया था… जब वह कोठी के अंदर खींचा गया था। यानी मैसेज **उसने नहीं**, **उस अंधेरी सी चीज़ ने भेजा था।** सुबह सात बजे पुलिस को फोन किया। जब वे आए, तो मैंने सच कहा। उन्होंने कहा— “अंदर तो कुछ भी नहीं मिला। कोई इंसान नहीं, कोई खून नहीं, कोई शरीर नहीं।” मैं अंदर गया। वाकई… कमरा खाली था। लेकिन दीवार पर लिखा था— *एक गया, एक बाकी। मैंने पुलिस को दिखाया। उन्होंने कहा— “दीवार साफ़ है। आप ठीक तो हैं?” मेरी आँखों के सामने अक्षर थे। उनके लिए कुछ नहीं था वहां। मैं समझ गया — कोठी सिर्फ मुझे दिख रही थी। 10. एक हफ़्ते बाद भी हर रात, 3:07AM पर मेरे फोन में एक मैसेज आता— “घर की साँसें तेज़ हो रही हैं…” या “मैं नहीं हूँ… ये है…” या “तू कब आ रहा है?” मैंने नंबर ट्रेस कराया — लोकेशन हर बार **राऊत कोठी**। प्रतीक कभी नहीं मिला। ना अंश, ना निशान। लोगों ने कहा— “वह घर छोड़कर कहीं चला गया होगा।” पर मैं जानता हूँ— वह कहीं नहीं गया। वह आज भी वहीं है। इस कहानी का अंत नहीं… बल्कि एक आखिरी बात है: पिछली रात मुझे फिर एक मैसेज आया। भीषण ठंड में, मेरे कमरे के कोने में। मैसेज था— “तू बहुत दूर नहीं भाग सकता।” और साथ में एक फोटो। उस फोटो में… प्रतीक सीढ़ियों पर खड़ा था। एकदम काला चेहरा, आँखों की जगह दो गहरी खोहें, और उसके पीछे वही टेढ़ी परछाई। फोटो स्पष्ट थी। तारीख:10 जून **आज** समय: **3:07 AM** और लोकेशन… मेरे घर के बाहर की। आप इस कहानी को पढ़ रहे हैं — लेकिन एक बात **आपसे छुपाई नहीं जा सकती**: यह सब खत्म नहीं हुआ। क्योंकि कल रात… मेरे दरवाज़े पर तीन बार **ठक्… ठक्… ठक्…** हुई। और फिर वही आवाज़ आई— “अनिरुद्ध… अब तेरी बारी है।” दरवाज़े के नीचे से एक काली साँस अंदर आई। अब… मैं भी वैसा ही महसूस कर रहा हूँ जैसा प्रतीक ने किया था— कमरा ठंडा हो रहा है। और अँधेरा… साँस ले रहा है। लेखिका काजल कुमारी पटना बिहार 


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