राजनारायण बोहरे

Inspirational

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राजनारायण बोहरे

Inspirational

राखी का मान

राखी का मान

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ऐतिहासिक कहानी-



बहुत पुरानी बात है। तब दिल्ली में मुगल सम्राट हुमायूं राज्य करते थे। दिल्ली की गद्दी पर जो भी व्यक्ति राज्य करता था, वह पूरे भारत वर्ष का सम्राट माना जाता था। हुमायूं के पिता बाबर ने एक-एक करके देश के अनेक राजाओं को युद्ध में हरा दिया था। दिल्ली सम्राट की ओर हर देशवासी बड़ी आशा भरी नजरों से देखता था, इस आशा को पूरा कराता था हुमायूं का पिता बाबर। लेकिन हुमायूं का वैसा आतंक न था जैसा बाबर का था, इसलिये मौका मिलते ही छोटे राजा और नवाब अपने पढ़ौसी राज्यों पर हमला करके उसे अपने कब्जे में कर लेता था। वे हुमायूं के क्रोध से नहीं डरते थे, व अशांति फैलाते रहते थे। ऐसे ही लोगों मे ंबाज बहादुर नाम का मालवा राज्य का शासक भी एक था।

उन दिनों चित्तौड़गढ़ रियासत पर राणा सांगा का राज्य था। राजस्थान से लगे हुये मालवा राज्य का शासक बाज बहादुर एक साम्राज्य लोभी व्यक्ति था। उसकी नजर चित्तौड़गढ़ के समृद्ध राज्य पर पड़ी तो वह उस राज्य पर कब्जा करने के लिए लालायित हो उठा। उसने अपनी सेना को तैयारी करने का हुकम दे दिया।


मालवा की सेना एक दिन छावनी से निकली और चित्तौड़गढ़ की ओर चल पड़ी। यह खबर चित्तौड़ पहुँची तो राणा सांगा चिंतित हो उठे। क्योंकि मालवा की सेना न केवल बहुत बड़ी थी, बल्कि वह युद्ध करने में इतनी निपुण थी कि युद्ध शुरू होने के कुछ ही क्षणों में मालवा का पलड़ा भारी पड़ जाता था। बाज बहादुर की सेना ने कभी भी हार का मुंह न देखा था। इसलिये इस सेना से सब डरते थे।

राणा की सेना छोटी थी लेकिन उनके सैनिक बड़े पराक्रमी थें। वे न तो किसी से डरतें थे, न ही अपेन देश का अपमान सहन कर पाते थे। राणा सांगा कें राजपूत सैनिक अपनी हार को सामने देखते हुए भी तैयारी में जुट गये। राजा ने अपने मित्र राजाओं को युद्ध में मदद का पत्र भेजा।

बाज बहादुर ने आगे बढ़कर चित्तौड के किले को घेरने का आदेश दिया तो उसकी सेना टिड्डीदल की तरह किले को घेरने के लिए दौड़ पड़ी।

चित्तौड़ की महारानी करूणावती अपने महल में अकेली बैठी सोच विचार कर रहीं थी। उन्हें लग रहा था कि यदि राणा के मित्र राजाओं ने सहयोग न किया तो किले में कैद होकर चित्तौड़ की सेना कुछ ही दिनों में दम तोड़ देगी। भूखे प्यासे मुट्ठभर सैनिक भला कब तक मालवा की शक्तिशाली सेना का मुकाबला कर पायेंगे।


बाज बहादुर से कई गुना ज्यादा ताकतवर तो मुगल सम्राट हुमायूं हैं, लेकिन वे चित्तौड़गढ की मदद क्यों करेंगे ? उनके पिता से तो राणा सांगा हमेशा लड़ाई करते रहे हैं। हुमायूं के अलावा अन्य कोई राजा था भी नहीं ऐसा, जो बाज बहादुर को हरा सके। तो......तो....क्या हुमायूं को निमंत्रण भेजा जाय ? रानी लगातार इसी तरह की ऊहापोह में डूबी हुई बैठी थी। उन्हें लग रहा था कि बाज बहादुर यदि जीत गया तो चित्तौड़गढ़ की स़्ित्रयों की आबरू खतरे में पड़ जायेगी। विजयी सेना के लोग क्या पता किससे क्या व्यवहार करेंगे। रानी को लगा कि इस युद्ध में राणा सांगा नहीं, वे खुद लड़ रही हैं, ओर उनकी इज्जत को बचाने के लिये हुमायूं ठक वैसे ही है जैसा द्रोपदी की लाज बचाने के लिए कृष्ण थे।

करूणावती उठीं और अपने एक खास सेवक को बुलाकर उसके हाथ में राखी का धागा देकर बोलीं कि वह चोरी छुपे निकल जाये और जल्दी से जल्दी मुगल सम्राट हुमायूं को यह राखी दे दें। राखी के साथ सह सिर्फ एक सन्देश उन्हें दें कि आपकी मुंह बोली बहन करूणावती आपसे सहायता मांगती है।

बाज बहादुर ने करूणावती का किला घेर रखा है और आपकी बहन की लाज खतरे में है।


चित्तौड़ से दिल्ली हजारों मील दूर ठहरी। कई घोड़े बदलते हुए रानी का दूत तीन दिन में दिल्ली पहुंच सका। धूल-धूसरित अवस्था में ही वह हुमायूं से मिला। उसके हाथ से राखी लेकर हुमायूं ने जब करूणावती का संदेश सुना तो वे बड़ी सोच में पड़ गये।

बाज बहादुर से उनकी कोई लड़ाई न थी, इसलिये उस पर हमला करना उन्हें उचित नहीं लगता था..... पर रानी करूणावती ने जिस आशा और विश्वास से उन्हें भाई मानकर राखी भेजी थी, उसकी भी तो अवहेलना नहीं की जा सकती थी। हुमायूं समझ नहीं पा रहे थे, कि वे क्या करें। हुमायूं की बेगम ने सम्राट की उदासी का कारण पूंछा तो हुमायूं ने अपेन हाथ में बंधी राखी बताकर करूणावती का संदेश कह सुनाया बेगम का मन पसीज उठा वे सम्राट से बोली कि एक असहाय बहन जब अपने भाई को बुलाये, तो उस भाई को सब कुछ छोड़कर उसके पास जाना चाहिये।

                             

फिर क्या था, हुमायूं ने निर्णय कर लिया कि वे अगले ही दिन चित्तौड़ के लिए कूच करेंगे। शाम को ही मुगल सेना के सेनापति को तैयारी का हुकुम मिल गया तो रातों-रात सेना सजने लगी। बड़ी-बड़ी तोपों की जगह छोटी-छोटी मजबूत तोपें हाथियों के ऊपर बांधने हेतु बाहर निकाल ली गई क्योंकि चित्तौड़ तक जाने मे ही सेना के थकने की आशंका थी, ऐसे में बजनदार तोपें लादे फिरना तो मूर्खता ही होती। हुमायूं ने अपने कुछ खास दूत राजपूताने और दक्खन के शासकों के पास रात में ही रवाना कर दिये जिनके हाथ चित्तौड़ की रक्षा करने का हुकुमनामा भेजा गया था।

सुबह करूणावती के दूत को आगे चलने का आदेश देकर हुमायूं ने अपनी सेना समेत चित्तौड़ के लिए कूच कर दिया।

उधर चित्तौड़ के किले को घेरे खड़ा बाज बहादुर तोप के गोले बरसा कर राणा सांगा को परेशान कर रहा था। उसके सैनिक राणा को चूहा, डरपोकक जैसी    उपाधि देकर भड़कानें का प्रयास कर रहे थे, पर राणा शांत थे।

                             

बाज बहादुर ने किले में पानी बहाकर ले जाने वाली नहर को फोड़ दिया ताकि पानी के अभाव में किले वासी मर जावें या फिर समर्पण के लिये निकल आवें। रानी करूणावती को हुमायूं के पास गये अपने दूत की प्रतीक्षा थी। दूत जब चित्तौड़गढ़ पहुंचा तो भीतर जाने का रास्ता ही न मिला। रानी को जब पानी खत्म होने की खबर लगी तो उसने राजपूत स्त्रीयों के साथ जौहर कर लेने की तैयारी शुरू कर दी। महल के पास लकड़ियेां का पहाड़ खड़ा कर दिया गया, ताकि जरूरत पड़ने पर उसे जलाया जा सके और राजपूतानी जीवित ही उसमें कूद जावें।

                             

जब किले में अन्न-जल की कमी आ गई और भूखों मरने की हालत हो गई तो राणा सांगा ने समर्पण के बजाय लड़ मरने का निश्चय किया। सैनिकों ने केशरिया कपड़े पहने, हथियार सजाये और अपने अपने इष्टदेव की जय बोलते हुए युद्ध के लिए तैयार हो गये। किले के दरवाजे खोलकर राणा और उनके सैनिक बाहर निकले। और अपनी जान हथेली पर रखके युद्ध करने लगे। राणा के सैनिक बड़ी वीरता पूर्वक लड़े, पर बाज बहादुर की अपार सेना के आगे वे कब तक टिकते ? उन्हें पराजित कर जब मालवा की सेना चित्तौड़ में प्रवेश करने लगी तो उसे किला सूना मिला, क्योंकि सभी स्त्रियां तो आत्मदाह कर चुकी थी। यह दृश्य देखकर बाज बहादुर और उसके सैनिकों के दिल दहल उठे।

                             

हुमायूं ने चित्तौड़ पहुँचकर राणा की पराजय का समाचार सुना, तो उन्होंने बाज बहादुर पर हमला कर दिया। कुछ ही देर में चित्तौड़गढ़ मालवा की सेना के हाथ से छीन लिया गया। बाज बहादुर किसी तरह वहाँ से भाग निकला। हुमायूं ने उसके पीछे अपने सैनिक दौड़ा दिये।

                             

राखी का मान पूरा करके हुमायूं को बड़ी शांति मिली पर उन्हें करूणावती  के मरने और अपने समय पर न पहुंच पाने का बहुत दुःख हुआ।

 चित्तौड़ को पुनः राजपूतों को सौंप कर हुमायूं दिल्ली लौट आया।



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