राहुल
राहुल
राहुल बेटे, तुझे बहुत देर हो रही है, तू होटल चला जा। बहुत बड़ा दिन चढ आया है। जा मेरे लाल, मैं ठीक हूँ।
नहीं माँ, मैं तुझे इतने तेज बुखार में छोड़ कर, पहले डॉक्टर को बुला कर लाता हूँ।
ना राहुल, तू काम पर जा। मेरी कल वाली एक गोली अभी पड़ी है। वही ले लूँगी, बुखार उतर जाएगा। तू अपनी नौकरी की फ़िक्र कर। कल भी नहीं गया आज भी नहीं गया तो तेरा मालिक तुझे काम से निकाल देगा।
राहुल की आँखों के आगे मैनेजर और मालिक का चेहरा घूम गया। उनकी गालियों की याद आते ही उसका अंतर्मन अन्दर तक हिल गया। बेमन ही वह उठा। माँ के सिरहाने पानी का कटोरा भर कर रखा। एक रोटी का टुकड़ा बचा था वह भी कपड़े में लपेट कर रख दिया और धीरे धीरे कमरे से बाहर हो गया।
परिस्थितियों ने बारह वर्ष की उम्र में ही राहुल को बचपन में ही प्रोढ़ बना दिया था। जब वह तीन साल का भी नहीं हुआ था उसका पिता मोहन मजदूरी करते हादसे का शिकार हो चल बसा था। तब से माँ ही मेहनत मजदूरी करके उसका और परिवार का पेट भर रही थी।
हालत तो पहले ही अच्छे नहीं थे ऊपर से सर्दी में बिना गरम कपड़ों के बर्तन कपड़े करते करते माँ को निमोनिया हो गया तो भूख और गरीबी ने अपना विकराल रूप दिखा दिया। राहुल की पढ़ाई भी इसी दानव की भेंट चढ़ गई।
होटल में उसे सुबह पांच बजे ही जाना पड़ता है। सुबह से देर शाम तक लोगों के आर्डर लेना, उनके बर्तन उठाना, मांजना उसका काम है। काम खत्म करते करते रात के दस तो बज ही जाते हैं। पर एक हजार रूपये के साथ दोपहर को रोटी और चाय मिल जाती है। इसलिए पिछले तीन महीने से वह होटल न्यू वर्ड में काम करके घर चलाने की कोशिश कर रहा है।
यह सब सोचते सोचते वह होटल के दरवाज़े तक पहुंच गया। सामने ही मालिक धूप में कुर्सी बिछाए बैठा था उसके पैर मानो वहीं जम गए। अन्दर कैसे जाए।
मालिक किसी से बातें करने में व्यस्त था। राहुल ने दबे पाँव अन्दर घुसते हुए हनुमान जी को हाथ जोड़े पर विनती करने से पहले ही मालिक की नज़र उस पर पड़ ही गई -' ओये ! इधर आ, कल कहाँ मर गया था ? और आज तेरा अब आने का टाईम हुआ है ?
उसने अपने भीतर की पूरी ताकत जुटाई - साहब ! माँ को चार दिन से बहुत बुखार है। आँख भी नहीं खोल रही। “
और तू कल सारा दिन उसके सिरहाने बैठा डाक्टरी कर रहा था।
मालिक ने ज़ोरदार ठहाका लगाया था जिसका साथ वहाँ बैठे सभी लोगों ने दिया था।
वह अपने आप में सिकुड़ गया था पर हौसला नहीं छोड़ा था - "साहब दवाई लाने के लिए सौ रूपये चाहिये थे"
अभी दस दिन पहले जो हजार रूपये ले गया था उनसे क्या किया तूने "अभी जुम्मा जुम्मा चार दिन हुए नहीं काम पर लगे और सौ रूपये एडवांस चाहिए। बहाने बनाना कोई इन से सीखे। उसकी आँखों में आँसू आ गए। कुछ कहना चाहता था कि मैनेजर की कड़कती आवाज़ सुनाई दी - "चल बर्तन साफ़ कर जल्दी से। वर्ना किसी और को रख लेंगे और पैसे, वो तो दो तारीख को ही मिलेंगे। समझा "
साथ ही मालिक की आवाज़ - मैं तो जा रहा हूँ। अगर ऐसे ही परेशान करे तो बेशक काम से निकाल देना। ”
बेचारा राहुल !
उसने आस्तीन से आँसू पोंछे। चुपचाप बर्तनों का ढेर साफ़ करने लगा। उसकी आँखों के सामने माँ का पीला पड़ता चेहरा घूम रहा था। माँ शाम को मिलेगी भी या नहीं। उसने सर झटक कर इस विचार को दिमाग से निकालने की कोशिश की और अपने आप को काम में उलझा लिया