पुस्तकालय
पुस्तकालय


असली कातिल
"सर मुझे वेद प्रकाश कि उपन्यास वर्दी वाला गुंडा चाहिए", अमित बोला।
" ओह! आपको सस्पेंस और कत्ल वाली किताबें अच्छी लगती है", राकेश मिश्रा जी बोले।
"हाँ सर, मेरा तो बिजनेस है कपड़े का, पर हर शाम यहाँ आता हूँ, नाॅवेल पढ़ने", अमित बोला।
" मैं एक सेवानिवृत्त पूर्व सरकारी नौकर हूँ, मेरी रूची भी ऐसे उपन्यासों में हैं" राकेश जी बोल पड़े।
दोनों अच्छे मित्र बन गये और रोज पुस्तकालय आने लगे।
दोनो पुस्तकालय के बाहर जाकर इन्हीं सब उपन्यासों के बारे में खूब गप्पे मारते।
इधर कुछ दिनों से अमित पुस्तकालय नहीं आ रहा था। राकेश जी ने कारण जानना चाहा।
पुस्तकालय वाला भी तब तक दोनों कि दोस्ती जान गया था।
राकेश जी पुस्तकालय के मालिक के पास गये और पूछा, "आपको अमित के बारे में कुछ पता है?"
वो बोला, "नहीं पर पुस्तकालय के मेम्बरशिप में उसका पता और फोन नंबर होगा आप कहे तो दूँ।"
राकेश जी ने पता लिया, पहले फोन मिलाये पर कोई उठाया नहीं तो घर जाने कि सोची।
अमित के घर गये तो उसकी माँ ने दरवाज़ा खोला।
राकेश जी ने पूछा, " अमित कहां है ?
तो उसकी माँ रोने लगी बोली, "अमित का एक क़रीबी दोस्त शंकर लापता हो गया है, तो पुलिस ने शक के बिनाह पर उसको गिरफ्तार कर लिया है, क्योंकि उसने उससे फोन पर कुछ रूपये मांगे थे ग़ायब होने वाले दिन, जिसकी रिकार्डिंग पुलिस के पास है।
राकेश जी अमित से मिलने पुलिस थाने जाते हैं तो वो रो के गिड़गड़ाने लगता है, " प्लीज मुझे बचा लो अंकल मैं निर्दोष हूँ।"
राकेश जी पुलिस से सब पता करते हैं, तो पता चलता है इस केस के दो संदिग्ध थे, जिसमें उस रिकार्डिंग के वजह से अमित को दोषी ठहराया था पुलिस ने।
सबसे बड़ी बात ये थी कि पता भी नहीं था खून हुआ है या नहीं इसलिए सिर्फ अपहरण का केस बन रहा था, तो पुलिस अमित पर ज्यादा टार्चर नहीं कर सकती थी।
राकेश जी अमित को ज्यादा जानते भी नहीं थे, पर अमित कि माँ अकेली थी तो वो इस केस में रूची लेने लगे।
उन्होने केस की पुरी फाईल पढ़ी।
उधर जो दूसरा संदिग्ध हितेश था वो अपने और शंकर के काॅमन दोस्त अफरोज से मिला।
अफरोज
ने पूछा, "शराब पीयोगे" ?
तो हितेश ने हां कर दिया।
दोनो बार में चले गये।
"क्या हुआ यार , शंकर का कुछ पता चला", अफरोज ने पूछा।
" हां यार पुलिस ने अमित नाम के लड़के को हिरासत में लिया है", हितेश शराब पीते हुये बोला।
शंकर कि बात छिड़ी तो अफरोज बोला, तुम्हें पता है, शंकर बड़ा आदमी बन गया था।
हितेश ने पूछा, "कैसे, वो तो दारू भी मेरे पैसे से पीता था।"
"अरे एक बड़ा काम मिला था उसे, लाखों रूपये का काम था, देखे नहीं उसके पास एक चाबी रिंग रहती थी नयी", अफरोज बोला।
"हां थी तो एक", हितेश बोला।
"वो चाबी थी उसके घर में पडे़ बैग कि, जिसमें करोड़ रुपये का एडवांस था, उसी ने बताया था", अफरोज बोला।
"ओह अच्छा", हितेश बोला।
"ओके बाय यार अब चलते हैं, घर पर बीवी इंतजार कर रही होगी", अफरोज बोला।
वो आदमी कार से चला जाता है और वो हितेश ऑटो में।
हितेश जाकर एक कब्र खोदने लगता है, उसमें एक कंकाल पड़ा होता है और चाबी रिंग होती है, जैसे वो रिंग उठाने जाता है, पुलिस और राकेश जी बोलते है, "यु आर अन्डर अरेस्ट"।
पुलिस बोलती है हमें शक तुम पर भी था पर तुम्हारे खिलाफ सबूत नहीं था, इसलिए तुम को छोड़ा और ये प्लान बनाया कि तुम गलती करो, लाश हमें अगले दिन ही मिल गया था, ये कंकाल किसी और का है और तुम रंगे हाथों पकड़े गये।"
फिर उसको थाने ले जाते हैं और पूछते है तो हितेश रोते हुये बोलता है, "एक दिन मैं और शंकर पत्ते खेल रहे थे मेरे घर में। मैं हारता जा रहा था, अचानक मैने 5000 दांव पर लगा दिया और वो जीत गया। अचानक किसी का फोन आया उसने पैसे उधार मांगे तो उसने कहा जितने चाहे ले लेना, बहुत है उसके पास आज तो। अब जलन से मैने उस पे पत्ते चोरी का आरोप लगाया और मैने उसको ढकेल दिया, वो सिर में चोट लगने से वहीं मर गया,आनन-फानन में मैंने उसकी लाश को दफना दिया।
तभी अमित की माँ आकर पुलिस को धन्यवाद देती है। पुलिस बोलता है, "धन्यवाद मुझे नहीं राकेश जी को दीजिए, उन्हीं का प्लान था सब।
फिर अमित और राकेश जी पुस्तकालय के ओर जाते हुये "आपने ये सब किया कैसे?, अमित ने पूछा।
राकेश जी ने हँसते हुए कहा ये सब वेदप्रकाश के उपन्यास का कमाल है।
दोनों हँस दिये।