पुनर्विवाह (एक सच्ची कहानी)
पुनर्विवाह (एक सच्ची कहानी)
मैंने अपने ज़िन्दगी के 28 बसन्त तक मौज-मस्ती, सैर-सपाटे, दोस्तों और अपने शौक को पूरे करने में गुजार दिए। बस ज़िन्दगी के हर पल को एन्जॉय कर रहा था और बेफिक्र जी भी रहा था। मेरे दोस्तों का सर्किल भी बड़ा था| आये दिन दोस्तों के साथ बैचलर पार्टी किया करता था। सभी दोस्तों के फैमिली को अपना ही परिवार मानता था। मेरे दोस्त भी मेरे परिवार को अपना परिवार मानते थे, कुल मिलाकर सब ठीक-ठाक था।
एक होली सभी दोस्तों के घर से घूमते-फिरते, एक नए दोस्त के घर गया। वहां दोस्त की मां, भाभी, पत्नी को रंग-गुलाल लगाया। सामने खड़ी एक छोटे से बच्चे को गोद में ली हुई दोस्त की छोटी बहन को भी प्यार से रंग-गुलाल लगा दिया। होली जैसे दिन में भी दोस्त की छोटी बहन बहुत सिंपल और साधारण थी। चेहरा बिल्कुल सफेद था। मैंने सोचा, जानबूझकर रंग नहीं खेलना चाह रही होगी या फिर रंगों से परहेज होगा। मुझे होली में किसी के सादे चेहरे पसन्द नहीं हैं। बस इसी मकसद से रंग और गुलाल से उसके सादे सफेद फेस को रंग दिया।
दोस्त की बहन रोते हुए अपने चेहरे के लगे रंगों को धोने लगी। कई बार साबुन से धुलने के बाद भी चेहरे पर रंग लगी ही थी जो उसकी खूबसूरती को उभार कर उसे बेहद खूबसूरत बना रहा था। मैं भी एकटक उसे देखे जा रहा था, इरादा गलत तो नहीं था मेरा पर वो बहुत खूबसूरत लग रही थी मेरे जरा से रंग लगाने मात्र से ही उम्र भी करीब 21 या 22 की होगी।
फिर क्या, इतने में वहां उपस्थित सारे लोगों के बीच हाहाकार मच गई। दोस्त की दादी, ताई लोग खुसरफुर करने लगी और मुझे डांटने भी लगी कि, "क्यों लगाया एक विधवा और एक बच्चे की मां को रंग?"
'विधवा' शब्द सुनते के साथ होली का सारा उमंग और नशा वहीं टूट गया। मैंने गलती के लिए माफी मांगते हुए कहा, "म... म... माफ कीजियेगा, मुझे सच नहीं पता था। मैंने सोचा लड़की है शायद बहन होगी। आपके बेटे से मेरी कुछ दिन पहले ही दोस्ती हुई, मैं पहली बार आपके घर आया, इसलिए मुझे कुछ नहीं पता।"
माफी मांग कर मैं अपने घर चला आया, फिर दिन से रात तक घर से नहीं निकला। दोस्त की बहन का वो चेहरा, उसके गोद में छोटी सी आठ माह की बच्ची और उसके परिवार के लोगों द्वारा कहे शब्द 'विधवा' मेरे जेहन में घूम रहे थे। होली की रात मैंने कशमकश में गुजारी। सुबह अपने उस नए दोस्त को फोन कर बुलाया और सच्चाई जानकर मुझे सदमे पर सदमे लग रहे थे।
दोस्त का भाई ने बताया, "ग्रेजुएशन करने के बाद बहन के लिए कई रिश्ते आने लगे, मेरे बूढ़े और बीमार दादा जी की ख्वाहिश थी कि अपनी पोती का विवाह देख लूँ। इसी आनन-फानन में कई जगह देखने के बाद एक रिश्ता पसन्द आया और हम लोगों ने योग्य वर देखकर अपनी एकलौती बहन के हाथ पीले कर दिए। ऊपर से सब ठीक था पर अंदर खोखला निकला। नारियल या ककड़ी तो था नहीं जो चिढ़कर देखते। लड़का बहुत भयंकर शराबी और अय्याश निकला। शराब पीकर आये दिन मेरी बहन पर हाथ उठाता था। मेरी बहन ने कभी हम सब को कुछ नहीं बताया। विवाह के महीने भी नहीं गुजरे थे। मेरी बहन को मारपीट कर घर से गाड़ी लेकर अय्याशी करने को निकला ही था कि रास्ते में सड़क दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गयी।
जब हम सब बहन के ससुराल पहुंचे तब वहां मौजूद सारे रिश्तेदार और पड़ोसी ने लड़के की हरकत को बताया था। मेरी बहन की गृहस्थी बसने से पहले उजड़ चुकी थी। हम लोगों ने शादी के 20 दिन बाद बनी विधवा बहन को मायके ले आये। कुछ दिन बाद पता चला कि वो मां बनने को है। हम लोग डॉ के पास लेकर गए पर शरीर मे हीमोग्लोबिन की मात्रा 53% होने के वजह से उसका अबॉर्शन नहीं हो पाया। मजबूरी में उसे बच्चे को जन्म देना पड़ा। पर वो विधवा होकर भी खुश थी। अपने गर्भ में पल रहे नन्ही जान के साथ, क्योंकि मां थी वो। फिर हम लोग ने हमेशा उसका साथ दिया, उसने नौवें महीने में एक बेटी को जन्म दिया। अपनी बेटी को ही अपनी ज़िन्दगी मानती है और बच्चे के सहारे जी रही है।"
दोस्त के मुंह से कहे ये शब्द सुनकर काटो तो खून नहीं के स्थिति में हो गया मैं। हमेशा बिंदास रहने वाला मैं अचानक से गम्भीर हो गया। अब मुझे अपने ऑफिस में भी मन नहीं लगता था। दिन रात दोस्त की बहन की परिकल्पना करने लगा।" इतनी कम उम्र में विधवा ऊपर से एक बच्चे की मां! कैसे कटेगी अकेले उसकी ज़िन्दगी, बच्चे का क्या होगा? वो भी बेटी है? कैसे संभालेगी अपनी ज़िन्दगी में खुद के साथ बेटी का बोझ?" ये सब ख्याल मुझे दोस्त की बहन के बारे में सोचने पर मजबूर करता रहा। समय के साथ ही मैं समझदार, गम्भीर और परिपक्व हो गया। अच्छे-बुरे हर फैसले लेने में सक्षम हो गया।
वक़्त अपनी रफ्तार में बढ़ रहा था। दोस्त की बहन ने भी खुद के साथ अपनी बच्ची को संभालते हुए अपनी आगे की पढ़ाई के साथ जॉब जॉइन कर आगे बढ़ना, परिस्थितियों से लड़ना जारी रखा। मेरे घरवाले भी बहुत रिश्ते खोजने लगे मेरे लिए। पर, मुझे मेरे लिए दोस्त की विधवा बहन से बढ़कर कोई योग्य नहीं लग रही थी। मैं उसे नई ज़िन्दगी देना चाहता था, उसके बच्चे को पिता के नाम पर अपना नाम देना चाहता था। मैंने फैसला कर चुका था उसे अपना बनाने की, अपनी जिन्दगी में लाने की, उसके बेरंग सी जिन्दगी में रंग भरने की।
मैंने पहले अपने दोस्त के पास विवाह का प्रस्ताव रखा फिर उसके घर में| घर में काफी विरोध भी हुआ कि विधवा की शादी नहीं हो सकती। काफी मनाने के बाद मैं अपने दोस्त के घरवालों को मना ही लिया। फिर दोस्त की बहन से भी बात की उसने भी काफी ना-नुकुर की। फिर उसे उसके अंधेरे वर्तमान और संघर्ष भरे भविष्य और बेटी के भविष्य को दिखाया। फिर उसने भी अपने बेटी के भविष्य को देखते हुए मेरे प्रस्ताव को बहुत मुश्किल से स्वीकार कर लिया।
अब मैंने अपने घर वालों को बहुत मुश्किल से मनाया। मेरे घर वाले भी राजी नहीं थे अपने कुँवारे बेटे के लिए विधवा बहु, साथ में एक बच्ची को लाने से। ये सब मेरे लिए बहुत टफ था करना। फिर भी मैंने दो से तीन साल की कोशिश में सब ठीक कर लिया। सिंपल तरीके से मंदिर में हमारा विवाह हुआ| मेरे इधर से लगभग 100 लोग गए जबकि दोस्त के इधर से लगभग 30 लोग ही आये होंगे। विवाह हिन्दू रीति-रिवाज के तहत सम्पन्न हुआ। मैंने उसे मंगलसूत्र पहनाया और उसके मांग में सिंदूर भरा। सिंदूर भरने से उसका चेहरा मेरे सिंदूर के रंग से काफी खूबसूरत हो गया। मुझे सिंदूर लगाने के बाद पहली मुलाकात याद आ गयी। जब मैंने उसके सादे से फेस पर होली का रंग लगाया था। आज मैं फिर से उसके जीवन को अपने सिंदूर के पक्के रंगों से हमेशा के लिए रंग कर उसे अपना बना ही लिया।
हमारी शादी को तीन वर्ष हो गए। हमारा परिवार भी पूरा हो गया। एक बेटी तो वो लेकर ही आयी थी, एक बेटा भी आ गया। हम लोग काफी खुश हैं एक दूसरे के साथ। आज मैं गर्व से कह सकता हूँ वो मेरी पत्नी है, अर्धांगिनी है, मेरे बच्चे की मां है, घर की नींव है, हमारी केयर टेकर है, साथ ही कुशल गृहणी है, अर्थशास्त्र से पीएचडी के साथ ही लेखिका भी है। उसने समय-समय पर अपने हुनर के पंख फैलाकर ऊंची उड़ान भरकर सम्मान पाकर मेरा सर गर्व से हमेशा ऊंचा रखा है।
कभी-कभी मन ही मन गाता हूँ, गुनगुनाता हूँ -ये कहाँ आ गए हम, यूँ ही साथ-साथ चलते, तेरी बांहों में ऐ जानम, मेरे जिस्म-ओ-जां पिघलते।
दोस्तों, ये मेरी वास्तविक कहानी "पुनर्विवाह" कैसी लगी आपको, जरूर बताइएगा।धन्यवाद

