पता नहीं कौन साथ निभाए
पता नहीं कौन साथ निभाए
आभा रसोई में काम कर रही थी। तभी उसे अपने बेटे अमन और बेटी धरा के लड़ने कि आवाज़ें आईं। वह जल्दी से बाहर गयी। उसके जाते ही उसकी दस साल की बेटी धरा बोली "मम्मा अमन ने मेरी बुक ले ली, मैं अपना काम कर रही थी।" तभी आठ साल का अमन बोला मम्मा "दीदी मुझे टी.वी. देखने नहीं दे रही।" आभा ने अमन को डाँटते हुए कहा "अभी तक तूने अपना होमवर्क नहीं करा, ऊपर से धरा को तंग कर रहा है।"
अमन झुंझलाते हुए बोला "अभी कर लूंगा होमवर्क, आप तो हमेशा इसी की साइड लेती हो।" इतने में बच्चों की दादी बोली "ठीक ही तो कह रहा है अमन। तू तो हमेशा धरा कि तरफदारी करती है। तुझे इतना सा समझ नहीं आता, काम तो तेरा बेटा ही तेरे आएगा। बेटी का क्या है, आज यहाँ है, कल कहीं और होगी। फिर वह अमन से बोली "मेरा राजा बेटा, तू मेरे कमरे में चल कर टी.वी. देख ले। अमन जैसे ही जाने को तैयार हुआ, आभा ने उसे डाँटते हुए कहा "जब तक तेरा होमवर्क पूरा नहीं होगा, तू कहीं नहीं जायेगा। आज आभा को बहुत गुस्सा आ रहा था क्योंकि रोज़ ही यह सब होने लगा था। अमन की दादी अमन की ग़लती पर उसे समझाने की बजाए उसे लड़का-लड़का कर के सर पर चढ़ा लेती थी।
आभा ने कहा "मम्मी काम आने न आने की बात तो अभी बहुत दूर की है। आजकल बहुत ही कम घरों में ऐसा होता होगा जहाँ बेटा या बेटी माँ-बाप के काम आते हैं। ज़्यादातर बच्चे पढ़-लिख कर या तो दूसरे शहर में या दूसरे देश में नौकरी करने लगते हैं। माँ-बाप से तो बस कभी-कभी ही मिल पाते हैं। बेटियों की ससुराल अगर मायके के पास भी होती है तो या तो उनके पास भी समय की कमी होती है या ससुराल वालों के या पति के दवाब कि वजह से वह चाहते हुए भी माँ-बाप के लिए कुछ नहीं कर पाती। इसलिए मैं इन दोनों को इस उम्मीद से बड़ा नहीं कर रही कि यह दोनों हमारे काम आयें। मैं और इनके पापा तो बस इन्हे पढ़ा-लिखा कर इनका उज्जवल भविष्य बनाना चाहते हैं। मैं सिर्फ इसलिए, इन दोनों में भेद-भाव नहीं करना चाहती कि अमन काम आएगा। धरा काम नहीं आएगी। मेरे लिए दोनों बराबर हैं। दोनों को पैदा करने में मुझे एक सा ही दर्द सहन करना पड़ा था। मैं अमन के मन में लड़का-लड़की का भेदभाव नहीं भरना चाहती क्योंकि आजकल बहु भी जॉब वाली आती है तो मैं चाहती हूँ की अमन को भी अभी से घर के काम करने की और अनुशासन से रहने की आदत ड़ाल दूँ ताकि इसे बाद में कोई दिक्कत नहीं आये और धरा भी अपने काम ठीक से करें ताकि आगे खुश रहे।"
बहु के मुंह से यह सब सुन कर गायत्री जी को बहुत बुरा लगा। वह बोली "मुझे मत समझा, मैंने तुझसे ज़्यादा दुनिया देखी है। लोग तो बेटे के लिए तरसते हैं और तुझे भगवान ने बेटा दे दिया तो सारा दिन उसके पीछे पड़ी रहती है। अपने ये नए ज़माने के ख्याल अपने तक रख। आज मेरा बेटा ही मेरे काम आ रहा है न। बेटी के घर थोड़ी जा कर रहने लगूंगी और अपने ऊपर पाप लगाऊँगी। तभी पड़ोस में रहने वाले मेहरा जी का नौकर आया और बोला "मालकिन नहीं रही।"
गायत्री जी और आभा जल्दी से तैयार हो कर वहाँ गए। वहां पर अंतिम संस्कार कि तैयारी चल रही थी। गायत्री जी ने मेहरा जी से कहा "इतनी जल्दी आपका बेटा वरुण अमेरिका से कैसे आ पायेगा?" तो वह बोले वरुण ने तो कहा है, अत्यधिक काम की वजह से वह समय पर नहीं पहुँच पायेगा। इसलिए मैंने फैसला किया है की मेरी बेटी शैलजा अपनी मम्मी का अंतिम संस्कार करेगी। क्योंकि जब से उसकी माँ बीमार हुई थी शैलजा और हमारे दामाद जी ने उसकी देख-रेख में कोई कमी नहीं छोड़ी। वरुण तो एक बार भी अपनी मम्मी से मिलने नहीं आया। उसकी मम्मी वरुण-वरुण करते-करते मर गयी। पिछले 6 महीने में वरुण ने फोन भी मुश्किल से 8-10 बार ही किया होगा।" मेहरा जी ने आगे कहा "वो तो शायद शैलजा भी हमारे घर के पास रहती थी तो हमारी मदद कर पायी, नहीं तो पता नहीं क्या होता।
गायत्री जी के पास बोलने को कुछ नहीं था। वह आभा से बोली "तू ठीक कह रही थी, आज के समय में बच्चों को इस उम्मीद से बड़ा नहीं करना चाहिए की वो हमारे काम आयेंगे और बेटा-बेटी में भी कोई फर्क नहीं करना चाहिए क्योंकि वक़्त पड़ने पर पता नहीं कौन साथ निभाए।