पश्चाताप
पश्चाताप
"आप थक गए होगे अब थोड़ी देर गाड़ी मैं चला लेता हूं ,आप पापा के पास आकर बैठ जाओ।" बहुत समय बाद रजत और रमन अपने पिता के साथ गाड़ी में अकेले ही जा रहे थे। दिल्ली की पॉश कॉलोनी में एक दोमंजिला घर, जिसमें कि दोनों भाई ऊपर नीचे रहते थे। हालांकि वर्मा जी ने पूरी कोशिश करी थी कि दोनों भाइयों को सब कुछ बराबर मिले और वह प्रेम से रहें लेकिन फिर भी दोनों की पत्नियों को यही लगता था कि वर्मा जी के पैसे को और उनके पास रखें उनकी स्वर्गीय पत्नी के गहने ना जाने कौन सा भाई हथिया ले। ईर्ष्या और लालच में बंधी हुई दोनों हर छोटी चीज को यहां तक कि घर के भी किसी भी कोने में अपना अधिकार ही जमाती दिखती थी। भाइयों का प्यार भी उनकी इस ईर्ष्या की अग्नि में स्वाहा हो चुका था।
ज्यों ज्यों वर्मा जी की तबीयत बिगड़ती जा रही थी त्यों त्यों सब सक्रिय होते जा रहे थे और यह जानने के इच्छुक थे कि वर्मा जी ने कहां कहां पर क्या क्या रखा हुआ है। यूं भी ऐसी कई कहानियां सुनने में आ रही थी कि बढ़ती उम्र के साथ आदमी सब कुछ भूलने लगता है। कहीं ऐसा ही उनके साथ में भी ना हो वर्मा जी आजकल सब कुछ भूलने ही लगे हैं। अपनी रिटायरमेंट के पैसों का फिक्स डिपॉजिट और अपने लॉकर के बारे में उन्होंने किसी को जानकारी दी भी नहीं थी। दोनों भाइयों के बीच इस कारण बढ़ते तनाव को वह बखूबी समझते थे और वह नहीं चाहते थे कि उनकी मृत्योपरांत दोनों भाइयों का कुछ ऐसा तमाशा हो जो कि दुनिया के लिए दर्शनीय हो।
अपनी दिनों दिन बढ़ती कमजोरी को मद्देनजर रखते हुए उन्होंने एक दिन दोनों बेटों को अपने पास बुलाया और कहा "बेटा मैं अब सब कुछ तुम्हें दिखा कर निश्चिंत होना चाहता हूं। हमें गांव गए काफी साल हो गए हैं एक बार मैं वहां जाकर तुम्हें कुछ दिखाना चाहता हूं।" बिना देर लगाए दोनों बेटों ने उन्हें गांव तक घुमाने की स्वीकृति दे दी। कोई भी दूसरे भाई को अकेला भेज कर पिताजी के गांव में रखें सामान के राज से वंचित नहीं होना चाहता था इसलिए यह फैसला हुआ कि दोनों ही इस शनिवार को गाड़ी लेकर पापा के साथ गांव जाएंगे। हालांकि पूरी रात उन्हें यही उहापोह रही कि गांव में पापा ने ऐसा छोड़ा क्या हुआ है?
पापा को पीछे सीट पर बिठाकर दोनों भाई गाड़ी चला रहे थे। इतने समय बाद तीनों साथ होने पर अपने पुराने समय को याद करते हुए जा रहे थे कि जब पापा मम्मी दोनों थे और वह दोनों कार में पीछे शैतानी करते हुए ऐसे ही घूमा करते थे। गांव पहुंचने तक वह दोनों अपने पापा की परवाह करने वाले और एक दूसरे से प्यार करने वाले प्यारे बच्चे में तब्दील हो उठे थे कि तभी गांव का घर आ गया।
नितांत जर्जर, जाले लगे हुए ,खंडहर अवस्था में उस घर को देखकर रजत और रमन हैरान हो उठे। घर के बाहर सारे में खरपतवार भी उगा आई थी ।टूटे हुए दरवाजे को खोलने में जरा भी जोर नहीं लगा।पापा उसी खंडहर में टूटी कुर्सी पर बैठकर बच्चों के जैसे जोर जोर से रो दिए। उन्होंने अपने दोनों बेटों को बताया कि "इसी गांव में तुम्हारे जैसे हम दोनों भाई भी अपने माता-पिता के साथ रहते थे। हमारी बहुत सी खेती की जमीन भी थी। शादी के बाद तुम्हारी मां और चाची में भी तुम दोनों की पत्नियों के जैसे ही लड़ाई रहती थी। जब सरकार द्वारा भूमि एक्वायर होने का अंदेशा आया तो मैंने अपने पिता से उस भूमि को अपने नाम करवा लिया और छोटे भाई को यह घर दिलवा दिया था। भूमि एक्वायर होने के बाद जब चेक मेरे नाम आया तो मैं उसे लेकर दिल्ली में आ गया और वहीं घर लेकर रहने लगा। अपनी तरफ से यह मेरे द्वारा की गई सबसे बड़ी समझदारी थी। मेरे बाद छोटा भाई भी अपनी पत्नी के साथ उसकी बहन के पति जो कि दुबई में रहकर व्यापार करते थे ,उनके पास चला गया और गुस्से में आकर उसने अपना पता भी किसी को नहीं बताया।
मुझे दिल्ली में सरकारी नौकरी मिल गई थी। उधर गांव में माता पिता अकेले और असहाय अवस्था में आ गए थे। छोटे भाई के देश छोड़कर जाने का कारण भी वह मुझे ही मानते थे इसलिए वह दोनों कभी मेरे पास भी नहीं आए। तुम्हारी तरह जवानी के नशे में चूर हम दोनों पति पत्नी भी अपने तर्क लेकर अपने आप को निर्दोष ही मानते थे। सुनने में आया था कि दुबई से छोटा भाई पिताजी के पास पैसे भेजता है, लेकिन वह फिर कभी उनसे मिलने के लिए नहीं आया। मां के अत्यंत बीमार होने पर मैं जब गांव आया तो मां की आंखें सिर्फ छोटे भाई को और उसके परिवार को ही ढूंढ रही थीं। उनकी नजरों में मैं गुनहगार ही था।
मां की मृत्यु के बाद मैंने बहुत कोशिश करी कि बाबूजी मेरे पास आ जाएं लेकिन वह कभी नहीं आए। छोटा भाई उनकी मृत्यु पर भी घर नहीं आया था। सारे संस्कार करते हुए मैं बेहद अकेला पड़ गया था। शायद ऐसा ही कोई दुख तुम्हारी मम्मी भी अपने दिल में ले बैठी थी जोकि उसके कैंसर का कारण बना।
आज बाबूजी की जगह में मैं बैठा हूं। ना तो मैं अपने आप को माफ कर पाता हूं और ना ही बाबूजी और मां की घूरती नजरों से अपने आप को बचा पाता हूं। मुझे क्या मिला यह तो सबको दिख रहा है ,लेकिन मैंने क्या खोया तुम यह जान जाओ तो शायद मेरी आत्मग्लानि कुछ कम हो जाए। यह खंडहर घर आज भी यही है। ना इसे मैं बेच सकता और ना ही इसे संवार सकता हूं। पुरानी यादें मुझे पागल करे दे रही है। आज जब तुम्हारी मां भी नहीं है तो मैं खुद को बहुत अकेला महसूस करता हूं। परमात्मा ना करें अपने लालच के वशीभूत तुम्हें भी कभी ऐसा दिन देखना पड़े।
मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूंगा कि तुम दोनों को सब कुछ बराबर मिले लेकिन अगर कहीं कुछ कम ज्यादा भी हो जाए तो प्यारे बच्चों एक दूसरे के प्रति अपने प्यार में कमी ना लाना।" बाबूजी शून्य में अपनी यादों में खोए उस खंडहर घर के हर कोने को निहार रहे थे। तभी सामने वाले घर से चाचा जी और चचेरे भाई सतीश का आना हुआ और मैं बैठने के लिए कुछ कुर्सियां भी लाए थे। चचेरा भाई सतीश हम लोगों के लिए चाय भी बना कर लाया था।पापा के पैर छूकर उसने हम सब से अपने घर आने का अनुरोध किया। उन्होंने ही बताया कि हमारे चाचा जी भी बाबू जी की मृत्यु के बाद दुबई से एक बार गांव आए थे।
पापा अभी भी शून्य में ही निहार रहे थे। रजत और रमन ने उन्हें प्यार से उठाया और कहा चलो पापा घर चलो सब ठीक हो जाएगा। सतीश से पूछ कर उन्होंने चाचा जी के बारे में जानने की कोशिश करी, और मन ही मन दोनों यह प्रण भी कर रहे थे कि हो सका तो पापा को और चाचा जी को एक बार जरुर मिलवाएंगे।
