प्रतिशोध या क्षमा
प्रतिशोध या क्षमा
एक बार गांव के जमींदार ने अपने नौकर को ज़रा सी बात पर बहुत अपमानित किया। गरीब भले ही था वो पर स्वाभिमान और ईमानदार था। एक गुलदान टूट जाने पर इतना अपमान,वो भी घर पर आए जमींदार के मेहमानों के सामने। इससे वो बहुत आहत हुआ। वो प्रति शोध की ज्वाला से भर उठा। अब हर समय वो कोई न कोई उपाय सोचने लगा कि कब मौका मिले और वो अपने अपमान का प्रतिशोध ले सके । उन्हीं दिनों गांव में एक पहुंचे हुए साधु आए थे और संध्या काल को गांव वालों को ज्ञान से परिचित कराते। नौकर भी शाम को वहां जाकर ज्ञान सुनता।जमींदार के परिवार वाले कुछ दिनों के लिए बाहर गये हुए थे ।शाम होते-होते जमींदार की तबीयत थोड़ी नासाज़ हो गई। नौकर को उसने रात घर पर ही रूकने के लिए कहा। खाना बनाते समय उसके मन में विचार आया कि "खाने में ही कुछ मिला कर यदि आज उसे खिला दूं,तो मेरा प्रतिशोध पूरा हो जाएगा "। खाना परोसते समय उसे साधु के वाक्य याद आ गये कि क्षमा करने वाला महान होता है। मनुष्य को क्षमाशील होना चाहिए। बस उसका मन परिवर्तित हो गया ।
उसने खाना उन्हें खाना खिलाया, और रात को भी बीच बीच में उठकर उन्हें दवा भी दी।सुबह जमींदार काफ़ी अच्छा महसूस कर रहा था, नौकर के रात भर उनकी देखभाल करने के कारण और उसके व्यवहार से जमींदार को अपने कठोर व्यवहार पर आज पहली बार शर्मिंदगी महसूस हुई। उसने नौकर को बुलाकर माफ़ी मांगी। नौकर को साधु के ज्ञान पर पूर्णतः विश्वास हो गया था। ईश्वर को उसने मन ही मन धन्यवाद दिया जिसने साधु के माध्यम से उसे गलत रस्ते पर चलने से बचा लिया था।