पढ़े लिखे अनपढ़
पढ़े लिखे अनपढ़
दादाजी के गांव से आते ही बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं रहता और गरिमा गुमसुम हो परेशान हो जाती। मगर कुछ कर भी नहीं सकती थी। उसकी मजबूरी थी कि वो माँ-पिताजी को गांव से बुला अपने पास रखे। उसकी नौकरी ही कुछ ऐसी थी कि वो बच्चों पर समय नहीं दे पाती। हालांकि उसने बहुत अच्छी गवर्नेस रखा था। उसकी हिंदी और इंग्लिश का ज्ञान और उच्चारण दोनों ही उसे बहुत पसंद था। इसी उच्चारण के कारण ही तो उसे माँ-बाबूजी का आना पसंद नहीं आता था। माँ हमेशा भोजपुरी ही बोलती थी। पिताजी नौकरी करते थे, पढ़े लिखे थे फिर भी वो कभी भी माँ को सही तरह से बोलना नहीं सिखा पाए। और तो और माँ के साथ खुद भी भोजपुरी में ही बातें करते। ये सब देख उसका मन खराब हो जाता।
गरिमा का बचपन पटना में बीता। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ी थी। उसकी मम्मी इंग्लिश की लेक्चर थी और पापा उच्च पदस्थ ऑफिसर। राहुल आई आई टी खड़कपुर से इंजीनियरिंग कर वहीं से MS किया और फिर भाभा इंस्टीटूट में रिसर्च कर रहा था। गरिमा भी वहीं थी। दोनों की दोस्ती हुई और दोस्ती शादी के बंधन में बंध गई।
अब दोनों पति पत्नी वैज्ञानिक थे। अपने रिसर्च में उन्हें समय कहाँ था कि बच्चों को देखें अतः हार कर माँ-बाबूजी को बुलाना पड़ता। उसे हमेशा डर रहता था कि बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाना बेकार न हो जाए। जब बच्चे दादी से भोजपुरी में बातें करते तो वो नाराज हो अकसर उन्हें डाँट भी देती। उसे लगता यदि टोन सही नहीं रहेगा तो फिर कोई उपाय नहीं और बच्चे जब घर में भोजपुरी बोलेंगे तो हिंदी में भी भोजपुरी टोन आ ही जाएगा। वो अकसर उनकी गवर्नेस को कहती कि बच्चों पर ध्यान रखे, उन्हें अपने ही पास रखे। बच्चे ज्यादा माँ-बाबूजी के पास रहेंगे तो उन्हें परेशानी होगी।
गरिमा की हरकतों पर सासू माँ को हंसी आती। वो भी पता न किस मिट्टी की बनी थी कि कभी उसपर नाराज नहीं होती या कुछ भी ऐसा वैसा नहीं बोलती। धीरे-धीरे बच्चे बड़े हो गए। दादा-दादी का प्यार उनके दिल मे बढ़ता गया। उनकी देख रेख में बच्चे पढ़ाई में अव्वल रहे। बेटी नेही डॉक्टर और बेटा नवल आई एफ एस बन गया। नवल तो अब ज्यादा तर विदेश ही रह रहा था पर नेही एम एस कर वहीं एक हॉस्पिटल में कार्यरत हो गई ।
एक दिन गरिमा अपने कमरे में सो रही थी नेही जल्द ही हॉस्पिटल से आ गई थी। वो अपनी दादी से भोजपुरी में बातें करते करते हॉस्पिटल में एक देशी अंग्रेज अर्थात अपने को इंग्लिश बोल रोब जमाने वाले युवक की कहानी दादी को उसकी ही बोली इंग्लिश में दुहरा कर बताने लगी। दादी भी हँस कर लोटपोट हो रही थी। गरिमा से जब नहीं रह गया तो उठ कर इस कमरे में आ गई इस आश्चर्य से की माँ को तो अंग्रेजी क्या ठीक से हिंदी भी बोलने नहीं आती तो ये नेही की बात बिना समझे ही हँस रही हैं क्या।
वहाँ पहुँच कर तो उसकी आँखें फैल गई माँ तो नेही से इंग्लिश में बात भी कर रही थी। गरिमा शर्माते हुए थोड़ी देर बैठी फिर कमरे में आ गई। उसे नेही का इंतजार था। नेही से बातें कर वह दंग रह गई कि माँ अपने पोता-पोती की अच्छी परवरिश के लिए न केवल पढ़ना सीखी इंग्लिश भी सीखी। क्योंकि उन्हें महसूस हो रहा था कि गवर्नेस बच्चों को उनके संस्कार से अलग कर रही थी। वो इंग्लिश में जब कुछ-कुछ बोलती और बच्चों की हरकत उनके नजर में गलत होती तो उन्हें आभास होने लगा कि कुछ गलत हो रहा है। उन्होंने पति का सहारा लिया। ज्यादातर पुरुष को घर गृहस्थी की बातों में दिलचस्पी नहीं रहती। पर बच्चों की खातिर उन्होंने पत्नी का साथ दिया। पर माँ को इतना से चैन नहीं हुआ तो वो नेही से कहने लगी कि वो उसकी टीचर बने। नेही के साथ रह कर उन्होंने इंग्लिश बोलना सीखा। अब वो इंग्लिश अच्छी तरह बोलती और समझती थी। यही कारण था कि समय रहते बच्चे बड़े हो गए अब उन्हें गवर्नेस की जरूरत नहीं कह कर दादी ने बच्चों को उस गवर्नेस के साया से दूर किया।
आज गरिमा को अपने पढ़े-लिखे होने पर खुशी नहीं दुःख हो रहा था कि घर में इतनी घटना घटी और वह अपने रिसर्च की दुनिया में ऐसा खोई रही कि घर में बच्चों के साथ हो रहे रिसर्च का उसे आभास भी नहीं हुआ। बच्चों की योग्यता में अपनी काबिलियत ही समझती रही। बच्चों की परवरिश में माँ की भूमिका को नहीं समझ पाई। बच्चों की अच्छी परवरिश की गवाही उनकी योग्यता और उनके अच्छे व्यवहार बताते थे।
नेहा को इस बार एक सहृदय डॉक्टर की उपाधि से नवाजा गया। नेही अपनी मम्मी से पहले अपनी दादीमाँ के पाँव छुए और उन्हें भी स्टेज पर बुला कर सबके सामने अपनी अच्छी दादी माँ से भोजपुरी में बातें कर उनहें सम्मानित किया।
आज सच्चे वट वृक्ष को देख गरिमा की भी आँखे भर आई और वो भी बूढ़ी सासुमाँ के गले लग गई।