प्रायश्चित

प्रायश्चित

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"कुछ भी कर ले आज इस चाय-पार्टी से काम नहीं चलने वाला .. आज तो हम सेलेब्रेट करके ही रहेंगे। मैंने पार्टी का सारा इंतज़ाम कर रखा है ..तेरी तरह मुँह लटका कर सूखी चाय नहीं पीनी मुझे .. पता भी है तुझे ? यह तेरा तीसरा वीरता पुरस्कार है।"

कप में चाय डालते हुए मेजर कुणाल को मेजर सौरभ ने कहा।

"यार एक बात बता जब तू दुश्मन को देखता है तो तुझमें इतना बल व साहस कहाँ से आ जाता है ? 

हमें तो ऐसा लगता है जैसे साक्षात यमराज ही दुश्मनों को लेने को पधारे हों।" 

"ले चाय पी, छोड़ इन सब को।" बुझे मन से कुणाल ने कहा।

"आज कोई चाय वाय नहीं पी जाएगी केवल पार्टी होगी पार्टी सर।" हवलदार बसन्त सिंह ने एक कार्टन के साथ अंदर प्रवेश करते हुए कहा।

जैसे ही हिप्प हिप्प हुर्रे के साथ सब सैनिकों ने अपने जाम एक साथ टकराये तब तक मेजर कुणाल दो जाम खाली कर चुके थे।

अब पूरी बोतल उनके हाथ में थी।

चारों तरफ उसे एक ही आवाज़ सुनाई दे रही थी, " देखो, देशद्रोही का पोता जा रहा है।" 

"नही.नहीँ..नहीं ! मैं देशद्रोही नहीं हूँ .. अब और सहन नहीं होता मुझसे यह बोझ।" 

एक सन्नाटा .. जैसे हवा ने भी गति समेट ली हो।

सबके हाथों के छलकते हुए जाम इस सच्चाई की ठंड में जम चुके थे।


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