पंख
पंख


बहुत खुश था मेरा दिल
पिंजरे में बंद पंछी
आज आज़ाद होंगे
मैं देख सकूँगा उन्हें
खुले आसमान में
पंख फैलाए
बादलों से बातें करते हुए
पर यह मेरी सोच थी
पिंजरे का दरवाज़ा खुलते ही
पंछी डर गए
जब उन्हें
आसमान की ओर
उड़ाने का प्रयास किया
वो धप से ज़मीन पर गिर गये
उन पंछियों के पास
उड़ने के पंख थे तो
पर अफसोस वो उड़ना भूल
गए थे
पर आज भी कितने
आकर्षक थे
उनके पंख,
गिरने के बाद वो
ज़मीन पर दौड़ने लगे
रेंगने लगे
मेरी आँखें न जाने क्यों
पर नम थी
उस क्षण कुछ
चुभ रहा था
मेरे मन को ,
मुझे तुम याद आ रही थी जो
जमाने की कुरीतियों को भुला
कर इस तेज़ रफ्तार
ज़माने के साथ चल रही थी
तुम्हारी प्रतिभाएँ
तुम्हें बहुत ऊँचा बनाती ज
ा रही थी
आसपास के ऊँचे लोग
बौने होने लगे थे पर दूसरी ओर
मुझे देश की कुरीतियों में फंसी
सभी बेटियाँ याद आ रही थी
कितनी बार उनके पंख भी तो
नोचे होंगे अपनों ने,
कितनी बार उन्हें फेका होगा
अंधेरे रास्तों पर के तुम कभी
ऊँची न हो जाओ उनसे,
वो सभी इतनी बेड़ियों
के बाद भी ऊँची उठती गयी
घायल और ज़ख़्मी
पंखों के संग
वो सब कब तक उड़ती
असह पीड़ा कब तक सहती
खुद ही
अपने पंख काट
वो सब मुस्कुरा दी,
उन्होंने कहा था मुझसे
वक्त आने पर
हम फिर उड़ेंगे
पर आज मैं सोचता हूँ
गर तुम भी
उड़ना भूल गयी
उन सभी पंछियों की तरह
तो मात्र शक्ति का क्या होगा
इस पर टिके हमारे
इतिहास क्या होगा
कुछ ऐसी थी
वो लड़की जो दुनिया में
होते हुए भी वह नहीं है
जिसकी किसी को
जरूरत नहीं है ।