हाँ, वो एक बेटी थी
हाँ, वो एक बेटी थी


ये दुखद वाक्य मैंने खुद अपनी आँखों से देखा है वो बहुत छोटी थी, लोग हैवान थे पर उसका गोना 18 साल की उम्र में होगा पर फिर भी मुझे वो पल बेवकूफाना लगा।
हाँ वो बेटी थी। सब कुछ सहती थी पर चुप रहती थी। पाखंडो का बड़ा समंदर था। उम्र 14 थी, पैर में पाज़ेब, माँग में सिंदूर, मन में बेचैनी थी। उसकी चमकती आँखें शांत रहकर बेतहाशा सपनों को संजोये थी। हाँ वो बेटी थी, सब कुछ सहती थी पर चुप रहती थी। उसकी जिंदगी एक, सपने अनेक, पैरों में बेड़िया, हाथ जख्मी थे, आसमाँ खुला था, सपने ऊँचे थे। वो उड़ना चाहती थी पर उसकी ही जंजीरें भारी थी। कब तक उनका बोझ सहती। वो बेटी थी, उसने खुद को खुद में मार दिया और गुम हो गयी।
इस धुंधली सी दुनिया में, जहाँ सब होते हुए भी वो मिट्टी की मूरत थी। हाँ वो बेटी थ
ी, सब कुछ सहती थी पर चुप रहती थी। वो बहुत छोटी थी। मुझे रोना आ रहा था पर में ये ही सोच रहा हूँ यदि वो खुद में खुद को नहीं पहचानेगी तो इस धुंधली सी दुनिया में मातृशक्ति, अपनी शक्ति को कैसे जानेगी। फिर ना पैदा हो पाएगी कोई कल्पना जो आसमाँ को देख कर खुद अपना जुनून जगा लेगी। पाखंडों के समंदर में पैर रखे बिना चाँद को (अपने सपने) को पालेगी, पर मैं खुश हूँ। एक ऋतु जो इन पाखंडी दुनिया मे होते हुए भी बहुत आगे थी, वो साल की उन सभी ऋतुओं की तरह थी जिसमें उनके बिना न गर्मी थी ना सर्दी, वो मेरी ऋतु थी, उसकी उड़ान ऊँची थी, पाखंडों की हस्ती भारी थी जो कभी उसे पकड़ ही नहीं पाए।
वो उड़ती गयी, उड़ती गयी उन सबकी नजरों, जंजीरों और रिवाजों के परे अपने सपनों को संजोये, एक नई पहचान लिए वो उड़ती गयी।