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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Abstract Classics Inspirational

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Abstract Classics Inspirational

पिकनिक

पिकनिक

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सावन का महीना हो। रिमझिम फुहारों का मौसम हो। धरती ने हरी हरी चादर ओढ़ी हो। नदी झरने मीठे मीठे सुर सजाकर तान छेड़ रहे हों , तो ऐसे में कोई खुद को रोक भी कैसे सकता है। ऐसे मौसम में प्रकृति एक महबूबा की तरह सजी संवरी नजर आती हो जिसकी गोदी में सिर रखकर लेटने की इच्छा होती है। तो आखिर हम इस सुनहरे मौसम की नशीली नजर से कब तक बचते ? नशा सा छाने लगा था उसके शराबी अक्स का। ज्यादा दिन तक दूर नहीं रह सकते थे हम। हमने भी निश्चय कर लिया कि दूर किनारे पर खड़े खड़े कब तक अपनी "महबूबा" को यूं निहारते रहेंगे ? वो अपनी बांहे खोलकर हमें बुला रही है और हम इतने कठोर भी नहीं हैं। 

आखिर हमने हमारे मित्र के साथ पिकनिक का कार्यक्रम बना ही लिया। झरनों के दीवाने हैं हम। कोटा में कई साल रहे थे और वहां पर झरनों की श्रंखला है। एक से बढ़कर एक। सबसे बढ़िया बूंदी का रामेश्वर और कोटा का गैपरनाथ झरना लगा था हमें। जब तक वहां रहे , खूब आनंद लिया इनका। पिछले आठ वर्षों से जयपुर में रह रहे हैं। जयपुर को झरने कहां नसीब होते हैं। यहां तो बालू रेत है। कोई जमाने में सामोद जरूर पिकनिक स्पॉट हुआ करता था। सन 1990 के आसपास हम लोग यहां आये थे जब मैं राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय कोटपुतली में प्रोफेसर था। उसके बाद तो बारिश भी काफी कम हो गई यहां पर। अब जयपुर में कोई झरने नहीं हैं। 

करीब तीन चार साल पहले हम लोग रणथंभौर चले गए थे प्रकृति मां की गोद में। वहां पर अमरेश्वर और सीता माता झरना काफी प्रसिद्ध है। कुछ और झरने भी हैं वहां पर। इसलिए एक बार तो प्रोग्राम रणथंभौर का ही बना रहे थे लेकिन कुछ नया करने की ललक हमेशा ही रही है। इसलिए कोई दूसरी जगह तलाश करने में जुट गए। 

कहते हैं कि कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। आखिर वह जगह मिल भी गई। टोंक जिले के भरनी गांव के पास मोती सागर डैम का पता चला। वह भर चुका था और उसमें "ऊफरां" चलने लगी थी। ऊफरां मतलब पानी बांध के ऊपर से बहने लगे तो वह ऊफरां कहलाता है। हमने उसका वीडियो भी मंगवा लिया था। उसे देखने के बाद वहां जाने का इरादा पक्का हो गया। 

एक तो लॉकडाउन की त्रासदी और दूसरे प्रकृति रूपी दुल्हन से मिलने की ललक। फटाफट प्रोग्राम बन गया। पिछले रविवार यानी 8 अगस्त को पिकनिक का प्रोग्राम बन गया। हमारे मित्र इस काम की व्यवस्था करने में माहिर हैं। आनन फानन में दो तीन ग्रुप में यह सूचना डाली तो लोगों का अच्छा रेस्पॉन्स मिला। एक बस की सवारी तैयार हो गई। हमने भी हमारे कुछ मित्रों से बातचीत की तो दो बसों की सवारी हो गई। फाइनली दो बस और एक टैम्पो ट्रैवलर की सवारियां हो गई। कुल क्षमता 110 थी जिसमें हम लोग 108 हो गए थे। माला के 108 मनकों की तरह। 

हर व्यक्ति को पहले से ही सीट अलॉट कर दी गई जिससे सीट को लेकर कोई हो हल्ला ना हो। सुबह आठ बजे हम सब लोग पिकनिक के लिए रवाना हो गए। 

जिस बस में हम लोग सवार थे उसमें हम लोग पोर्टेबल केराओके लेकर गये थे। दो माइक थे उसमें। एक आगे वालों के पास और एक पीछे वालों के पास। परिचय सत्र में ही खूब मज़ा आया। गानों का कार्यक्रम खूब चला। 

इतने में शिवाड़ आ गया। शिवाड़ सवाई माधोपुर जिले में है और निवाई के पास भी है। मैं सवाई माधोपुर और टोंक दोनों ही जिलों में अतिरिक्त कलक्टर रह चुका था इसलिए शिवाड़ पहले कई बार जा चुका था। कहते हैं कि यहां पर द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक "घुश्मेश्वर" महादेव जी विराजमान हैं। मगर साहित्य कुछ और कहता है। खैर , ये विवाद का विषय नहीं है। 

वहां पर शिवलिंग के दर्शन करके , अभिषेक करके राजस्थान का "चूरमा बाटी दाल" की प्रसादी लेने के लिए पंगत में बैठ गए। वैसे एक बात कहूं , बूफे में खाना तो हम लोग खा लेते हैं पर मुझे उसमें "भिखारी" की फीलिंग्स आती है। प्लेट हाथ में लेकर भिखारियों की तरह लाइन में खड़े रहो। धक्का मुक्की करते रहो। और यहां पंगत में। ठाठ से खाना खाओ , राजाओं की तरह। मनुहार के साथ। भई वाह ! हम तो मनुहार के कच्चे हैं वैसे भी। प्रेम से कुछ भी करवा लो हमसे। वैसे नहीं। तो हमने प्रसादी ली फिर हम भी "परोसगारी" में लग गए। 

दोपहर को ठीक बारह बजे यहां से रवाना हुए। बस में मस्ती करते हुए जा रहे थे। सड़क के दोनों ओर सारे खेत पानी में डूबे पड़े थे। इतनी शानदार बरसात हुई थी कि खेत ही तालाब जैसे लग रहे थे। मौसम भी सुहाना था। धूप भी तेज नहीं थी और बीच बीच में बादल भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे थे। 

ठीक दो बजे मोतीसागर डैम पहुंच गए। वहां पर भीड़ का जो रैला देखा तो आंखें चौंधिया गई एकदम। हजार डेढ़ हजार की भीड़ रही होगी वहां पर। काफी लोग "डैम रूपी झरने" का आनंद ले चुके थे और अब भुट्टे , जलेबी , पकौड़ों के साथ गर्म चाय की चुस्कियों का आनंद ले रहे थे। बहुत सारे लोग कपड़े बदल रहे थे। करीब पांच सौ लोग झरनों के नीचे बैठकर "स्वर्ग" का आनंद ले रहे थे। बाकी लोग उनको आनंद लेते हुए देख रहे थे। 

पूरे भारत की झांकी नजर आ रही थीं वहां पर। हिन्दू , मुसलमान , सिख सभी थे। तथाकथित ऊंची जाति , नीची जाति , अमीर , गरीब , शहरी , ग्रामीण , पुरुष , स्त्री सब तरह के लोग थे। बच्चे , बूढ़े , नौजवान सब। पानी में उतरे लोग कोरोना पॉजिटिव थे या नहीं , कौन जानता था ? 

उस दृश्य को देखकर एक बार तो मन में आया कि हम गलत जगह पर आ गए हैं। हमारे मस्तिष्क में यह बात आई ही नहीं कि रविवार होने के कारण भीड़ का रैला मिलेगा वहां पर। सब लोग असमंजस में दिखे। क्या करें ? अंदर घुसें या नहीं ? 

"सोचना क्या जो भी होगा देखा जायेगा" गीत की पंक्तियां याद आ गई और हमने कपड़े बदल लिए। हमारी देखा देखी और लोगों ने भी हिम्मत दिखाई। हमें तैरना तो आता नहीं इसलिए हम पानी में बहुत सावधानी बरतते हैं। गरदन से अधिक गहरे पानी में हम नहीं जाते। हम झरने के नीचे जाना चाहते थे लेकिन भीड़ बहुत थी। बांध की पाल अलग अलग बंधी थी। पहली तीन पालों पर भीड़ बहुत थी इसलिए हम चौथी पाल पर जाना चाहते थे। वहां तक जाने के लिए करीब तीन चार फुट की ऊंची दीवार बीच में थी। एक बार तो लगा कि इसे कैसे पार करेंगे ? लेकिन हमें बचपन याद आया। अच्छी अच्छी दीवारों को फांद चुके हैं हम फिर यह छोटी सी दीवार क्या चीज़ है ? और बस, एक छलांग लगाई और दीवार पर ! बस, घुटने पर सारा वजन आ जाने से वहां थोड़ी चोट लग गई मगर , सफल हो गए दीवार फांदने में। बस, अगले ही पल झरने के नीचे। 

मजा आ गया झरने के नीचे जाकर। एक तो शीतल जल और उस पर सीधा सिर पर। तड़ातड़ की मधुर ध्वनि का शंखनाद होने लगा सिर पर। जैसे कोई मसाज कर रहा हो। एक घंटे तक खूब आनंद लिया झरने का। फिर बाहर आकर कपड़े बदल लिए। 

धीरे धीरे सभी लोग बाहर आ गए। कुछ लोग चाय पीने बैठ गए। ठीक पांच बजे बस रवाना हुई। छः बजे "हरे कृष्ण गांव" में पहुंचे और भगवान जी के दर्शन किए। वहां पर एक शानदार गौशाला है। उसमें गायों को गुड़ खिलाया। हमने भी रात्रि का खाना खाया। घूमे फिरे। फिर बरसात होने लगी। हम लोग बस में बैठ गए और बस रवाना हो गई। साढ़े दस बजे घर आ गए थे। 

मस्त पिकनिक रही यह। 


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