फर्ज
फर्ज
" ऐ लँगड़े चल जल्दी खोल बोरे को।"
कबाड़ी ने कूड़े बीनने वाले व्यक्ति जिसकी एक टाँग थी और बैसाखी के सहारे बोरे को घसीटता हुआ लाया था, से मुँह बनाते हुए कड़क आवाज में कहा।
"नहीं रिजवान भाई आज कबाड़ा नहीं है ...।"
"कबाड़ा नहीं है तो फिर क्या है इस बोरे में और यहाँ खड़ा क्यों है ?"
"कल मैं तुमको कबाड़ा लाकर दे दूँगा आज तुम मुझे कुछ पैसे उधार दे दो घर सामान लेकर जाऊँगा।" ,उसने डरते हुए कहा।
"चल ..चल आगे बढ़ ...बड़ा आया उधार वाला ...और इस बोरे के कचरे का आचार डालेगा क्या ? "कबाड़ी ने उसका मजाक बनाते हुए कहाl सुनकर गली के और भी दुकानदार हँसने लगे वह सहम गया।
"लगता है लँगड़े को आज सोना मिल गया है।" पास की दुकान वाला सोनू मिस्त्री गुटखे को चबाते हुए बोला।
सभी दुकानवाले जोर -जोर से हँसने लग
े।
"अरे खोलकर देखूँ तो सही लंगड़े की मायाl " कबाड़ी ने जैसे ही हाथ बढ़ाया उसने अपना बोरा कसकर पकड़ लिया।
"तीन -चार दुकान वाले इकट्ठे हो गए और उससे बोरा छीनकर जमीन पर लौट दिया वह चिल्लाकर पागलों की भाँति बिखरे कागजों को बटोरने लगा। सभी दुकानदारों के सिर शर्म से झुक गए, क्योंकि वह पूरा बोरा तिरंगों से भरा हुआ था।"
आज पूरे दिन आजादी के जश्न में डूबे ढोंगी लोगों ने दिखावा कर देश के अभिमान दिलों की शान तिरंगे को फहराकर पैरों से कुचलने के लिए फैंक दिया था।
सभी दुकानदारों के सिर झुक गए तभी छोटे -छोटे दो बच्चे भागते हुए आए।
"बापू ..बापू.... आज देखो हमने और माँ ने दो बोरे तिरंगे बीने माँ कह रही थी कि आज खाने के लिए कुछ नहीं है हमने तो व्रत रख लिया।" उसने अपने दोनों बच्चों को सीने से लगा लिया।