फरिश्ता
फरिश्ता
अपनी गाड़ी से उतरते ही उसकी नजर मजदूरों के बीच ईट ढ़ोते उस आठ-दस वर्ष के बच्चे पर गई वह तेज कदमों से उसके करीब जा पहुंचा।भट्ठे की राख से लथपथ, चिथड़े हो चुके कमीज से बेपरवाह वह बच्चा पूरी ताकत से ईटों को ट्रैक्टर ट्रॉली में लोड कर रहा था।
"ऐ छोटे! तुम्हें यहां काम पर किसने लगाया?”
‘बापू की जगह आया हूँ बाबूजी।”
‘क्यों बापू को क्या हो गया?”
"मेरे बापू को चोट लगी है।”
"चोट कैसे लगी तेरे बापू को?”
"यही भट्ठे पर ईट लोड करते वक्त ट्रैक्टर की ट्राली बापू के पैर पर गिर गई थी। पैर की हड्डी टूट गई।”
"इलाज कराया?”
‘इलाज कैसे कराता पैसे नहीं है।”
"तो यहां काम पर तुझे तेरी मां ने भेजा है?”
"नहीं बाबूजी, मां ने तो मुझे स्कूल भेजा था।”
"फिर तू यहां क्यों चला आया?”
"स्कूल में मुझे तो खिचड़ी मिल जाती है लेकिन मां-बापू भूखे रह जाते यहां से मजदूरी लेकर जाऊंगा तो...”
ईट भट्ठे की मजदूरी करते-करते इस भट्ठे का मालिक बने उस इंसान के दिल में उस बच्चे के मासूम शब्द किसी कील की तरह चुभ गए। उसे वो दुख भरे दिन याद आ गए जब उसका बचपन भी भट्टे पर ईंट पाथने में बीता था। दिल दुख से भर आया।
"मुंशी जी पूरे महीने की मजदूरी के साथ इसे इसके घर पहुंचाओ और इसके पिता के इलाज का इंतजाम करवाओ।
मुंशीजी अवाक सा उनका मुंह देखते रह गए। भट्टे के मालिक तो जल्लाद होते हैं। यह मालिक नहीं, इंसान रूप में फरिश्ता है।