निशान्त मिश्र

Children Inspirational

5.0  

निशान्त मिश्र

Children Inspirational

फेयरवेल

फेयरवेल

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सुख और दुःख का अनोखा मिलन! फेयरवेल!

जैसा कि वर्षों से परंपरा चली आ रही थी, कक्षा १० के विद्यार्थियों का विदाई समारोह मनाया जाना तय हुआ, कक्षा ९ के विद्यार्थियों की परस्पर भागीदारी से। अपनी उसी कक्षा में ऐसी स्वतंत्रता अनुभव करना एक सुखद स्वप्न से कम नहीं लग रहा था। कोई उछलकर बेंच पर बैठ रहा था तो कोई किसी के कंधे पर चढ़ा जा रहा था। ऐसा लग रहा था मानो जग जीत लिया गया हो!

हां, ये सच था, क्योंकि ऐसी स्वतंत्रता का आभास दो दिन पूर्व कोई भी नहीं कर सकता था। साप्ताहिक परीक्षाएं खत्म हो चुकी थीं। छमाही की परीक्षा पहले ही खत्म हो चुकी थी, अब तो पांच वर्षों की साधना का परिणाम आने वाला था। कक्षा ६ से लेकर कक्षा १० तक जो भी विद्यालय से हमने सीखा, अब वह रण कौशल बोर्ड के परीक्षा रूपी युद्ध में काम आने था। यह कठिन परीक्षा थी, न केवल छात्रों के लिए, बल्कि गुरुजनों के लिए भी। क्योंकि वह युग ऐसा था, जहां मास्टर बनने के लिए कोई मास्टर नहीं बनता था, बल्कि अपनी आँखों के स्वप्न अपने छात्रों में देखने के लिए एक ऐसी जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेने की प्रतिज्ञा की जाती थी, जिससे देश समेत पूरे विश्व में उनकी शिक्षा का लोहा मनवाया का सके! उनकी दी हुई शिक्षा न केवल रोज़गार पाने में सहायक हो सके अपितु एक कुशल नेतृत्व समाज को मिल सके।


उस समय के शिक्षकों और शिक्षण पद्धति की तुलना आज के अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों से करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, जहां पर छात्र को यह अधिकार होता है कि वह अपने शिक्षक का भी मूल्यांकन कर सके। आज के विद्यालय छात्रों के ' फीडबैक ' पर अमल करते हुए शिक्षकों की श्रेणी का निर्धारण करते हैं, तो उन विद्यालयों के प्रशासकों की मूढ़ता सहज ही सामने आ जाती है, जो इतने की भी कल्पना नहीं कर पाते हैं कि जो छात्र अभी अपने मूल्यांकन हेतु विद्यालय पर निर्भर है, शिक्षक पर निर्भर है, क्या वह इतना योग्य हो गया है कि अपने गुरु का मूल्यांकन कर सके!!


उस समय की शिक्षा की आज के समय में कल्पना कर पाना भी व्यर्थ है। गुरुजन न सिर्फ अनुशासन की बेत होते थे अपितु संस्कारों की पाठशाला के रूप में वे एक कुशल नेतृत्व और संस्कारित मानव को गढ़ने में पूर्ण रूप से समर्थ होते थे। अपने छात्रों को वो उसी प्रकार से गढ़ते जिस प्रकार कोई कुम्हार घड़े को गढ़ते समय इसकी परवाह नहीं करता कि उसके हाथों में कितनी मिट्टी लग गई है; उसे तो बस इस बात की चिंता लगी रहती है कि कोई उसके घड़े को बेडौल न कह दे!


ऐसे ही गुरुजनों के आशीर्वाद से लाभान्वित होने वाले भाग्यशाली छात्रों में मेरा भी नाम जुड़ सका था। आर के मिशन में प्रवेश मिलने की प्रक्रिया की तुलना आज किसी प्रतिष्ठित उच्च शिक्षण संस्थान में अभियांत्रिकी/प्रौद्योगिकी अथवा प्रबंधन में कठिन प्रवेश प्रक्रिया से की जा सकती है। सैकड़ों छात्र विद्यालय की चहारदीवारी में सुनहरे भविष्य की आधारशिला के पांच वर्षों को अपने जीवन का अप्रतिम सौभाग्य बनाने की चाहत लिए प्रवेश परीक्षा में अपने परिवारीजनों के साथ विद्यालय के प्रांगण में एकत्रित होते और परीक्षा पूर्व ही हृदय की गति के की नए रिकॉर्ड बन जाया करते।


परिणाम कितना सुखद होता, इस वही बता सकता था जो उस सौभाग्य के वरदान को पा लेता! छात्रों के साथ ही माता - पिता के पांच वर्ष बच्चों के सुनहरे भविष्य की निश्चिंतता का आधार बनते! शिक्षक बिरादरी में सबसे ख्याति प्राप्त शिक्षकों का संरक्षण, प्रमाणित शिक्षा पद्धति का अनुगमन, और सबसे महत्वपूर्ण, निम्नतम आर्थिक भार!


बहुत ही कम शुल्क में ऐसी उच्च स्तरीय शिक्षा की व्यवस्था न तो अन्यत्र कहीं उस समय थी, न ही आज है। आज धनपशु बनने कि लालसा में अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालय इस बात से ताल्लुक कतई नहीं रखते को वो मां सरस्वती के वरदान को, शिक्षा की आराधना को, ऑडियो कैसेट बनाकर मनचाहे दामों में बेचकर भी बेशर्मी की चादर ओढ़े नहीं हुए हैं।


पांच अविस्मृत वर्षों को पूरा करने के पश्चात् अब उस पवित्र स्थान, उस यज्ञशाला को विदा कहने का समय निकट था। स्वतंत्रता और बिछोह का ऐसा संगम विरले ही जीवन में आता है, जहां दोनों का ही बराबर सम्मान हो। जो भी हो, वह दिन अद्भुत था। ' फेयरवेल ' शुरू होने में अधिक समय न था।


शुरुआत औपचारिक संभाषणों तथा विद्यालयीय परंपराओं के निर्वहन से हुई, पश्चात् सभी छात्रों के जलपान की व्यवस्था की गई। बिस्किट, समोसे और काला जाम का वह स्वाद जीवन में फिर न मिल सका। ऐसी कल्पना भी नहीं की गई होगी कि जहां कभी कैंटीन में छुपकर, भोजनावकाश के बाद भी कुछ खाने के लिए बड़ी हिम्मत जुटानी पड़ती थी, वहीं उसी कक्षा में बेंच पर बैठ कर समोसा खाने का निमंत्रण मिलेगा!


फिर शुरु हुआ वो, जिसकी स्मृति मे यह कथानक लिखा जा रहा है। एक एक करके सभी गुरुजन छात्रों को आशीर्वाद देने तथा परीक्षा में उनके उत्कृष्ट प्रदर्शन हेतु प्रोत्साहित करने आ रहे थे। ऐसे मित्रवत व्यवहार की कल्पना कभी किसी ने स्वप्न में भी करने की चेष्टा न की होगी, जैसा कि गुरुजनों की महानता का अनुपम उदाहरण उस दिन हमने देखा। इसमें से एक विशेष घटना मुझे स्पष्ट रूप से याद है, अन्य चर्चाओं की मुझे ज्यादा याद नहीं।


हिंदी भाषा के शिक्षक श्री द्विवेदी जी ने कक्षा में प्रवेश किया ही था कि उनके सम्मान में श्वान - हुंकार का आवाह्न हुआ - भौं भौं, वुssह, वुssह, अऊssss इत्यादि ! यह चिरपरिचित आवाह्न सुनकर वे उस दिन तनिक भी क्रोधित नहीं हुए, अपितु उसका जवाब इस तरह से दिया कि श्वान - हुंकार भरने वाले श्वान - मित्र शर्मशार हो गए। सबसे पहले वे बहुत ज़ोर से हंसते हुए कक्षा के भीतर आए। सभी छात्र उनके उनके अभिवादन में उसी तरह से खड़े हुए जैसा कि पांच वर्षों में उन्होंने सीखा था। बस एक अंतर गुरू और शिष्य के बीच के संबंधों को आज प्रगाढ़ बना गया था, वह था, ससम्मान अभिवादन!


दुष्ट प्रकृति के कुछ छात्रों को छोड़कर सभी के हृदय सम्मान भाव से भर गए थे मानो कब छलक जाएंगे, पता नहीं। द्विवेदी जी ने कहना आरंभ किया, " कल रात्रि में मैं घर की ओर जा रहा था कि प्रेम से भरे स्वरों ने मेरा मार्ग अवरुद्ध कर दिया, मेरे भाई बंध मुझे आवाज़ देकर बुला रहे थे कि अरे भाई कहां जा रहे हो, हमें भी साथ लेते चलो।", "उनकी भौं भौं में बहुत प्रेम झलक रहा था।", "पर मैंने उनसे कहा कि भैया बहुत देर हो चुकी है और प्रातः तुम्हारे ही कुछ मित्र मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, उनसे भी मिलना बहुत आवश्यक है।", "इस प्रकार उन्होंने मेरा पीछा छोड़ मुझे जाने दिया।" इस व्यंगात्मक औषधि ने सीधे दोषी के हृदय पर वार किया, और वह रो पड़, क्षमा मांगी! सभी ने बारी - बारी से गुरु जी के चरण स्पर्श किए और आशीर्वाद पाया।


सबसे महत्वपूर्ण और अचरज की बात उस छात्र का अश्रुपूरित हो जाना था, जोकि सदैव गुरु जी के आने पर भौं भौं की आवाज़ निकालता था। आज उसके चंचल और अपरिपक्व हृदय पर विद्यालय से मिले संस्कारों का अधिपत्य हो चला था जो अश्रुधारा के रूप में परिलक्षित हो रहा था।


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