पहचान
पहचान
लिखते लिखते अचानक से ज़िन्दगी के पन्ने पलटते गए…क्या मैंने कभी सोचा था आज अपनी किताब छपने की बात …कैसे कोई एक छोटी सी कंपनी में कलम घिसने वाला सोच सकता है…
ज़िन्दगी ने जो ख़ुशी और ग़म दिए उसे ही समेट कर लिखना शुरू कर दिया …पता नहीं कब इसने एक जुनून की शक्ल इख़्तियार कर ली …खाना न खाया हो चल जाता था …दोस्तों से बात न हुई हो चल जाता था, लेकिन कम्बख्त नींद न आती थी जब तक १०-१२ पन्ने भर न दूँ ..देखते ही देखते मेरे चारों तरफ भरे हुए पन्नों का अम्बार लगना शुरू हो गया …भला हो इस इंटरनेट का जिसने उस अम्बार को अपने में समेट लिया १०-१२ लोगों ने पसंद आने पर छापने के झूठे सच्चे वादे किये…लेकिन में छापने के लिए कभी लिखता था ऐसा नहीं लगता …लेकिन आज एक अजीब सी ख़ुशी ज़रूर महसूस हो रही है …कि आज मेरी किताब मेरी फोटो कि साथ छपने जा रही है