स्कूटी

स्कूटी

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स्कूटी तो दौड़ती ही है बस जल्दी का बहाना चाहिए। चाहे १२ साल का हो चलाने वाला या ६० साल का।

पड़ोसी के बेटे को स्कूटी के साथ पुलिस ने थाने मैं पकड़ रखा था। सो मैं भी शर्मा जी के साथ थाने पहुँच गया… दो घंटे की मशक्कत के बाद सारे लेक्चर सुनने के बाद आगे ऐसी गलती न करने का वादा और जेब ढीली करने के बाद चेहरे पर किला फतह कर लेने का गर्व लिए हम तीनो घर पहुँच चुके थे।

थाने की बातें थाने में ही छोड़कर ज़िन्दगी फिर से पटरी पर आ चुकी थी। जैसे कि कुछ हुआ ही न हो। मुश्किल से १० दिन ही बीते थे कि फिर से शर्मा जी का फ़ोन आ गया की थाने चलना है... बेटा और स्कूटी।

लेकिन इस बार थाने का माहौल कुछ और ही था। खूब सारी भीड़ और बेटे के तो चोटों और खून से सने कपडे। पता चला की एक चार साल का बच्चा स्कूटी की चपेट में आ गया था और उसकी हालत नाजुक है… हॉस्पिटल में।

न तो लाइसेंस न हेलमेट और न ही रोकटोक। नतीजा… चारों तरफ अंधकार दोष किसको दें ये तो बच्चा था।

"मैंने उसको क्यों नहीं काबू में रखा।" शर्मा जी बार-बार बेबस से यही दोहराये जा रहे थे। दोनों परिवारों की जिंदगी दांव पर थी।

भगवान से दुआ करते-करते सुबह के पांच बज चुके थे लेकिन मन के अंदर का अंधकार खत्म नहीं हुआ था…काश!


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