पहचान
पहचान
उनके कई साथी इस महामारी के चलते शहर से नाउम्मीद हो अपने अपने गांव लौट गए थे,पर एक मजदूर परिवार अभी भी अपने मुखिया की बात मान अबतक शहर में ही रहकर अपने गुजारे की जद्दोजहद में था कि अचानक उस रात में फुटपाथ के किनारे सोता वह परिवार अपने समीप किसी की आहट पा जाग उठा।सभी ने आँख मलते हुए देखा कि सड़क के उस ओर युवाओं का एक झुंड फुटपाथ पर सोते भिखारियों को जरूरत का कुछ सामान दे उनके साथ मोबाइल कैमरों से बड़े उत्साह से फोटो ले रहा था।
बड़े दिनों से आधापेट खाकर गुजारा कर रहे परिवार ने जब खाने की वस्तुएं बटती देखी, तो खुद को भी रोक न पाया और परिवार के मुखिया को छोड़ बाकी सभी वहां लाइन में लग कुछ न कुछ ले ही आए,जिससे अब उनके चहरे की चमक देखते ही बन रही थी।
तब मुखिया के पास आ परिवार के एक सदस्य ने कहा कि "पहले तो इस परिस्थिति में यहां रहकर जूझने का आपका ये फैसला मुझे गलत लग रहा था।पर यदि हमें यूँ ही खाने पीने का सामान अगर रोज मिलता रहे तब तो हम भी इसी तरह बाकी दिन भी आराम से गुजार लेंगे।"
उसकी यह बात सुन बाकी सब तो बहुत खुश हो गए,पर फिर मुखिया अब गम्भीर स्वर में बोला,"हमारी पहचान शहर में मेहनत कर खाने वालों के रूप में है।परिश्रम से जो मिलता है उसी में गुजारा करते है,पर कभी किसी के आगे हाँथ नही फैलाते।पर अब मुझे भी लगता है,की हमारी वो सालों की पहचान खोने से अच्छा है कि हम अब अपने गांव लौट जाएं।"
