पाषाणी हूं मैं

पाषाणी हूं मैं

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 "जल्दी से तैयार हो जाओ तुम्हें साथ चलना होगा वहां एक नारी निकेतन की नींव रखनी है। तुम्हें तो कुछ पता नहीं मेरी कितनी इज्जत है बाहर और जल्दी करना और फालतू मत बोलना नहीं तो!! तुम मुझे जानती हो!”


सफेदपोश कपड़ों में कह कर बड़े रसूख वाले पतिदेव जाकर अपनी गाड़ी में बैठ गए। हां अपनी क्योंकि मेरा तो मुझे ही नहीं पता कि क्या है? मैं यंत्रवत सी तैयार होकर चल दी। सच ही तो कहा है। कितनी इज्जत है उनके आने पर सभी खड़े-खड़े घूम रहे है। औरतों के मसीहा के रूप में पहचाने जाते है। आज 1 फर्श की नींव रखते हुए पत्थर लगा रहे है और जाने क्यों मुझे ऐसा लग रहा है कि, एक पत्थर उन्होंने मेरी शक्ल का लगा दिया है। मैं शांत हूँ, निशब्द हूं, इन पत्थरों के बीच और सोच रही हूं कि, क्यों नारी निकेतन जैसी जगह बनाई जाती है? क्या मैं कभी हिम्मत कर पाऊंगी ऐसी जगह पर आने की? या जो नारी आएगी यहां वह खुद को सेफ पाएगी? आत्मसम्मान पाएगी या फिर एक और नर्क में झोंक दी जाएगी?


और अब जबरदस्ती रिबन काट रही हूं, यह किसी को नहीं पता कि मेरा हाथ बुरी तरह दबाया जा रहा है और सब तालियां बजा रहे है। मैं सिर्फ इसलिए लाई गई हूं कि दिखा सके कि नारी को आगे रखते है। सब कुछ सहते सहते मैं भी एक पाषाण बन गई हूं।


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