Ram Chandar Azad

Tragedy

4.5  

Ram Chandar Azad

Tragedy

नज़र अंदाज़

नज़र अंदाज़

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वह एक नहीं, दो नहीं, दर्जनों लड़कियों को नापसंदी के सूची में दर्ज कर चुका था। उसे इस बात का अभिमान था कि वह सरकारी नौकरी करता है। उसका चचेरा भाई हर्षित बात बात में कहा करता था कि देखना तुझे एक से बढ़कर एक रिश्ते आएंगे। वह हर्षित की बात सुनकर मन ही मन फूले नहीं समाता था। इस तरह कई अच्छे रिश्ते आए पर अनिमेष उसे निरस्त कर देता था।

   किसी चीज की एक सीमा होती है उसके बाद वह अच्छी नहीं लगती है। खटकने लगती है। ठीक यही मनः स्थिति देवराज की हो रही थी। अब उनके बेटे के लिए रिश्ते आना कम हो गए थे। पूरे क्षेत्र में यह बात फैल चुकी थी कि उनकी डिमांड बहुत अधिक है इसलिए अब नातेदार-रिश्तेदार भी रिश्ते की बात करने से कतराते थे। देवराज के दो बेटे और थे उन्हें उनकी भी चिंता हो रही थी। 

एक दिन देवराज ने अनिमेष से कहा-' बेटा, समय बदल रहा है। हमें भी उसके साथ चलना चाहिए।'

अनिमेष-'नहीं, पापा अभी बहुत रिश्ते मिलेंगे। हर्षित भैया कह रहे थे कि मैं कॉलेज में पढ़ाता हूँ। चिंता की कोई बात नहीं।'

देवराज फिर चुप हो गए। मन ही मन में सोचने लगे। आजकल के लड़कों को क्या हो गया है? इनकी पसंद की जैसे कोई सीमा ही नहीं। आखिर अनिमेष की उम्र भी बढ़ती जा रही थी। कहीं ऐसा न हो आगे चलकर ढंग का रिश्ता ही न मिले। यह चिंता भी उन्हें सताने लगी थी परंतु बेटे की जिद के आगे उनकी एक न चलती थी। वैसे तो लड़के की उम्र अभी 32 वर्ष ही थी फिर भी उनके लिए यह चिंता की बात थी क्योंकि उनके समाज में बीस से पच्चीस साल होते ही लड़कियों की अधिकतर शादी हो जाती है। कहीं अच्छा रिश्ता न मिला तो जीवन तो नरक हो जायेगा।

  काफी दिनों के बाद दूर से एक रिश्तेवाले आये। लड़की शहर में पली-बढ़ी थी। शिक्षा-दीक्षा, रहन-सहन, खान-पान सब ग्रामीण परिवेश से अलग था। इस बार देवराज ने हर्षित और अनिमेष की एक न सुनी। अनिमेष को भी लगा कि अब उसे भी रिश्ता स्वीकार कर लेना चाहिए। कहीं ऐसा न हो आगे चलकर कोई ढंग का रिश्ता ही न मिले। लड़की स्वच्छंद विचारों की थी। अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। दहेज की हर शर्त उसके पिता मानने को तैयार थे। रिश्ता तय हो गया।

  जब यह खबर उनके मामा ओंकारनाथ को लगी तो वे भी राहत की साँस लिये। सोचने लगे चलो अच्छा हुआ अंततः रिश्ता तय हो गया। उन्होंने कई बार अनिमेष के लिए अच्छे रिश्ते दिखाए थे पर उन्हें कभी सफलता नहीं मिली थी। उसकी वजह से ही उनकी भी सामाजिक छवि धूमिल हो चुकी थी। अनिमेष की वजह से ही साले-जीजे के रिश्ते में भी कटुता आ गयी थी। पर अब सब सामान्य हो जाएगा।

  अनिमेष और कल्पना का विवाह बड़े धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। सुन्दर बहू पाकर देवराज भी खुशी से पागल हो रहे थे। लेकिन एक डर उन्हें सता रहा था। क्या यह लड़की हमारे परिवार को जोड़कर रख सकेगी? परिवार के विघटन की कल्पना करके ही वे उदास हो जाते थे। कुछ दिन ठीक-ठाक चलता रहा परंतु कलह की हवा असर दिखाने लगी थी। कल्पना भी अब बात बात में जवाब दे देती थी। ग्रामीण संस्कृति और शहरी संस्कृति में जमीन-आसमान का अंतर होता है।

  पूरे परिवार के लिए खाना तैयार करना और फिर नौकरी पर जाना। वह थक जाती थी। भारतीय समाज में आज भी स्त्री को समानता का वह अधिकार नहीं प्राप्त है जो संवैधानिक है। उसे पुरुष के समान स्वतंत्रता का अधिकार नहीं मिलता। 

 गर्मी के दिन थे। वह अभी ऑफिस से आई ही थी कि आदेश शुरू हो गया।

' बहू, मेरे लिए एक गिलास पानी लाना।' ओंकारनाथ ने आवाज लगाई।

वह पानी लेकर ससुर के पास पहुँची ही थी कि उसकी सास ने पुकारा-'सिर में दर्द हो रहा है एक कप चाय बना दो।'

कल्पना झुंझला उठी। लगता है यह घर नहीं कोई आदेशालय है। मुझे अभी फुर्सत नहीं है। मेरा भी सिर चकरा रहा है। भुनभुनाते हुए वह अपने कमरे में चली गयी।

शाम को अनिमेष के आते ही उस पर शिकायतों की बौछार होने लगी। उसने भी अनिमेष को जवाब देते हुए कहा-' मैं कोई खानसामा नहीं हूँ। न ही कोई नौकरानी हूँ जो सबकी फरमाइश पूरी करती फिरूँ।'

अनिमेष ने कहा-'घर है तो काम तो करना पड़ेगा ही।'

'तो आप क्यों नहीं कर लेते। क्या मैंने सबका ठेका ले रखा है। मैं भी तो काम से आती हूँ तो क्या मैं परेशान नहीं होती।' कल्पना ने कहा।

अब कल्पना और अनिमेष में भी रोज तू तू- मैं मैं होती रहती थी।

अभी विवाह हुए पूरे एक साल भी नहीं हुए थे कि बात तलाक तक आ पहुँची।

'मेरी किस्मत फूटी थी जो मैंने तुम्हें पसंद किया। कितनी लड़कियों को मैंने नज़रअंदाज़ कर दिया।' अनिमेष ने कहा।

'मैंने थोड़े ही नज़रअंदाज़ करने को कहा था। मुझे क्यों सुना रहे हो?' कल्पना ने चिढ़ते हुए कहा।

हालात यहाँ तक आ पहुंची कि रिश्ता टूटने तक की बात होने लगी। दोनों पक्षों ने रिश्तों को बचाने का प्रयास किया पर असफल रहे। रिश्ता आखिर टूट ही गया।

मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं स्वयं उसका निर्माता होता है। हम जब दूसरे के साथ खिलवाड़ करते हैं तो समय हमारे साथ भी वैसा ही खेल खेलता है। अनिमेष ने कितने अच्छे -अच्छे रिश्तों को यूँ ही नज़रअंदाज़ कर दिया था। अब रिश्ते उसको नज़रअंदाज़ कर रहे थे। वह चाहकर भी अब कुछ नहीं कर सकता था। उसके पास सब कुछ था पर समय नहीं था।

 किसी ने कहा है-हर व्यक्ति के जीवन में एक बार अच्छा समय जरूर आता है पर हम उसे यदि पहचानने में असफल रहे तो वह हमें छोड़कर चला जाता है।



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