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Preeti Agrawal

Drama

4  

Preeti Agrawal

Drama

नई किरण

नई किरण

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" तुम कब तक यूँ अकेली रहोगी?", लोग उससे जब तब यह सवाल कर लेते हैं और वह मुस्कुरा कर कह देती है," आप सबके साथ मैं अकेली कैसे हो सकती हूं।"

उसकी शांत आंखों के पीछे हलचल होनी बन्द हो चुकी है। बहुत बोलने वाली वह लड़की अब सबके बीच चुप रह कर सबको सुनती है जैसे किसी अहम जबाब का इंतजार हो उसे।

जानकी ने दुनिया देखी थी उसकी अनुभवी आंखें समझ रहीं थीं कि कुछ तो हुआ है जिसने इस चंचल गुड़िया को संजीदा कर दिया है लेकिन क्या?

" संदली !, क्या मैं तुम्हारे पास बैठ सकती हूं?", प्यार भरे स्वर में उन्होंने पूछा।

" जरूर आंटी, यह भी कोई पूछने की बात है।", मुस्कुराती हुई संदली ने खिसक कर बैंच पर उनके बैठने के लिए जगह बना दी।

" कैसी हो ?क्या चल रहा है आजकल ? ", जानकी ने बात शुरू करते हुए पूछा।

" बस आंटी वही रूटीन, कॉलिज- पढ़ाई....", संदली ने जबाब दिया।" आप सुनाइये।"

" बस बेटा, सब बढ़िया है। आजकल कुछ न कुछ नया सीखने की कोशिश कर रही हूं।", चश्मे को नाक पर सही करते हुए जानकी ने कहा।

" अरे वाह ! क्या सीख रही है इन दिनों?", संदली ने कृत्रिम उत्साह दिखाते हुए कहा जिसे जानकी समझ कर भी अनदेखा कर गई।

" मैं अपने वो शौक जो घर गृहस्थी की व्यस्तता में पूरे नहीं कर पाई उन्हें अब पूरा कर रही हूं-" हंसते हुए जानकी बोली।

संदली को आश्चर्य हुआ -"कैसे शौक आंटी?" 

"मुझे संगीत का बहुत शौक है। पहले वक्त नहीं मिलता था और अब वक्त ही वक्त है इसलिए मैं पियानो सीखने जाती हूं और गाना भी सीख रही हूं। मैं अपने आप को खुश रखने की पूरी कोशिश करती हूं-" जानकी ने संदली की आंखों में झांकते हुए कहा।

संदली ने नजरें झुका ली और थोड़ी उदास हो गई। 

"संदली बेटा ! तुम आजकल बहुत चुप-चुप ही रहती हो। मुझे तो वही पहले जैसी चंचल संदली ही पसंद है। इस बार तो तुम दिवाली पर भी घर नहीं गई।"

 जानकी की प्यार भरी बातें सुनकर संदली की आंखें भर आई। 

"वैसे तो कहने से मन हल्का हो जाता है पर अगर कोई बात तुम्हें इतनी दुखी कर रही है तो फिर मैं तुमसे नहीं पूछूंगी"- जानकी ने कहा।  

"आंटी। अभी कुछ ही समय पहले मुझे अपने बारे में एक ऐसी सच्चाई पता चली जिसने मुझे झकझोर कर रख दिया-" कहते हुए संदली की आंखों से आंसू बहने लगे। 

जानकी ने उसके आंसू पोंछे और कहा- " ऐसी कौन सी बात है जिसने मेरी नटखट सी बिटिया को गुमसुम कर दिया। तुम आजकल अपने घर भी नहीं जाती हो। क्या घर में मम्मी-पापा से कोई अनबन हो गई या कॉलेज में कोई समस्या है?"

"नहीं आंटी ! मम्मी-पापा तो बहुत अच्छे हैं। मैं उनका जितना भी एहसान मानूं उतना कम है"- संदली की आंखों में चमक आ गई।

"बेटा ! मां-बाप कभी बच्चों पर एहसान नहीं करते। वह हमेशा उनकी खुशी चाहते हैं"

"पर-पर आंटी…"- कहते-कहते संदली रुक गई।

" पर क्या बेटा? कहोगी तो तुम्हारे मन का बोझ हल्का हो जाएगा और हो सकता है तुम्हारी मैं कोई मदद कर सकूं"

"आंटी दरअसल…. दरअसल…"- संदली बहुत असमंजस में थी। 

" अगर तुम अपनी परेशानी मुझसे साझा नहीं करना चाहती तो कम से कम अपनी मम्मी से ही कर लो। यहां कब तक ऐसे अकेली रहोगी। कुछ दिनों के लिए अपने मम्मी-पापा को यहां बुला लो"- जानकी ने प्यार से कहा। 

"आंटी वही तो मैं नहीं कर सकती। मैं उन्हें दुखी नहीं करना चाहती"

 जानकी ने संदली का सिर सहलाते हुए बोली - " बेटा ! अब तो तुमने मुझे चिंता में डाल दिया है। क्या बात है बताओ।"

" आंटी मुझे कुछ दिन पहले ही पता चला कि यह मेरे असली मम्मी-पापा नहीं है। इन्होंने मुझे गोद लिया है"

"यह क्या कह रही हो तुम?"- जानकी आश्चर्य से भर उठी।

"हां आंटी ! मैं सच कह रही हूं"- संदली की आवाज भर आई। 

 "तो क्या हुआ बेटा। पर वो तो तुम्हें बहुत प्यार करते हैं न"- जानकी ने कहा।

"हां आंटी ! ये मम्मी-पापा तो मुझे बहुत-बहुत प्यार करते हैं पर मेरे असली माता-पिता ने पैदा होते ही मुझे कचरे के डब्बे में फेंक दिया था। वहां से एक कुत्ता मुझे उठा कर भाग रहा था तभी इन मम्मी- पापा ने देख लिया और उससे बचा कर फिर पुलिस स्टेशन ले गए और फिर इलाज करवा कर मुझे गोद ले लिया"- संदली फूट-फूट कर रोने लगी।

संदली की बात सुनकर जानकी के रोंगटे खड़े गये। उसे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह क्या कहें। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने पूछा - " तुम्हें किसने कहा।"

"अभी कुछ दिन पहले ही मम्मी की अलमारी साफ करते हुए मुझे कुछ कागज हाथ लगे जिससे मुझे पता चला। फिर मैं यहां चली आई और अब समझ में ही नहीं आता है कि क्या करूं"- संदली ने रोते हुए कहा।

संदली सुबक-सुबक रो रही थी। बोली -"आंटी मैंने ऐसा क्या गुनाह किया था जो मेरे मां बाप ने जन्म होते साथ ही मुझे कचरे के डब्बे में फेंक दिया। अगर उन्हें ऐसा ही करना था तो उन्होंने मुझे जन्म ही क्यों दिया? कोख में ही क्यों नहीं मार डाला?" 

जानकी की आंखों से भी आंसू बह निकले। बहुत देर तक वह चुपचाप संदली के सिर पर हाथ फेरती रही। बहुत मुश्किल से उसने अपने आप को संभाला और कहा - "बेटा ! तुम घर ना जाकर अपने आपको क्यों सजा दे रही हो? तुम्हारे जन्म देने वाले माता-पिता की किस्मत में तुम्हारे जैसी प्यारी बच्ची को पाने का सुख नहीं लिखा था इसीलिए उन्होंने अपने हाथों से अपने भाग्य को ठोकर मार दी। तुम्हारी किस्मत बहुत अच्छी थी जो तुम उनके घर नहीं पर यहां पली-बढ़ी। उन्होंने तुम्हें इतने प्रेम से अपनी पलकों पर बिठाया और फूल की तरह पाला-पोसा।"

" यह तो आप बिल्कुल सही कह रही हैैं आंटी। मम्मी-पापा ने कभी भी मुझे महसूस ही नहीं होने दिया कि मैं उनकी सगी बेटी नहीं हूं"- जानकी ने बहुत संतोष भरे स्वर में कहा।

"यही मैं तुम्हें कहना चाह रही हूं। संदली ! अगर वह कागज का टुकड़ा तुम्हारे हाथ में नहीं आया होता तो शायद तुम्हें कभी पता भी नहीं चलता। मैं जानती हूं कि असलियत जानने के बाद बहुत मुश्किल होता है उस बात को भूलना। पर उसे याद रख कर अपने मम्मी पापा के प्यार का अपमान क्यों करना। उन्हें एहसास मत होने देना कि तुम्हें सब पता है नहीं तो तुम्हारी आंखों में आंसू देख कर उन्हें भी बहुत दुख होगा"- जानकी ने संदली को समझाते हुए कहा

"आंटी आप बिल्कुल सही कह रही हैं। पर मैं क्या करूं मेरे दिलो दिमाग से वह बात जा ही नहीं रही है। मैं कैसे अपने उन माता-पिता को माफ कर दूं जिन्होंने मुझे फेंक दिया। उन्हें अपने इस घिनौने अपराध की सजा तो मिलनी चाहिए" -संदली ने गुस्से से कहा।

"हां बेटा ! मैं तुम्हारी मन:स्थिति समझ रही हूं। बहुत मुश्किल है।‌ पर ईश्वर उन्हें अपने कर्मों की सजा खुद ही देगा। वो जो भी करता है हमारे लिए अच्छा ही करता है तभी तो तुम्हें अब इतने प्यार करने वाले माता-पिता मिले। इनसे दूर रहकर तुम खुद को और इनको क्यों सजा देना चाहती हो"- जानकी ने कहा।

"हां आंटी ! आपने मेरे मन का बोझ हल्का कर दिया। ईश्वर के रूप में मुझे यह माता-पिता मिले हैं क्योंकि उन्होंने मुझे नया जीवन दिया। मेरी हर छोटी से छोटी खुशी का ख्याल रखा। मैं इसी शनिवार को घर जाकर कुछ दिनों के लिए मम्मी पापा को यहां अपने पास ले आऊंगी। थैंक्यू आंटी"- कहते हुए संदली जानकी के गले से लिपट गई। अब उसके चेहरे पर भी मुस्कुराहट थी उसके जीवन में नई किरण का उदय हुआ था।

जानकी ने संदली को तो किसी तरह समझा-बुझाकर सांत्वना दे दी थी पर लड़की होने पर उसे किसी खराब वस्तु की तरह ऐसे ही कहीं निर्दयता से फेंक देना किसी भी तरह क्षमा योग्य नहीं है। ऐसे लोगों को तो कठोर से कठोर दंड मिलना ही चाहिए। आज के समाज का यह कटु सत्य उसे अंदर से झकझोर गया। 


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