chandraprabha kumar

Classics Inspirational

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chandraprabha kumar

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नेवले और ऋषि मुद्गल की कथा

नेवले और ऋषि मुद्गल की कथा

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कुरुक्षेत्र तीर्थ में महर्षि मुद् गल रहते थे। ये ऋग्वेद के द्रष्टा ऋषि थे, और महान् दानी, धर्मात्मा, तपस्वी, जितेन्द्रिय, भगवद्भक्त एवं सत्यवक्ता थे। मुद्गल उपपुराण में इन्हीं की कथा है। 

ये फसल कटने के बाद खेतों में गिरे हुए अन्न के दानों को बीनकर उसी से सपरिवार जीवन निर्वाह करते थे। प्रत्येक पन्द्रह दिनों में एक द्रोण धान्य इकट्ठा कर लेते थे, जो क़रीब चौंतीस सेर के बराबर होता था। प्रत्येक पन्द्रहवें दिन अमावस्या व पूर्णिमा को यज्ञ किया करते थे। उन्होंने सपरिवार तीन- तीन दिन बाद भोजन करने का कठिन व्रत लिया हुआ था। उनके परिवार में उनकी पत्नी इन्द्रसेना, एक पुत्र और पुत्रवधू थी। यदि किसी दिन उस समय भोजन न मिलता, तो सपरिवार भूखे रहकर तप करते थे। कोई भी दुःखी नहीं होता था। 

यज्ञों में और देवता और अतिथियों को देने से जो अन्न बचता ,उसी से ये अपने परिवार का निर्वाह करते थे। जैसे धर्मात्मा ब्राह्मण स्वयं थे ,वैसे ही उनकी धर्म पत्नी और संतान भी थी ।मुनि वृत्ति से रहना और प्रसन्नचित्त से अतिथियों को अन्नादि का दान देना यही उनके जीवन का व्रत था। 

एक समय की बात है ,कुरुक्षेत्र में बड़ा भीषण अकाल पड़ा ।कई दिन बीत गए , पर इस ब्राह्मण परिवार को अन्न के दर्शन तक न हुए ।खेतों का अन्न भी सूख गया था। अत्यंत कष्टपूर्वक इनके दिन के दिन बीतने लगे। 

एक दिन ज्येष्ठ मास को दोपहर में अपने परिवार के साथ उन्होंने किसी प्रकार लगभग एक सेर जौ प्राप्त कर उससे सत्तू ( जौ का आटा) तैयार किया।

उससे जप आदि नियम पूर्ण करके यथोचित अग्नि में देवाहुति दी। फिर सत्तू को चार भागों में बॉंटकर स्त्री, पुत्र और पुत्रवधू सहित भोजन करने बैठे ही थे कि एक अतिथि ब्राह्मण वहॉं आ पहुँचे। 

महर्षि ने उनका स्वागत कर भोजन करने की प्रार्थना की और अपना सत्तू भाग उन्हें प्रदान किया। वे ब्राह्मण महर्षि का भाग खा गये पर उन्हें तृप्ति नहीं हुई। मुद्गल चिन्ता में पड़ गये। तब उनकी धर्मपत्नी ने कहा-" स्वामिन् ! मेरा भाग इन्हें दे दें "।

उसके बार बार आग्रह करने पर मुद्गल ने अपनी स्त्री का सत्तू भी अतिथि को निवेदित कर दिया ,किन्तु तब भी वे तृप्त नहीं हुए। महर्षि पुनः चिन्ता में पड़ गये। 

पिता की स्थिति समझकर पुत्र ने भी अपना भाग अतिथि ब्राह्मण को समर्पित करा दिया। इतने पर भी ब्राह्मण अतिथि संतृप्त न हो सके। इस पर महर्षि मुद्गल असमंजस में पड़ गये। अतिथि भूखे रह जायें, यह तो बड़ा पाप होगा। सेर भर सत्तू भी इस अकाल के समय उन्हें बहुत दिनों बाद बड़ी कठिनता से प्राप्त हुआ था। 

तदनन्तर पुत्रवधू ने भी अपना भाग सत्तू अतिथि को देने के लिये कहा, यद्यपि कई दिनों के भूख प्यास से उसका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो चुका था, वह क्षीण काया हो गई थी। उसके बार बार आग्रह पर मुद्गल ने पुत्रवधू का भाग भी ब्राह्मण देवता को अर्पित कर दिया। 

इस पर ब्राह्मण अतिथि अत्यन्त सन्तुष्ट हो गये और मानव विग्रह त्यागकर साक्षात् धर्म के रूप में प्रकट हो गये। वे महर्षि के दान की प्रशंसा करते हुए कहने लगे-" महर्षे !मैं साक्षात् धर्म हूँ। तुम्हारे धर्म की परीक्षा लेने आया था। तुम धन्य हो, तुम्हारा कुटुम्ब धन्य है। तुमने न्यायोपार्जित शुद्ध पवित्र अन्न का दान किया, इसके लिये देवता भी विस्मित होकर तुम्हारे ऊपर पुष्प वृष्टि कर रहे हैं। तुम सपरिवार दिव्य विमान पर आरूढ़ होकर स्वर्ग चलो। इस सेर भर सत्तू दान के सामने राजसूय एवं अश्वमेधादि यज्ञों की  कोई गणना नहीं।"

भगवान् धर्म के ऐसा कहने पर महर्षि मुद्गल सपरिवार ब्रह्मलोक चले गये और धर्म भगवान् भी अन्तर्धान हो गये। 

उसके थोड़ी ही देर पश्चात् सत्तू की गन्ध पाकर एक नेवला अपने बिल से बाहर निकला। वहॉं गिरे हुए जलसिक्त रजकणों के स्पर्श से और मुद्गल द्वारा दान देते समय गिरे हुए सत्तू कणों की गन्ध लेने से और मुद्गल के तप प्रभाव से उस नेवले का मस्तक व आधा शरीर सुवर्णमय हो गया। ऐसी आश्चर्य जनक घटना देखकर नेवला अत्यन्त विस्मित हो गया। अब वह सोचने लगा कि उसके शरीर का शेष भाग भी कैसे सुवर्ण मय हो। 

बहुत दिनों पश्चात् जब महाराज युधिष्ठिर के महायज्ञ का वृत्तान्त सारे देश में फैला, तो वह नेवला बड़ी आशा लगाकर उनके यज्ञीय क्षेत्र में पहुँचा और इस अभिलाषा से वहॉं सभी स्थलों पर लोटने -पोटने लगा कि" मेरा शेष शरीर अब अवश्य ही स्वर्णिम हो जायेगा।" किन्तु बहुत प्रयत्न करने पर भी वेदी कुण्ड आदि सभी स्थलों पर लोटने से भी उसका एक रोम भी सोने का नहीं हो सका। 

तब उस नेवले ने सहसा व्यंगपूर्वक घोर अट्टहास किया, और मनुष्य वाणी में कहा-" तुम्हारा यह यज्ञ कुरुक्षेत्र निवासी मुद्गल ब्राह्मण के सेर भर सत्तूदान करने के तुल्य भी नहीं। "

इस पर घबराकर सभी सभासद् अपने आसनों से उठ खड़े हुए और उसे चारों ओर से घेरकर कहने लगे-"दिव्य रूप धारण किये हुए तुम कौन हो ?जो इस यज्ञ की निन्दा कर रहे हो। हम लोगों ने यथोचित सबको दान- सम्मान दिया है।"

इस पर उस नेवले ने हँसकर कहा-" मैंने गर्वातिरेक में आकर आप लोगों से कोई मिथ्या बात नहीं कही है। आप लोग मेरे शरीर को देख रहे हैं। यह महर्षि मुद्गल के पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू सहित दिये दान के लवॉंश के स्पर्श का प्रभाव है , जो मेरा आधा शरीर सोने का हो गया, और उन लोगों को सेर भर सत्तूदान से दिव्यलोकों सहित ब्रह्मलोक की प्राप्ति हो गई। तबसे मैं धर्म स्थलों, तपोवनों और प्रसिद्ध यज्ञ स्थलों पर जाकर लोटा करता हूँ कि मेरा शेष शरीर भी स्वर्णिम हो जाये। इस महायज्ञ की चतुर्दिक् ख्याति सुनकर मैं बड़ी आशा लगाये यहॉं भी आया था, किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ।" 

शास्त्रों में कहा गया है कि-" संयम ,शील,आर्जव और तप तथा दानयुक्त कर्म ही श्रेष्ठ है। और ये एक एक गुण बड़े बड़े यज्ञों समान हैं। "

ऐसा कहकर नेवला वहॉं से चला गया। वे ब्राह्मण तथा राजा भी इस आश्चर्य को देख- सुनकर विस्मित हुए। इस कथा से दान की महिमा का पता चलता है ,अतिथि सत्कार हमारी परम्परा रही है , अपने आप कष्ट सहकर भी दूसरों का भला करने से बढ़कर कोई पुण्य कार्य नहीं है।



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