नौकरीपेशा
नौकरीपेशा
ऑफिस से निकल कर तेज कदमों से चलते हुए स्कूटी तक आई और कुछ ही पलों में तेज़ रफ़्तार से उसकी स्कूटी सड़क पर दौड़ लगा रही थी, दिमाग में बस एक ही बात थी कि उसे अमर से पहले घर पहुंचना है, क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ तो मनु को अमर के सवालों का सामना करना पड़ेगा ... कहां रुक गई थी?,किससे बात कर रही थी?, तुम्हें समय का कुछ ध्यान भी है?, रोज़ इतनी बातें किससे करती हो??
दस सालों से नौकरी करते हुए भी मनु के लिए ये सब हर उस रोज होता था जब अमर उससे पहले घर पहुंच जाता था। दोनों की छुट्टी का समय एक ही है इसलिए कोई भी पहले आ जाता है।
मनु आज तक इंतजार में है कि न जाने वो दिन कब आएगा जब अमर की नजरों में “महिला कर्मचारी” से वो “साधारण नौकरीपेशा” बन जायेगी और सवालों की बौछार भी बंद हो जायेगी।
विचारों में उलझी मनु घर पहुंच गई, सीढ़ियां चढ़ कर उपर पहुंची तो दरवाजे पर ताला लटका हुआ था। मनु के चेहरे पर हंसी दौड़ गई।