Sourabh

Abstract

3.4  

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नानी

नानी

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आज सुबह घर से दफ्तर के लिए निकलते समय

माँ बोली आज तेरी नानी का श्राद्ध है, किसी जरूरतमंद को कुछ दे दियो....

मैं- अच्छा दे दूँगा, कह कर निकल आया!

 अनायास ही इतने समय बाद नानी का जिक्र सुन

नानी का चेहरा और उनसे जुड़ी यादें सामने आ गईं....

मैं सात साल का था जब मेरी नानी गुजर गयीं थीं, मुझे याद है जब भी चाँदनी चौक से मदनगीर माँ के साथ नाना-नानी जी के घर जाता था, तब माँ एक दिन पहले ही नानी को फोन कर बता दिया करती थी कि हम आ रहे हैं और मेरी नानी उसी समय मेरे लिए बेसन के लड्डू बनाने की तैयारी में जुट जाती थी और सुबह जब नाना जी या मामा दूध लेने जाया करते थे तो उनसे मेरे लिए कैम्पा कोला और अंकल चिप्स के पैकेट मंगवा कर रख लेती थीं। नाना जी 10:30 बजे से ही गली के बाहर हमारा इंतजार करने लगते थे कि 11 बजे हम ऑटो से आएंगे तो वो उसी समय गोद में लेकर घर आ जायें ताकि मुझे गली-मोहल्ले की किसी स्त्री की नजर न लग जाये...

दरवाजे पर ही नानी पहले मेरी और माँ की नजर उतारतीं और फिर मुझे गोद में लेकर कहतीं आजा देख तेरे लिए लाड्डू बनाई हूँ और कैम्पा और वो तेरे अंग्रेजी पापड़ भी मंगवाई हूँ....

न मामा की गोद में जाने देती थीं न नाना जी के पास ; कोई अड़ोस-पड़ोस की बड़ी-बूढ़ी मिलने आती तो मुझे फट दूसरे कमरे में भेज देतीं, कि कहीं ये नजर न लगा दें मुझे....

पर आज नानी नहीं है और न ही वो बचपन, बस हैं तो कुछ ख़ुशनुमा यादें उनकी...!


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