गुलमोहर
गुलमोहर
एक गुलमोहर मेरा भी...
सुनो सखी याद है तुम्हें
कि एक पौधा तुमने भी रोपा था गुलमोहर का अपने आंगन में
जो बन गया था वृक्ष अपने सपनो का उसके बड़े होने से पहले ही हमने देख लिया
उसके साथ बढ़ता रिश्ता अपना
हर रोज शाम बैठ जाते थे पास उसके
नापते उसकी ऊंचाई, बस एक बात रहती हम दोनों की बातों में जाने बड़ा होगा ये गुलमोहर
और हम तुम दोनों बैठेंगे
छाँव में इसकी
फिर कुछ गीत गाएंगे इश्क़ के
जब बाकी बच्चे खेल रहे होते थे
हम होते थे साथ इसके याद है दादी तुम्हारी कहती थीं
हमक
ो
क्यों रे पगलों !
क्या तुम को देखते ही ये बड़ा हो जाएगा ?
जो बैठे सारे दिन इसको ही निहारते रहते हो
उनकी बातों को अनसुना कर हम खो जाते थे
अपने सपनो के इस गुलमोहर में इसके फूलों को देखना चाहते थे साथ खिलना, इसकी शाख पर डाल कर झूला संग संग झूलना चाहते थे
पर अपना बचपन बीता जल्दी
और ये गुलमोहर बड़ा देर से हुआ
मैं लग गया जिंदगी की भागदौड़ में
और तुम हो गईं पराई और ये गुलमोहर आज भी तुम्हारे आंगन में लगा हमारे साथ आने के इंतज़ार में खड़ा है अपनी शाखों पर वो अपने फूल लिए जिनके इतंज़ार में खेल छोड़ बस इंतज़ार किया था हमने..सखी, मैं और गुलमोहर...