नाम से ही पहचान है मेरी..
नाम से ही पहचान है मेरी..
आज पहली बार अपने नाम को सुनकर कितना अच्छा लग रहा है| नहीं तो बचपन से लेकर आज तक सिर्फ गालियाँ ही मिली, चाहे वो खुद की मां बाप हो, परिवार हो या गांव वाले"।
"मुनिया, तुम ऐसी बातें क्यों कर रही हो?" मुनिया की मालकिन बबिता मुनिया से पुछती है।
"और क्या करूं दीदी आज पहली बार आपने मेरे नाम से पुकारा तो बहुत अच्छा लगा| नहीं तो बचपन से मनहूस, अपशगुनी और भी बहुत नाम से पुकारते पर कोई भी मेरे नाम से मुझे नहीं पुकारता| चाहे मेरा परिवार हो या गांव वाले सब मुझे काली बिल्ली कहकर पुकारते क्योंकि मेरा रंग काला है ना?" बहुत ही रुवासी भरी आवाज में मुनिया ने कही।
जानती है मालकिन मेरी अम्मा बापू ने कभी भी मुझे प्यार ना किया। अम्मा को काला रंग पसंद नहीं, तो इस काले रंग की बेटी को प्यार क्यों करेंगी।वो तो मेरे बापू से लड़ती है और कहती है कि ये मेरी औलाद नहीं किसी और की है। बापू जब प्यार करना चाहे तो अम्मा को पसंद नहीं ये समझ लो मेरे घर में मेरी जगह एक समान जितनी है बस फर्क इतना है कि समान सांस नहीं लेती पर मैं सांस लेती हु और समान को दर्द महसूस नहीं होता..पर मुझे दर्द महसूस होता।.
जब मेरी बहन का जन्म हुआ जो की दुध जैसी गोरी और सुंदर... उसके जन्म पर मेरे अम्मा बापू ने खुशियां मनाई। मेरी बहन पर मेरे काले रंग की परछाई ना पड़े इसके लिए मुझे घर के बाहर वाले कमरे में रख दिया और घर के अंदर जाना मना कर दिया।नादान थी मैं जो अपने अम्मा बापू के दुत्कार को भी प्यार समझ बैठी।पर जैसे जैसे बड़ी होती चली गई तब समझ में सब आने लगा। अम्मा बापू भी ओ काली बिल्ली कहा मर गई घर का काम नहीं करना,जब तब हर बात पर ताने। कभी कभी मुझे भी लगने लगता की सच में ये मेरी अम्मा है भी की नही..???
"शांत हो जा कब तक ऐसे आंसु बहाते रहेगी। आज तेरी हिम्मत की वजह से ही तु आजाद है।"बबिता मुनिया को समझाते हुए कहती है।
"पता नहीं दीदी उस वक्त कैसे मेरे अंदर हिम्मत आ गई, और मैं शादी के मंडप से भाग आई नहीं तो मेरे अम्मा बापू मेरे से पिछा छुड़ाने के लिए मेरी शादी एक बुढ़े से करा रहे थे। जो की खुद दो बच्चों का बाप था।जब तक मेरी शादी नहीं होती तो मेरी बहन चंदा की भी शादी नहीं होती।वो तो भला हो भगवान का की सही समय पर मेरे अंदर हिम्मत आ गई और घर से सीधे भाग कर थाने गई नहीं तो मेरा परिवार मेरी ही बली चढ़ा देता।वो तो साहब का भला हो जो उन्होंने मुझे उस नर्क से निकाल और अपने घर में शरण दी।आप और साहब बहुत अच्छे हैं दीदी।"मुनिया बबिता को धन्यवाद देते हुए कहती है।
"इसमें धन्यवाद देने की क्या बात है वो तो उनका फर्ज था। अच्छा सुनो इस कागज पर अपना नाम लिख दो।"बबिता ने कहा...
"क्यों दीदी"????? मुनिया ने आश्चर्य से पूछा..
"मैं चाहती हूं कि तुम अपने पैरों पर खड़ी हो तेरे नाम से तेरी पहचान हो। यहां एक संस्था है जो सिलाई कढ़ाई का प्रशिक्षण देती है... और मैं चाहती हूं कि तुम सीखो और अपनी मेहनत से अपना नाम रौशन करो।रंग रुप पुराने के जमाने की दकियानूसी सोच है ।आज के आधुनिक युग में रंग नहीं हुनर देखती है। तुम अपने पैरों पर खड़ी हो और दिखाओ अपने अम्मा बापू को।ये की काली बिल्ली मेरी पहचान नहीं मेरा नाम नहीं।मेरा नाम मुनिया है ,ये है मेरी पहचान।"बबिता मुनिया को कहती है।
"अपने सही कहा दीदी किसी पर बोझ क्यों बनना। अपने पैरों पर खड़ी हो कर अपने नाम से अपनी पहचान बनानी है और हर वो अम्मा बापू के लिए सबक होगा जो अपने ही बच्चों के साथ रंग भेद करते हैं।" मुनिया की बातों से उसके अंदर छिपे गुस्से की आग दिख रही थी। कुछ कर गुजरने की चाह दिख रही थी।
आज के आधुनिक युग में बहुत से माता-पिता है जो अपने ही बच्चों में रंग भेद करते हैं जो सही नहीं है। जब माता-पिता ही बच्चों में अंतर करने लगे तो बाहरी लोगों अंतर करें तो क्या ग़लत है।
ये कहानी काल्पनिक है इसका वास्तविक से कोई लेना-देना नहीं। बस एक छोटी सी कोशिश है कुछ नया लिखने की और अपनी बातों को समझने की।