मज़दूर

मज़दूर

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तीन साल पहले की बात है। मैं रोज़ खिड़की से उस मज़दूरी करती स्त्री को देखा करती, शायद आठवां महीना लगा होगा। उसे सुबह से धूप में सर पर तसला भर कभी मिट्टी, कभी ईंटें ढोता देख मेरा सर चकरा जाता मगर वो लगातार धीमी चाल से काम में जुटी रहती।

उसको देख एक तरफ घबराहट होती तो दूसरी ओर स्त्री के संबल पर आश्चर्य। ईश्वर ने कैसी शक्ति दी है स्त्री को जो जीवनभर घर, परिवार, संतान की खातिर सुध बुध बिसार, कुछ भी कर जाती है और उफ तक नहीं करती। मेरा मन उसे देख बार बार हो आता कि जाकर पूछ लूँ क्यों खतरा मोल ले रही है, गर्भावस्था में इतना भारी काम। हे ईश्वर रक्षा करना।

मैं भी माँ हूँ। मन आहत है, खिन्न भी, मगर क्या करूं, बच्चों के लिए माँ हर दुख सह जाती है। बड़े चाव से अमरीका गयी थी बेटे के बुलावे पर, पहला प्रसव जो था बहू का, फिर बहू की नौकरी, बच्चे की देखभाल, सब संभाला मगर निंदा और उपेक्षा ही मिली। काम पूरा होते ही बेटा बहू भूल गए कि अकेली माँ जीवित है।

एक समाज सेवी संस्था के साथ मिलकर मैंने घर में महिलाओं के लिए कौशल प्रशिक्षण केंद्र शुरू किया। तीन साल से वो मज़दूर स्त्री रानी अपने बच्चे के साथ मेरे महलनुमा सूने घर में मेरे साथ रहती है और केंद्र चलाने में मेरा हाथ बंटाती है।

बेटे ने बहू के दूसरे प्रसव के लिए फिर बुलाया तो मैंने दिल कड़ा कर साफ मना कर दिया। ज़रूरत में तो सब याद करते हैं, ज़रूरतमंदों की मदद कर जो सुख मिला है वो अपनों की स्वार्थसिध्दि से कहीं ऊपर है।


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