रौनक
रौनक
बड़ी सी आलीशान कोठी। अहाते में बेतरतीब उग आयी घास वहां की वीरानगी को और उभारती। इस बगीचे में कभी हंसी ठिठोली गूंजा करती थी। छोटा शहर, या कस्बा कह लीजिये, यहाँ खून पसीने से बनाया ये मकान।
तीन बच्चों के नाम और उनके होने वाले परिवारों के लिए बनाये गए कमरे अब काट खाने को दौड़ते थे। दयाल चौधरी अकेले निवासी रह गए थे यहां। चौधराईन जब से गयीं परिवार का उत्साह भी साथ चल बसा। अब न यहां होली पर रंग बरसते, न दीवाली पर रोशनी। कोठी बेच कर बच्चों के पास चले जाइये, ये सलाह मित्र रिश्तेदार दिया करते।
अकेले घुल रहे हैं उनकी याद में"बस आखिरी होली हो जाये यहां, वो होली पर मुझे आंगन में नज़र आती हैं..."होली के बाद कोठी को बेच देने का मन बना ही लिया। बबलू एजेंट एक दो ग्राहकों को होली के बहाने कोठी दिखाने भी ले आया था मगर ये क्या, यहां तो पूरा परिवार शहर से आ इकट्ठा था, बिल्कुल पहले सी होली, रंगों की बौछार।
पोती ने दादा के पास आकर यहीं डॉक्टरी की प्रैक्टिस करने का मन बनाया और कोठी में दवाखाने का बोर्ड भी लगा दिया था। चौधरी जी के चेहरे पर फिर पहले सी रौनक थी, मानो चौधराईन आंगन में खड़ी उन्हें देख मुस्कुरा रही हों।
