धरती माँ
धरती माँ
पानी की लाइन में खड़ी औरतें बतिया रही थीं। "हमारी किस्मत में तो बस ये लाइनें ही लिखी हैं।"
"अरे क्या हुआ रधिया।" उषा उसके थोड़ा पीछे लाइन में सर पर साड़ी का पल्ला किये खड़ी थी "अरे मत पूछ उषा, कब से यहाँ लाइन में आकर खड़ी हूँ, न जाने ये टैंकर कब आएगा और धूप भी हल्की होने का नाम नहीं लेती। इतनी दूर से धूप में पैदल चलते चलते जान निकल गयी और अब यहाँ घंटे से ज़्यादा हो गया खड़े खड़े। मेरा सर चकरा रहा है। "अरे नीचे बैठ जा और सर ढक ले। पानी की कमी तो इस साल पूरे शहर में है। ये ऊंची बिल्डिंग वाले भी हलाकान हैं, कल मैडम कह रही थी बर्तन कम पानी में धोने को, पानी थोड़ी देर के लिए मिल रहा है वहां भी।"
"कम से कम मिल तो रहा है, यहाँ तो इतनी मशक्क़त के बाद थोड़ा पानी मिलता है और पीने का पानी भी बूँद बूँद सोच कर खर्च करना पड़ रहा है।" "अरी कोई बात नहीं, पैदल चलने से मोटापा कम रहता है। अपनी बिल्डिंग वाली मैडमों को देख। डाक्टर, कसरतखानों के चक्कर लगाती हैं मगर मोटापा कम नहीं होता और तू खुद को देख, तीन बच्चों के बाद भी कैसी छरहरी है अब भी।" ये सुनकर राधा और लाइन में खड़ी औरतों के धूप में कुम्हलाये चेहरों पर कुछ पलों के लिए हंसी बिखर गयी।
उषा मदनपुर बस्ती में रहती थी, तीन बरस हुए गांव से बड़े शहर आयी थी। गाँव में छोटी मोटी खेती थी जिसमें पूरा परिवार जुटा रहता मगर पैदावार इतनी न थी। कमी में ही किसी तरह गुज़ारा होता था। मौसम के बदलाव के कारण बरसात समय पर न होती, तिस पर गर्मी, सर्दी, मानसून सब जानलेवा प्रकोप ढा जाते थे। एक साल सूखा पड़ा और गर्मी की फसल पूरी तरह नष्ट हो गयी, खाने के लाले पड़ गए। फिर जब बेमौसम बरसात हुई तो ऐसी हुई की नदी के उफान में घर सामान सब बह गया। उसकी दूर की बहन ने शहर का रास्ता सुझाया और परिवार ने बड़े शहर का रुख कर लिया। घर के पांच में से तीन सदस्यों को शहर आकर काम मिला तो उन्हें लगा अब शायद ज़िन्दगी सुधर जाए, उनके हालात कुछ बेहतर हो जाएँ, मगर क्या पता था बड़े शहरों में रोटी के अलावा भी बड़े झमेले होते हैं। घनी महँगाई और हर छोटी बड़ी चीज़ की समस्या। जहाँ रहते थे वहां हर मौसम में पानी की किल्लत रहती थी। सरकारी टैंकर से पानी की पूर्ति होती और गर्मियों में तो लम्बी लाइनों में पानी की मारा मारी है, पास ही एक बड़ी कॉलोनी थी जहाँ ऊँची इमारतें खड़ी थीं। बस्ती की ज़्यादातर औरतें वहां घरों में काम करने जाया करती थीं। उषा को भी कुछ घरों में झाड़ू पोंछा, सफाई का काम मिल गया। इस साल वहां भी पानी की किल्लत थी। दिन में सिर्फ एक घंटे के लिए पानी की हल्की सी धार आती और वो भी ऊपरी मंज़िल वाले घरों तक पहुँच न पाती। उषा बाईसवीं मंज़िल पर रहने वाली कपूर मैडम के घर काम करने जाती थी। कपूर मैडम किसी तरह थोड़ा बहुत पानी इकट्ठा कर के रखतीं, बर्तन और घर की सफाई के लिए। उषा मन ही मन खुश थी कि पानी की कमी के चलते सफाई के काम का बोझ थोड़ा कम हो गया था। जहाँ पहले बर्तनों के ढेर रोज़ मांजने पड़ते थे वहीं आजकल बर्तन किफ़ायत से इस्तेमाल होते और पोंछा भी हर दूसरे या तीसरे दिन ही लगाया जाता। कपूर मैडम बहुत सफाई पसंद थीं इसलिए उषा का साफ़ सुथरा काम उन्हें पसंद आता था। उषा मेहनती भी थी इसलिए ज़्यादा काम देखकर कभी न नुकुर नहीं करती थी। मैडम तेज़ स्वभाव की थीं और अक्सर उसे डाँट फटकार देतीं थीं, जेठ महीना बीतते ही सब आस लगाए थे कि बारिश हो तो पानी की समस्या कुछ कम हो, मगर बादल जैसे रूठ ही गए थे। लोग कहते हैं की जहाँ ये घर, बिल्डिंग, बस्ती बसी है वहां कुछ साल पहले तक एक छोटा जंगल और उसकी तराई में पानी के दलदल हुआ करते थे। शहर में तकनीकी कंपनियों को लाने के लिए शहर के बाहर बड़ा आई टी पार्क सरकार ने बनाया। एक बड़ी सड़क का निर्माण हुआ जिसमें तेज़ गति से गाड़ियाँ दौड़ सकती थीं। धीरे धीरे जब कंपनियां बसीं तो आसपास के किसानों को अपनी ज़मीनों में सोना दिखने लगा और बिल्डरों को ऊँचे दामों में ज़मीन बेच वे रातों रात बड़े असामी हो गए। अब वहां ऊंची ऊंची इमारतें खड़ी होने लगीं। कुछ सालों में आबादी बढ़ती गयी और जंगल को काट कर वहां भी रिहायशी इलाक़ा हो गया। दलदल को पाट दिया गया, वहां बसने वाले पशु पंछी रातों रात ग़ायब हो गए। जिस जगह छोटे तालाब, जलधारा बहती थीं वहां तेज़ गति की सर्पनुमा रेल दौड़नी लगीं। ये सब प्रगतिशील शहर और मनुष्य को तेज़ गति से भविष्य में ले जाने के लिए किया गया, मगर प्रकृति के कहर से बचा है कोई? अब हर साल गर्मी का तापमान बढ़ता गया। जहाँ पंखे कूलर से काम चल जाया करता था, वहां महंगे एयर कंडीशनर लगने लगे जो तापमान को और भी बढ़ा रहे थे। शहर के नदी नाले सब प्लास्टिक कचरे के कारण रुके रहते और बरसात के समय पानी सड़कों पर नदियाँ बहा देता। दलदल कच्ची ज़मीन, पेड़ पौधे न होने के कारण बरसात का सारा पानी बह जाता और भूतल में पानी का स्तर नीचे गिरता गया। हर साल कभी सूखा, तो कभी बाढ़।
"सुन उषा, तेरे घर में कोई है जो थोड़ा बहुत किसानी का काम जानता हो?" कपूर मैडम ने उषा से एक दिन पूछा।
"जी मैडम, है तो मगर काम कहाँ है। किसान तो घर बार छोड़ शहरों में आ रहे हैं, खेती में कुछ नहीं मिलता आजकल।"
"अरे वो सब तू मत सोच, कोई है तो बता। मेरा बेटा विदेश से वापस आ रहा है। कहता है वहां मन नहीं लगता, यहाँ आकर कुछ जैविक खेती करना चाहता है। शहर के पास ज़मीन देख रहा है।"
उषा अवाक रह गयी। पढ़ लिख कर, विदेश की नौकरी छोड़, खेती?" जी मैडम मेरा बेटा है सत्रह साल का है, यहाँ फैक्ट्री में लगा है काम पे, वो कर सकता है। गाँव में हमारी खेती में हाथ बटांता था, काम जानता है खेती बाड़ी का। "
"ठीक है अगले हफ्ते आ रहा है मेरा बेटा, बुलाएगा तब उसे ले आना, वो समझ लेगा।"
उषा सोचते सोचते घर जा रही थी। बूढ़ी दादी सच कहा करती थी, समय का फेर ही है सब। इंसान खेती बाड़ी छोड़ शहर जा बसा, बच्चों को पढ़ा लिखा कर साहब बनाया, विदेश भेजा और अब लौट के विदेश छोड़ खेती की तरफ लौट रहा है। ज़मीन हवा पानी की उपज ही तो हैं हम सब। कितना भी दूर भागें, ऊंची इमारतों में हवा के बीच लटके शानदार जीवन गुज़ारें, हवाई जहाज़ों में उड़ें मगर जड़ से दूर कैसे जा सकते हैं। धरती माँ है हमारी, गोद में वापस बुला ही लेती है।