हीरे सी चमक

हीरे सी चमक

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नेहा का नाम उन लड़कियों में लिया जाता जिन्हें निजी जीवन में सब कुछ मिला यानी अच्छी किस्मत वाली लड़की। गुण, रूप, परिवार सब कुछ ईश्वर ने भरपूर दिया था। कॉलेज में लड़कियां उसको देख रश्क़ करतीं। पढ़ाई में कुशाग्र और स्वाभाव से विनम्र, व्यवसाई परिवार की इकलौती बेटी थी। पढ़ाई के बाद नौकरी करने का कभी न तो ज़िक्र हुआ, न उसने सोचा। अच्छे घर में रिश्ता तय हुआ और विवाह हो गया। ससुराल भी संपन्न था। नेहा की सहेलियां उसे कहतीं, किस्मत वाली है जो इतना सुखी ससुराल और इतना सुदर्शन, मृदुभाषी और सुलझा हुआ पति विशाल उसे मिला। ससुराल में नौकर, चाकर, सुविधाएं सब थीं। ससुराल में उसका जीवन खुशहाल था, न कोई रोक टोक, न पाबंदियां। एक ही शहर में माता-पिता का घर और ससुराल दोनों थे, जब मन होता माँ के पास मिल आती।

विवाह के तीन साल बीते, मगर उसकी कोई संतान नहीं थी। अपनी सहेलियों को बच्चों के साथ देखती तो मन में टीस उठती। सब कहते, लोगों ने नज़र लगा दी, किस्मत वाली कह कह कर। डॉक्टर को दिखाया, जांच में सब नार्मल, डॉक्टर ने कहा "आप ज़्यादा उदास न हों, सेहत ठीक रखें, खुश रहें, आप दोनों बिलकुल स्वस्थ हैं। सही समय पर ज़रूर नन्हा मुन्ना आपके यहाँ आएगा।"

मगर नेहा के मन में उदासी और बेचैनी घर करती जा रही थी। घर में अधिक कामकाज नहीं था, न ही उसने कभी नौकरी वगैरह करने का सोचा, अब खाली समय जैसे उसे काटने दौड़ता। विशाल परिवार के व्यवसाय में पूरी तरह संलग्न था, अक्सर उसे शहर या देश के बाहर जाना पड़ता। अकेले में कमरे की दीवारें उसे खाने को दौड़तीं। बचपन में पेंटिंग की शौक़ीन थी तो एक पेंटिंग क्लास में जाने लगी, मगर जल्द उससे भी ऊब गयी। कमरे में रखा खाली कैनवास उसे जैसे मुंह चिढ़ाता। उस पर पेंट ब्रश छुआते भी उसे डर लगता। मानो उसके जीवन का खालीपन कैनवास पर उतर आया था।

दो दिन बाद दीवाली थी। घर में साफ़ सफाई, सजावट चल रही थी। मिठाइयों के डिब्बे, गेंदे के फूल, खीर की खुशबू सुबह से घर में फैली थी। नेहा सुबह सो कर उठी तो विशाल का सूटकेस पास पड़ा था। वो देर रात वापस आया और चुपचाप बगल में सो गया। नेहा उठने लगी तो अचानक विशाल ने कलाई पकड़ कर खींच लिया। "कैसी हैं हमारी पत्नी साहिबा? आपने मैसेज का जवाब क्यों नहीं दिया? कितना मिस कर रहा था तुम्हें"!

नेहा के चेहरे पर उदासी के भाव थे।

"नेहा, फिर इतनी उदास क्यों लग रही हो, डॉक्टर की बात याद है न? चलो उठकर तैयार हो जाओ, धनतेरस है आज, तुम्हारे लिए कुछ लेने चलते हैं, क्या ख़याल है? आज फिर से अंगूठी देकर तुम्हें प्रोपोज़ किया जाए?"

नेहा हंस दी। तैयार होकर दोनों पैदल पास के मार्किट चल दिए| आभूषण की दुकान अभी खुल ही रही थी। दुकान के बाहर फुटपाथ पर एक औरत अपनी रेहड़ी पर सामान सजा रही थी। साथ में चार बच्चे बगल में ज़मीन पर बैठे खेल रहे थे। नेहा उन्हें निहारने लगी। आभूषण की दुकान का मालिक विशाल का अच्छा दोस्त था, विशाल उससे बातें करने में मग्न हो गया। नेहा बच्चों को धूल भरे फुटपाथ पर लोटते खेलते देख रही थी। तभी नेहा को देख कर उनमें से आठ नौ साल की एक बच्ची एक प्लास्टिक का डब्बा लेकर नेहा के पास आयी और डब्बा नेहा के आगे कर दिया। प्लास्टिक के खानों में फोम पर नकली चमकीली अंगूठियां लगी थीं।

"मैडमजी ले लो, असली वाली से ज़्यादा चमकती है, बहुत सुन्दर है पहन कर देखो।"

नेहा को हंसी आ गयी।

"क्या नाम है तुम्हारा?"

"मिम्मी"

"कितने साल की हो?"

"आठ"

"पढ़ती हो?"

"नहीं, पर लिखना आता है। अब स्कूल नहीं जाती। मैडम ले लो ना, बस पचास रूपए की है।"

"अच्छा ये वाली दे दो"

नेहा ने पचास रूपए दे दिए। नेहा रेड़ी के पास गयी तो वो औरत बोली "और भी सामान है, देख लीजिये" कहकर कांच की चूड़ियां दिखाने लगी।

"ये तुम्हारे बच्चे हैं?"

"जी"

"स्कूल नहीं जाते?"

"नहीं, गाँव में थे तब पढ़ते थे, यहाँ सरकारी स्कूल बहुत दूर है। कहीं और छोड़ने में डर लगता है इसलिए साथ यहाँ ले आती हूँ। पुलिस वाले आते हैं तब इन्हें सामने ग्राउंड में भेज देती हूँ।"

"ओह! देखो मेरा घर वो सामने वाले मोड़ के पास है। कल से इन्हें सुबह के समय वहां भेज देना, मैं घर में पढ़ा दिया करूंगी हर रोज़। ये मेरा पता रख लो। पास एक स्कूल में मेरी पहचान है, दाखिले के लिए बात करूंगी।"

"जी आपकी बहुत कृपा" वो हाथ जोड़ कहने लगी।

तभी विशाल उसे बुलाने बाहर आया। "नेहा यहाँ क्या कर रही हो? चलो, तुम्हारे लिए चुनकर कुछ डायमंड रिंग्स निकलवाई हैं, तुम्हें ज़रूर पसंद आएँगी।"

"मैंने तो रिंग ले ली" नेहा नकली अंगूठी दिखाते हुए बोली। "अब घर चलते हैं, मेरी खरीददारी हो गयी, धनतेरस बहुत शुभ है हमारे लिए।"

नेहा की आँखों में बहुत दिन बाद ऐसी ख़ुशी और चमक दिखी थी| वहां वो बच्चे भी मुस्कुरा रहे थे, उनकी भी आँखों में थीं बिलकुल असली हीरे सी चमक।


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